देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कॉन्ग्रेस पहले भी कई बार टूट चुकी है। उसके लोग विरोधी दलों में भी जाते रहे हैं। लेकिन, आज जितनी बेबस और लाचार कॉन्ग्रेस पहले कभी नहीं दिखी। एक के बाद एक झटके और दूर-दूर तक दिन बहुरने की उम्मीद नहीं। जब वह कर्नाटक में सरकार बचाने की जद्दोजहद में फँसी थी, तभी गोवा में उसके दो तिहाई विधायक पाला बदल लेते हैं और उसे इसकी भनक तक नहीं लगती। क्या इसका एकमात्र कारण मोदी-शाह की जोड़ी है (जैसा कि कॉन्ग्रेस आरोप लगाती है)? क्या कॉन्ग्रेस कथित धनबल और बाहुबल के आगे पस्त है? यकीनन नहीं!
वैसे, भी भारतीय राजनीति में कॉन्ग्रेस साम, दाम, दंड, भेद की घाघ खिलाड़ी रही है। सो, चुनावी पराजयों से उसके इस हुनर के भोथरा होने की बात मान लेना नासमझी ही कही जा सकती है। असल में कॉन्ग्रेस जिस दम पर (मजबूत संगठन, नेहरू-गांधी परिवार का नेतृत्व और क्षेत्रीय क्षत्रप) अपने पासे चलती थी, आज वही संकट में है। इसलिए ताज्जुब नहीं की पार्टी के कद्दावर नेता रहे जनार्दन द्विवेदी को कहना पड़ा, “हार के कारण पार्टी के भीतर है न कि बाहर।” एक अन्य वरिष्ठ नेता कर्ण सिंह ने कॉन्ग्रेस नेताओं की चाटुकारिता पर हमला करते हुए कहा कि नेताओं ने अधिकतर समय राहुल के इस्तीफे के बाद ख़ुशामद में बीता दिया।
वरिष्ठ नेताओं का इस तरह से बयान देना कॉन्ग्रेस के अंदर के घमासान को उजागर करता है। ऐसे में खुद को अलग-थलग और असुरक्षित महसूस कर रहे नेताओं का पलायन चौंकाने वाला नहीं है। मान लें की कुछ नेता सत्ता से ही चिपके रहना चाहते हैं तो फिर कर्नाटक कॉन्ग्रेस में फूट नहीं पड़नी चाहिए थी। वहाँ बीते साल चुनाव हारने के बावजूद जद (एस) के साथ कॉन्ग्रेस सरकार बनाने में कामयाब रही थी।
असल में, शीर्ष पर बैठे कॉन्ग्रेस नेताओं को इनकी फिक्र ही नहीं है। हेमंत बिश्व शर्मा के कॉन्ग्रेस छोड़ने से यह पहले ही जगजाहिर हो चुका है। अभी दिख रही उठापठक भी इससे अलग नहीं है।
कॉन्ग्रेस के लिए इसकी शुरुआत 2011 से ही होने लगी थी जब अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव के आन्दोलनों से देश भ्रष्टाचार और परिवारवाद के ख़िलाफ़ आक्रोशित था और कॉन्ग्रेस सत्ता में थी। इस पर बहुतों बार लिखा जा चुका है कि कैसे आंदोलन को कुचलने की कोशिश में पार्टी ने अपनी विश्वसनीयता खो दी।
इसके बाद 2012 में गुजरात विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की लगातार तीसरी जीत ने देश के सारे राजनीतिक समीकरण पलट कर रख दिए। इस पर भी विस्तृत बहस हो चुकी है कि किस तरह आज़ादी के बाद से चले आ रहे कॉन्ग्रेसी वर्चस्व को उन्होंने धीरे-धीरे ऐसे ख़त्म कर दिया कि यह भारत के इतिहास में हमेशा एक नए समय की शुरुआत के रूप में याद किया जाएगा। आख़िर कॉन्ग्रेस की आज ऐसी हालत क्यों है?
