पश्चिम बंगाल में चुनाव समाप्ति की ओर बढ़ रहे हैं, पर चुनाव में होने वाली हिंसा का अंत निकट नहीं जान पड़ता। पिछले चुनावों से तुलना की जाए तो इस विधानसभा चुनावों में पाँचवें चरण तक चुनावी हिंसा में बहुत कमी आई है। लेकिन हिंसा पूरी तरह से रुकती हुई दिखाई नहीं दे रही। हिंसा रोकने के लिए विभिन्न चरणों के लिए मतदान की योजना और पर्याप्त केंद्रीय सुरक्षा बलों की उपस्थिति का प्रभाव साफ़ दिखाई दे रहा है। पर राजनीतिक दलों की ओर से हिंसा रोकने के लिए किए गए प्रयास पर्याप्त नहीं हैं।
चुनावी हिंसा के इसी क्रम में भाजपा प्रत्याशी प्रिया साहा के प्रचार क़ाफ़िले पर 17 अप्रैल को हमला हुआ। उसके पहले मालदा में भाजपा प्रत्याशी गोपाल चंद्र साहा पर जानलेवा हमला हुआ था, जिसमें भाजपा के अनुसार तृणमूल कॉन्ग्रेस के लोगों ने साहा को गोली मारी थी। ऐसे में इस विधानसभा चुनाव के भी लगभग हर चरण में हिंसा हुई और भाजपा प्रत्याशियों पर हमले होते रहे।
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास पुराना रहा है। 1970 के दशक में शुरू हुई राजनीतिक हिंसा में 1980 और 1990 के दशक की चुनावी हिंसा जुड़ती गई और राजनीतिक संस्कृति का लगभग अभिन्न अंग बन गई। पुराने अख़बारों के आर्काइव खँगाले जाएँ तो चुनाव के समय और उसके बाद हुई राजनीतिक हिंसा के कहानियों का एक पूरा भंडार मिलेगा। हिंसा के साथ-साथ मतदान सम्बंधित अनियमितता, बूथ जाम करने की संस्कृति और मतदान सूची से लोगों के नाम ग़ायब कर देने की बातें आम थीं।
ऐसा नहीं कि चुनावी राजनीति के ये तत्व केवल पश्चिम बंगाल में ही मिलते थे। पर एक प्रश्न अवश्य उठता है कि 1990 के दशक में शुरू हुए चुनाव सुधारों का व्यापक असर पश्चिम बंगाल की राजनीतिक पर क्यों नहीं पड़ा? ऐसा क्यों हुआ कि चुनावी हिंसा रुकने के बजाए और बढ़ती गई और एक समय ऐसा आया जब लगातार बढ़ती इस हिंसा को राजनीति का एक स्थायी तत्व मान लिया गया? ऐसा क्यों हुआ कि चुनाव से महीनों पूर्व गाँवों तक में बमों का निर्माण होने लगा? क्यों हर चुनाव से पूर्व राजनीतिक दलों के बीच हिंसा बढ़ती गई?
बाक़ी के राज्यों से तुलना की जाए तो पश्चिम बंगाल के राजनीतिक विमर्श में लगातार बढ़ती हिंसा को लेकर कभी बहस ही नहीं हुई। कभी इसे लेकर बुद्धिजीवियों ने आवाज़ नहीं उठाई। कारण शायद यह था कि विचारधारा से वामपंथी ये बुद्धिजीवी दशकों से सत्ता में टिके वाम दलों को किसी असमंजस की स्थिति में नहीं डालना चाहते थे। वैसे इस मुद्दे पर कभी मीडिया में भी बहस नहीं की गई और उसका कारण भी शायद यही था कि अधिकतर पत्रकारों, संपादकों और कॉलम्निस्ट का झुकाव वामपन्थ की ओर था और ये लोग भी विचारधारा पर नैतिकता सम्बंधित प्रश्न उठाए जाने के पक्षधर नहीं थे। ऐसी बातों का असर यह हुआ है कि अब लगभग दो दशकों से राष्ट्रीय मीडिया भी भीषण हिंसा को पश्चिम बंगाल की राजनीति का एक अभिन्न अंग मानने लगा है।
जब वामदल सत्ता में थे तब पंचायत और म्यूनिसिपल चुनावों के दौरान हिंसा आम बात थी। वाम दलों की इस हिंसात्मक राजनीति को तृणमूल कॉन्ग्रेस के रूप में एक काबिल उत्तराधिकारी मिल गया। तृणमूल ने भी अपनी क़ाबिलियत दिखाई और हिंसा की इस राजनीति में कभी गिरावट नहीं आने दी। अधिक पीछे न जाकर यदि पिछले 10-15 वर्षों में देखें तो वामपंथी दलों के समय में 2008 के पंचायत चुनावों के दौरान बरहमपुर में भीषण हिंसा हुई थी, जिसमें डेढ़ दर्जन से अधिक लोग मारे गए थे। वामपंथियों की इस संस्कृति को आगे बढ़ाते हुए 2018 के पंचायत चुनावों में तृणमूल कॉन्ग्रेस ने भी भीषण हिंसा का सहारा लिया जिस पर दल को हाईकोर्ट से भी फटकार मिली थी।
दरअसल, देखा जाए तो वर्तमान चुनावों में दल के विरुद्ध असंतोष का एक कारण 2018 के पंचायत चुनावों में की गई हिंसा भी है। पिछले तीन वर्षों में प्रदेश की राजनीति देखें तो भाजपा के लगभग डेढ़ सौ सदस्यों, समर्थकों और नेताओं की हत्या हो चुकी है। इस मामले में पश्चिम बंगाल का मुक़ाबला केवल केरल ही कर सकता है।
यदि वर्तमान विधानसभा चुनाव को देखें तो प्रत्याशियों पर समय-समय पर होनेवाले हमलों के अलावा नेताओं द्वारा दिए गए वक्तव्य पर भी चुनाव आयोग ने नज़र बनाए रखी। ममता बनर्जी द्वारा केंद्रीय सुरक्षा बलों के घेराव वाला बयान और अल्पसंख्यकों से वोट बँटने न देने की अपील इसी तरह के वक्तव्य थे, जिन पर चुनाव आयोग ने उनके प्रचार पर प्रतिबंध भी लगाया। इसी तरह भाजपा के कुछ प्रत्याशियों के वक्तव्य को लेकर भी चुनाव आयोग सख़्त रहा जो स्वागत योग्य कदम है।
इस बार के चुनाव के सभी चरण यदि बिना और हिंसा के हो जाते हैं तो चुनाव आयोग निश्चित तौर पर बधाई का पात्र होगा। साथ ही नागरिकों के मन में यह आशा भी जगेगी कि पश्चिम बंगाल में शायद आगे एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति की शुरुआत हो जिसमें हिंसा के लिए जगह न रहे। लगभग चार दशकों से राजनीतिक हिंसा का दंश झेल रहे पश्चिम बंगाल के लोगों के लिए यह न केवल राहत की बात होगी, बल्कि राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता अपनी ऊर्जा सकारात्मक कामों पर खर्च कर सकेंगे।