Tuesday, October 15, 2024
Homeविचारसामाजिक मुद्देलड़की के परिवार वाले और हत्या: आमिर खान की फिल्म से लेकर 'ऑनर किलिंग'...

लड़की के परिवार वाले और हत्या: आमिर खान की फिल्म से लेकर ‘ऑनर किलिंग’ पर अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट तक

हाथरस मामले में अब पुलिस सूत्रों को पता चल रहा है कि दोनों परिवारों में पहले से रंजिश चली आ रही थी। इसके बाद भी पिछले कुछ दिनों में ही दोनों परिवारों के दो लोग 100 बार एक दूसरे से फोन पर बातचीत कर रहे थे।

क़यामत से क़यामत तक फिल्म का नाम बदल कर रखा गया था। जब ये बननी शुरू हुई थी तो इसका नाम “नफरत के वारिस” रखा गया था। मंसूर खान की निर्देशक के रूप में और आमिर खान की फ़िल्मी हीरो के तौर पर तो ये पहली फिल्म थी ही, साथ ही चीन में रिलीज़ होने वाली आमिर खान की पहली फिल्म भी यही थी। इसी साल “तेज़ाब” और “शहंशाह” भी आई थी इसलिए 1988 में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों में ये तीसरे नंबर पर रही। फिल्म के गाने भी अच्छे खासे प्रसिद्ध हुए थे और कुछ तो अब भी गुनगुना लिए जाते हैं।

जैसे लोग ये फिल्म बना रहे थे, उसमें ये किधर झुकाव को बढ़ावा दे रही होगी, ये समझना कोई मुश्किल नहीं है। इसमें कुछ ठाकुरों (राजपूतों) को दिखाया जाता है, जो किसी गाँव में रहते हैं। जमींदारी प्रथा के सदियों पहले ख़त्म होने के बाद भी ये जैसे-तैसे खेती करके गुजारा करने वाले लोग नहीं बल्कि बड़े जमींदार हैं। एक परिवार की लड़की का प्रेम प्रसंग दूसरे परिवार के युवक से चल रहा होता है, और युवती गर्भवती हो जाती है।

लड़का शादी से इंकार करता है, लड़की आत्महत्या करती है और लड़की के परिवार का एक व्यक्ति उस लड़के की हत्या कर डालता है। हत्या के आरोप में वो जेल भी जाता है, परिवारों में दुश्मनी भी शुरू हो जाती है और जैसा की आम नैरेटिव होना चाहिए, बिल्कुल वैसे ही इन परिवारों की महिलाओं को किसी फैसले में अपनी राय देने या फैसला लेने की इजाजत भी नहीं होती। जिस लड़की ने आत्महत्या की थी, उस परिवार का लड़का जब बड़ा होता है तो उसका प्रेम प्रसंग दूसरे परिवार की लड़की से शुरू हो जाता है।

जिसके पिता ने बरसों पहले उनके परिवार के एक नौजवान की हत्या की थी, उसी लड़के से भला वो लड़की की शादी करवाने को क्यों तैयार होते? झगड़े के फिर से बढ़ने की एक नई वजह शुरू हो जाती है। परिवारों के शादी के विरुद्ध होने पर लड़का लड़की घर से भाग जाते हैं। लड़की के परिवार वाले लड़के की हत्या के लिए किराए के गुंडे लाते हैं। फिल्म के अंत का सबको पता ही होगा, लड़के को बचाते हुए लड़की मारी जाती है और उसके गम में लड़का आत्महत्या कर लेता है। इस फिल्म के प्रचार के लिए आमिर खान ने एक नए तरीके का इस्तेमाल किया था।

उनका चेहरा पहले ही जाना पहचाना नहीं था ऊपर से उन्होंने बिना चेहरे वाले पोस्टर कई जगह लगवाए। इन पर जो प्रचार की लाइन थी, वो कहती थी “आमिर खान कौन है? पड़ोस वाली लड़की से पूछो!” अब अगर फिल्म के जरिए गढ़े गए नैरेटिव पर आएँ तो सबसे पहले “ऑनर किलिंग” को देखना होगा। ये भारतीय समाज के लिए 1980-90 के दौर में कोई समस्या नहीं थी। उस दौर में ना तो इस तरह की ज्यादा घटनाएँ सुनाई देती थीं, ना ही होती थीं।