नीचे संलग्न वीडियो को देखिए। लोकसभा में कॉन्ग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी बोल रहे हैं लेकिन उनके पीछे बेंच खाली पड़ी हुई है। उनके ख़ुद की ही पार्टी के नेता उन्हें सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे में, अगर किसी सक्षम व्यक्ति को पार्टी में अहम पद दिया भी जाए तो उसका कोई महत्व नहीं रह जाएगा। लोकसभा में अधीर रंजन चौधरी को कॉन्ग्रेस ने अपना नेता तो चुन लिया, लेकिन उनकी बात सुनने का समय उसके संसद नहीं निकाल पा रहे।
Adhir Ranjan Choudhary speaking in Lok Sabha and like always his colleagues not in benches pic.twitter.com/9aVfzQ3JhK
— Smita Prakash (@smitaprakash) July 11, 2019
दूसरी बात, क्या कॉन्ग्रेस टिकट देते समय नेताओं की विश्वसनीयता को नहीं परखती? क्या ऐसे नेताओं को टिकट दे दिया जाता है जो दलबदलू होते हैं और जिनकी कोई विचारधारा नहीं होती? क्या कॉन्ग्रेस के विधायक बिकाऊ हैं? अगर ऐसा है तो शाह क्या कोई भी विपक्षी पार्टी का अध्यक्ष उन्हें ख़रीद लेगा। क्या कॉन्ग्रेस के विधायकों का स्तर इतना नीचे गिर गया है कि उनके सिर पर बोर्ड चस्पा है- “यह विधायक बिकाऊ है।”
सोनिया गाँधी द्वारा अपनी सक्रियता कम करने के बाद कॉन्ग्रेस में ऐसा पहली बार हो रहा है जब पार्टी में नेताओं को एक रखने के लिए कोई सक्षम नेता मौजूद नहीं है। जब कॉन्ग्रेस दो धड़ो में बँट गई थी, तब भी इंदिरा ने उसे संभाल लिया था। आज ऐसा कोई सक्षम नेता नहीं है। राहुल गाँधी के बारे में तो बात ही न की जाए तो अच्छा है क्योंकि एक ही झूठ को सच साबित करने की कोशिश करने वाला नेता कभी भी दूरदर्शी नहीं हो सकता। हाँ, उसकी बातों से जनता चिढ़ेगी ज़रूर।
और कॉन्ग्रेस किस नैतिकता की बात करती है। कर्नाटक की जनता ने उसे विपक्ष में बैठने का जनादेश दिया था। लेकिन भाजपा को रोकने के नाम पर उसने एक कामचलाऊ सरकार बनाई, जिसकी अकाल मौत की अटकलें उसके बनने के बाद ही शुरू हो गई थी।
आज हरियाणा में भी ऐसा ही हाल है। प्रदेश अध्यक्ष अशोक तँवर और पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के बीच ऐसी गुटबाजी चल रही है कि वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद की भी कोई नहीं सुन रहा। वहाँ भी कल को ऐसे ही हालत पैदा होंगे और फिर भाजपा को दोष दिया जाएगा। पंजाब में केंद्रीय नेतृत्व के लाडले सिद्धू दफ्तर छोड़ कर ही गायब हैं और मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह से उनकी उठापटक जारी है। बिहार में जदयू महागठबंधन से अलग क्या हुई, कॉंग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष ही नीतीश के साथ हो लिए। उत्तर प्रदेश में तो कलह का आलम यह है कि वहाँ प्रियंका और सिंधिया भी लाचार नज़र आए। गुजरात में एक-एक कर विधायक पाला बदल रहे हैं।
और यह केवल बाहुबल या धनबल का ही कमाल नहीं। अगर ऐसा होता तो गोवा में पार्टी छोड़ने वाले विधायकों ने अलग दल बनाया होता ताकि भविष्य में भी भाजपा के साथ मोल-भाव कर सकें। लेकिन, उन्होंने भाजपा में शामिल होने का फैसला किया। आखिर क्यों? असल में, आज भाजपा के अलावा नेताओं को कोई दूसरा दल नहीं दिख रहा जहां वे खुद का भविष्य सुरक्षित मान सके और मोदी के अलावा कोई दूसरा नेता नहीं दिखता जिसमें अपने लोगों की नैया पार लगाने की कूवत हो।
कॉन्ग्रेस पार्टी कई बार टूटी। 1956 में सी राजगोपालचारी ने अलग पार्टी बना ली। 1967 में चरण सिंह ने कॉन्ग्रेस को तोड़ कर अलग पार्टी बनाई। इंदिरा के समय भी कॉन्ग्रेस टूटी। 1977 में आपातकाल के बाद जगजीवन राम अलग पार्टी बना कर छिटक गए। दक्षिण में एके एंटनी, बंगाल में प्रणव मुखर्जी, महाराष्ट्र में शरद पवार, छत्तीसगढ़ में अजित जोगी और हरियाणा में बंसीलाल के नेतृत्व में समय-समय पर कॉन्ग्रेस विभाजित हुई। लेकिन यहाँ सवाल यह है कि अब पार्टी के विधायक अलग होकर नई पार्टी क्यों नहीं बना रहे? वे भाजपा के साथ ही क्यों जा रहे हैं? अगर वो नया दल बना लें तो वे ज्यादा मोलभाव करने की स्थिति में होंगे।
सार यह कि अब कॉन्ग्रेस पार्टी का कोई ख़ास कैडर नहीं रहा। नैरेटिव के इस दौर में लगातार ग़लत क़दम उठा कर जनता के बीच ग़लत सन्देश देने पर उसके बुरे परिणाम आपको भुगतने पड़ेंगे, भले ही इसमें समय लगे। मई 2018 में हुई ग़लती का परिणाम जुलाई 2019 में निकल कर आ रहा है। ऐसे में, पार्टी को एक ऐसा अध्यक्ष चाहिए जो क्षत्रपों को एक रखने के साथ-साथ सही निर्णय लेने की क्षमता रखता हो। अध्यक्ष के साथ नेताओं की एक ऐसी टीम चाहिए, जो सही रणनीति बना सके। अगर ऐसा नहीं होता है तो गाँधी के आदर्शों पर चलने का दावा करने वाली कॉन्ग्रेस शायद देश के राजनीतिक पटल से गायब ही न हो जाए।