हरियाणा में भाजपा ने दुष्यंत चौटाला की जेजेपी और महाराष्ट्र में अजित पवार के नेतृत्व वाले एनसीपी के धड़े के साथ सरकार क्या बनाई, फिर से पुराना रोना रोया जा रहा है। गोवा और मणिपुर में भाजपा ने किस तरह सरकार बनाई, इसे याद किया जा रहा है। इन दो राज्यों में ज्यादा वोट पाने के बावजूद भाजपा को सीटें कम मिली थी और उसने छोटे दलों को साध कर सरकार बना ली।
दूसरे शब्दों में कहे तो यह हमारी चुनावी लोकतंत्र की वो विशेषता है जिसके कारण कम वोट पाने के बावजूद कॉन्ग्रेस को ज्यादा सीटें मिली। संसदीय प्रणाली की इसी अनूठेपन का फायदा उठा भाजपा ने दोनों राज्यों में सरकार बना ली।
यकीनन, अपनी दलगत निष्ठा के आधार पर लोग यह तय करेंगे कि किस पार्टी ने ‘लोकतंत्र की हत्या’ की। इसी दरम्यान मेरी नजर इस ट्वीट पर पड़ी;
चिदंबरम के इस ट्वीट को देख कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि इसमें कितनी गंभीरता छिपी है। ऐसा लगता है कि यह ट्वीट ‘बूरा ना मानो होली है’ वाले मूड में की गई है। महाराष्ट्र के सियासी उठापठक के बाद भी कुछ इसी तरह की बातें सुनाई पड़ रही। खैर, इन बातों को छोड़िए। मैं आपको 2005 के एक राजनीतिक घटना के बारे में बताता हूँ। यह पॉलिटिकल थ्रिलर उसी झारखंड में देखने को मिला था जहॉं हाल ही में विधानसभा चुनाव होने हैं।
फरवरी 2005 में झारखंड विधानसभा चुनाव (कुल 81 सीटें) के परिणाम (PDF लिंक) यहाँ दिए गए हैं।
उस चुनाव में भाजपा सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी थी। उसने 63 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 30 पर जीत हासिल की थी। भाजपा के चुनाव पूर्व गठबंधन सहयोगी जद (यू) ने 18 सीटों पर चुनाव लड़ा और 6 जीते। इस तरह 81 सदस्यीय विधानसभा में एनडीए को 36 सीटें मिली थी।
यूपीए में शामिल दल उनसे काफी पीछे थे। जेएमएम को 17 और कॉन्ग्रेस को 9 सीटें मिली थी। यदि एनसीपी को मिली 1 सीट भी इनके खाते में जोड़ दे तो संख्या 27 ही हो रही थी।
नतीजों के बाद भाजपा को पाँच अन्य विधायकों का समर्थन प्राप्त हुआ: 2 AJSU (ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन) से, झारखंड पार्टी के इकलौते विधायक और दो अन्य निर्दलीय का। इस तरह एनडीए का आँकड़ा 41 सीटों तक पहुँच गया, जो स्पष्ट बहुमत था।
(नोट: सांगठनिक ढॉंचे और कायदों के अभाव के कारण कई मीडिया रिपोर्टों में भाजपा को समर्थन करने वाले पॉंच विधायकों को निर्दलीय बताया जाता है)
भाजपा ने विधिवत रूप से सरकार बनाने का दावा किया और झारखंड के माननीय राज्यपाल के समक्ष पाँच समर्थक विधायकों की परेड करवाई।
लेकिन, राज्यपाल सैयद सिब्ते रज़ी ने कुछ ऐसा किया जिसने पूरे झारखंड को स्तब्ध कर दिया। उन्होंने झामुमो (झारखंड मुक्ति मोर्चा) सुप्रीमो शिबू सोरेन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। सोरेन को सीएम और स्टीफन मरांडी को डिप्टी सीएम के रूप में शपथ दिलाई गई।
यह कितना अनैतिक था इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि डिप्टी सीएम बने मरांडी जेएमएम से बगावत कर चुनाव जीते थे। वे सीएम बने शिबू सोरेन के बेटे हेमंत को हराकर विधानसभा पहुॅंचे थे। असल में हेमंत उस चुनाव में दुमका की सीट पर 20 हजार वोट हासिल कर तीसरे नंबर पर रहे थे। दूसरे नंबर पर भाजपा का उम्मीदवार था।
राज्यपाल के इस कदम के विरोध में एनडीए ने राज्यव्यापी बंद और आंदोलन का आह्वान किया, लेकिन यह बेहद कारगर नहीं रहा। उनके लिए एकमात्र विकल्प यह था कि 41 विधायकों की राष्ट्रपति कलाम के सामने परेड करवाने के लिए दिल्ली ले जाया जाए, जो जनता के दृष्टिकोण में “नैतिक जीत” होती। इसके लिए 3 मार्च 2005 की तारीख चुनी गई। रांची से दिल्ली की उड़ान 90 मिनट की है। 5 निर्णायक निर्दलीयों के साथ 41 विधायकों को दिल्ली लाना पहली नजर में सामान्य सी बात लगती है।
वाकई! यह इतना आसान था?