जिन समुदायों में आज भी ये समस्या है, उसमें “राजपूताना” कहलाने वाला क्षेत्र काफी पीछे आएगा। भारत के बाहर देखें तब जरूर ये समस्या विश्वव्यापी लगने लगती है। गज़ाला खान की हत्या के प्रकरण में 2005 में डेनमार्क में ऐसा एक मामला प्रकाश में आया था, जिसमें पाकिस्तानी मूल के परिवार ने गज़ाला खान की हत्या कर दी थी। फ़िनलैंड में ऐसा एक मामला 2015 में पहली बार सामने आया, जिसमें इराकी मूल के लोगों को सजा हुई और दोबारा इसी किस्म के एक मामले में 2019 में भी एक इराकी ही पकड़ा गया था।

कई इस्लामिक मुल्कों में ऐसे मामले प्रकाश में आते रहे हैं और ये सब अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों के भी विषय रहे हैं। पाकिस्तान में ऐसी हत्याओं के लिए बाकायदा “कारो-कारी” लफ्ज़ इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे मुद्दों पर इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान के कई मानवाधिकार कार्यकर्त्ता, लम्बे समय से काम भी करते आ रहे हैं। बीबीसी की रिपोर्टों की मानें तो सिर्फ 1999 से 2004 के बीच इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान में “ऑनर किलिंग” के कम से कम 4000 मामले हुए थे।

इस किस्म के मामलों पर अभी ध्यान इसलिए चला जाता है क्योंकि हाथरस मामले में अब पुलिस सूत्रों को पता चल रहा है कि दोनों परिवारों में पहले से रंजिश चली आ रही थी। इसके बाद भी पिछले कुछ दिनों में ही दोनों परिवारों के दो लोग 100 बार एक दूसरे से फोन पर बातचीत कर रहे थे। डकैती-हत्या जैसे हिंसक अपराधों के मामले में अक्सर ऐसा पाया जाता है कि अपराधी किसी फिल्म से प्रेरित होकर उसकी नक़ल करने निकले होते हैं।

“क़यामत से क़यामत तक” जैसी फिल्मों के जरिए सेट किया गया नैरेटिव भी कहता है कि अक्सर ऐसे मामलों में लड़की के परिवार वाले ही हत्या में शामिल होते हैं। शायद वक्त आ गया है जब हम स्थापित नैरेटिव पर सवाल उठा कर देखें। बाकी जब कहते हैं कि फ़िल्में समाज का आइना होती हैं तो वो कितना सच होता है, ये तो सोचना ही चाहिए। फ़िल्मी हीरो-हीरोइन के स्टाइल के बालों का कट या कपड़ों का स्टाइल समाज को कॉपी करते तो देखा ही होगा। सच में फ़िल्में समाज का आइना है या समाज फिल्मों के आईने सा होता है?

Join OpIndia's official WhatsApp channel

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

Anand Kumar
Anand Kumarhttp://www.baklol.co
Tread cautiously, here sentiments may get hurt!

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

कार में बैठ गरबा सुन रहे थे RSS कार्यकर्ता, इस्लामी कट्टरपंथियों की भीड़ ने घेर कर किया हमला: पीड़ित ने ऑपइंडिया को सुनाई आपबीती

गुजरात के द्वारका जिले में आरएसएस स्वयंसेवक पर हमला हुआ, जिसकी गलती सिर्फ इतनी थी कि वह अपनी कार में गरबा सुन रहा था।

कनाडा में जब पिता बने आतंक की ढाल तो विमान में हुआ ब्लास्ट, 329 लोगों की हुई मौत… अब बेटा उसी बारूद से खेल...

जस्टिन ट्रूडो के पिता पियरे ट्रूडो ने भी खालिस्तानी आतंकियों का पक्ष लिया था। उसने भी खालिस्तानियों को भारत प्रत्यर्पित नहीं किया थ।

प्रचलित ख़बरें

- विज्ञापन -