आज (02 मई 2021) पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों की मतगणना चल रही है। केरल में फिर से लेफ्ट गठबंधन सत्ता में वापस आता दिख रहा है। तमिलनाडु में डीएमके और एआईएडीएमके के बीच लड़ाई है, लेकिन डीएमके भी राज्य में सरकार बनाने की ओर अग्रसर है। पुडुच्चेरी में भाजपा गठबंधन जीत की ओर बढ़ रहा है। लेकिन यहाँ हम पश्चिम बंगाल और असम की बात करेंगे।
असम और पश्चिम बंगाल दो ऐसे राज्य हैं जहाँ अल्पसंख्यक वोट भाजपा की जीत-हार को तय करते हैं। असम में अल्पसंख्यक वोट शेयर पश्चिम बंगाल से ज्यादा है। फिर भी असम में भाजपा विजय हासिल करने की ओर अग्रसर है, लेकिन पश्चिम बंगाल में वह संघर्ष कर रही है।
चुनाव आयोग की अधिकारिक वेबसाइट के द्वारा उपलब्ध कराए जा रहे आँकड़ों (3.30 PM) के अनुसार 48.5% वोट शेयर के साथ तृणमूल कॉन्ग्रेस (टीएमसी) 203 सीटों पर आगे चल रही है, जबकि भाजपा 37.6% वोट शेयर के साथ 81 सीटों पर बढ़त बनाए हुए है।
भाजपा के लिए यह एक अच्छी खबर हो सकती है कि पिछले विधानसभा चुनावों की तुलना में पश्चिम बंगाल में इस बार उसके वोट शेयर और विधानसभा सीटों में काफी बढ़त मिल रही है, लेकिन चिंता की बात यह है कि भाजपा का वोट शेयर 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना में घटा है। इससे साफ है कि 2019 में जिस प्रकार से पश्चिम बंगाल में हिन्दू मतदाताओं ने भाजपा का समर्थन किया था, वह 2021 के विधानसभा चुनावों में देखने को नहीं मिला, बल्कि हिन्दू वोट का एक बड़ा हिस्सा टीएमसी को चला गया।
पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम भाजपा के लिए कुछ प्रश्न खड़े करते हैं। इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढने के लिए भाजपा को असम में अपनाई गई अपनी रणनीति पर ध्यान देना होगा। असम में भाजपा की रणनीति थी हिन्दू मतदाताओं को ध्यान में रखना, बजाय इसके कि सभी को साथ लेकर चलने की संतुलित रणनीति बनाई जाए।
पश्चिम बंगाल में भाजपा ने मतुआ और महिसया समुदाय पर विशेष ध्यान दिया। इससे जमीनी स्तर पर हिन्दू वोटों का एकत्रीकरण नहीं हो पाया। ऐसी ही कुछ विशेष समुदायों पर विशेष ध्यान दिया जाना चुनावों में लाभकारी साबित नहीं हुआ। ममता बनर्जी मतुआ और महिसया समुदायों वाली सीटों पर भी जीत दर्ज करती नजर आ रही हैं। यह सही है कि चुनाव जीतने के लिए अलग-अलग समुदायों को भी ध्यान में रखना होता है, किन्तु पश्चिम बंगाल में हिन्दू मतदाताओं की तुलना में इन समुदायों पर अधिक ध्यान दिया जा रहा था।
असम में नेताओं ने चुनाव जीतने के लिए हिन्दू वोटों पर ध्यान देने में कोई हिचक नहीं दिखाई। यह माना जा रहा था कि असम के कई हिस्सों में सीएए विरोधी लहर भाजपा का नुकसान करेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। क्योंकि यह साफ था कि असम के हिंदुओं और बंगाली हिंदुओं के बीच जो भी मतभेद हैं वो सुलझा दिए जाएँगे जो कि राज्य में बढ़ती मुस्लिम आबादी के चलते संभव नहीं थी।
तथ्य यही है कि भाजपा ने बंगाल के अंदर हिन्दू वोटों का एकत्रीकरण नहीं किया। यह भी स्पष्ट नहीं है कि सीएए लागू न करने से चुनाव परिणाम पर क्या असर हुआ है।
अब कुछ ऐसे भी समर्थक होंगे जो बंगाल के मतदाताओं को चुनाव परिणाम के लिए दोष देंगे, लेकिन ऐसा करना सही नहीं है। लोकतंत्र में एक वोट भी किसी राजनैतिक पार्टी का उधर नहीं होता है, बल्कि प्रत्येक राजनैतिक पार्टी को अपने वोट कमाने पड़ते हैं। भाजपा को 2019 लोकसभा चुनावों में वोट देने वाले 3-4% मतदाताओं नए इस बार ममता बनर्जी को वोट दिया। यह बताना इसलिए जरूरी है कि पार्टियाँ परिणामों की समीक्षा करें, लेकिन इसके लिए मतदाताओं को दोष देना पूरी तरह गलत है।
2019 में बंगाल में धार्मिक आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण हुआ था, लेकिन 2021 में यह नहीं हुआ। परिणामस्वरूप भाजपा 2021 में बुरी तरह से हार गई। असम में 2019 और 2021 में दोनों बार वोटों का ध्रुवीकरण हुआ जिससे पार्टी को जीत मिली।
यह भी कहा जा रहा है कि 2019 में लोकसभा चुनाव थे जिसमें पीएम मोदी प्रमुख चेहरा थे और यह विधानसभा चुनाव है। लेकिन एक सत्य यह भी है कि इन दोनों ही राज्यों में 2019 में जो महत्वपूर्ण था, वही आज भी है। सीएए, अवैध घुसपैठिए और अल्पसंख्यक वोट शेयर 2019 में भी महत्वपूर्ण थे और आज भी हैं। आगे भाजपा के लिए यह साफ है कि वह विभिन्न समुदायों पर ध्यान केंद्रित करने के स्थान पर हिन्दू मतदाताओं को संगठित रखने की रणनीति पर काम करे।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि भाजपा के पास स्थानीय स्तर पर कोई चेहरा नहीं था। दिलीप घोष और शुभेन्दु अधिकारी की लोकप्रियता के बाद भी भाजपा इन क्षेत्रों में हार रही है। निश्चित तौर पर भाजपा को इन चुनावों पर विश्लेषण करना चाहिए।