हाँ, आपने सही पढ़ा है! उप मुख्यमंत्री स्टीफन मरांडी और उनके लोगों ने रांची के बिरसा मुंडा हवाई अड्डे के रनवे पर उस चार्टर्ड विमान को रोक दिया जो उड़ान भरने के लिए तैयार था! विमान को वापस लौटने का आदेश दिया गया और फिर विमान में सवार निर्दलीय विधायकों पर अपने कब्जे में लेने के लिए छापा मारा गया। यह कोई हॉलीवुड फ़िल्म की स्क्रिप्ट नहीं है। यह हमारी यूपीए सरकार द्वारा निर्मित एक कम बजट की थ्रिलर फ़िल्म थी।
यूपीए ने इन पाँच विधायकों को पकड़ने के बाद क्या किया?
कुछ भी तो नहीं, क्योंकि विमान में पाँच विधायक बिल्कुल भी नहीं थे।
जब कॉन्ग्रेस सरकार रांची हवाई अड्डे पर व्यस्त थी, पाँच निर्दलीय राज्य की सीमा से बाहर निकल रहे थे। वे कहॉं जा रहे थे? स्वभाविक तौर पर भाजपा शासित पड़ोसी प्रदेश छत्तीसगढ़। वे वहॉं महफूज रह सकते थे। लेकिन, वे छत्तीसगढ़ नहीं जा रहे थे। यूपीए सरकार को जब अहसास हुआ कि विधायक उनके दायरे से निकल चुके हैं तो छत्तीसगढ़ पहला राज्य था जिससे लगी सीमा सील की गई। तो यकीनन वे ओडिशा जा रहे होंगे? उस समय एनडीए के हिस्सा रहे वहॉं के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के पास भी खुद को महफूज मान सकते थे।
आपकी सोच एक बार फिर गलत साबित हो सकती है। असल में विधायक माकपा शासित पश्चिम बंगाल की तरफ निकल चुके थे। उन्हें रोकने के लिए हर तिकड़म में जुटी यूपीए सरकार ने बंगाल की सीमा से सटे इलाकों में सबसे कम निगरानी रख रखी थी। शायद यह सोचकर कि भाजपा कभी भी वाम शासित प्रदेश को विधायकों को भेजने के लिए नहीं चुन सकती!
दुर्गापुर पहुॅंचने के बाद विधायकों को वेंकैया नायडू का संदेशा मिला। उन्होंने विधायकों से खड़गपुर रेलवे स्टेशन जाने को कहा। वहॉं से 3 मार्च को रात के 2:30 बजे उन्होंने भुवनेश्वर की ट्रेन पकड़ी। तीन मार्च की सुबह पॉंच बजे आखिरकार वे पूरी तरह महफूज हो चुके थे।
इस बीच, भाजपा लगातार अपने बयानों से यूपीए के रणनीतिकारों को गुमराह करती रही। उन्हें बार-बार भ्रम में डालती रही। अफवाह उड़ी कि विधायक अभी भी रांची में हैं। इसके बाद कहा गया कि वे दिल्ली में हैं। एक मौके पर भाजपा ने यह भी हवा उड़ाई कि विधायक अहमदाबाद में हैं।
उस दोपहर, पाँच समर्थक विधायकों ने आख़िरकार भुवनेश्वर से दिल्ली के लिए इंडियन एयरलाइंस की फ़्लाइट पकड़ी। फिर उनकी राष्ट्रपति के सामने परेड कराई गई।
नौ दिन बाद, झारखंड के राज्यपाल सिब्ते रज़ी ने शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री के पद से बर्खास्त कर दिया और अर्जुन मुंडा को राज्य में सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया।
नोट: निजी तौर पर मैं गोवा में सरकार बनाने के लिए भाजपा के प्रयासों का समर्थन नहीं करता। यदि वे सरकार नहीं बनाते तो वह पर्रिकर और पार्टी की छवि के लिए ज्यादा बेहतर होता।
अभिषेक बनर्जी की मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई खबर पढ़ने के लिए आप यहॉं क्लिक कर सकते है। इसका हिंदी अनुवाद प्रीति कमल ने किया है।