पेट्रोल बम फेंको, नौकरी पाओ योजना: ‘ये लोग’ दंगाइयों को पालते रहेंगे, हिंदू सोता रहेगा

गजवा-ए-हिंद का सपना लिए 8 साल के बच्चे से लेकर 80 साल के चचा तक

पिछले दिनों में दो खबरें आई हैं जो पढ़ कर आपको लगेगा कि ये भीम-मीम, वामपंथी-दंगाई, नक्सली-आतंकी इकोसिस्टम किस तरह से काम करता है, और फिर अपने लोगों को कैसे हिंसा करने को उकसाता रहता है। एक लड़का था जिसकी आँख जामिया वाली आगजनी, पत्थरबाजी और हिंसा में चली गई। उसकी आँख किसने फोड़ी ये किसी को पता नहीं, लेकिन इतना सबको पता है कि उस दंगे में शास्त्रीय संगीत में तबले और बाँसुरी की जुगलबंदी तो बिलकुल नहीं चल रही थी। उस लड़के को दिल्ली वक्फ बोर्ड ने नौकरी देने का फैसला लिया, साथ ही कथित तौर पर दंगा भड़काने वाला आम आदमी पार्टी विधायक अमानतुल्ला खान ने पाँच लाख रुपए भी दिए।

दूसरी घटना है अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की जहाँ, ताजा खबरों के अनुसार, पुलिस ने CCTV फुटेज में पाया कि छात्रों ने किस तरह से सोच-समझ कर तोड़-फोड़ और हिंसा की है। वहीं के एक तथाकथित छात्र तारिक मोहम्मद को दंगा के दौरान, उसके अनुसार, आँसू गैस के गोले लगने से उसका हाथ नाकाम हो गया। उसे वहीं के कैमिस्ट्री विभाग में ‘मानवीय आधार’ पर असिस्टेंट प्रोफेसर की नौकरी देने का प्रावधान किया है।

ऐसे ही, बिजनौर में दंगों के दौरान सुलेमान नाम का 20-वर्षीय UPSC अभ्यर्थी, पुलिस कॉन्सटेबल मोहित पर अपने देसी कट्टे से गोली चलाता है, जो कि कॉन्सटेबल मोहित के पेट में लगती है। उनके साथ सब-इंस्पेक्टर आशीष से दंगाई पिस्तौल छीन कर भाग जाते हैं। (अब लोग यह भी पूछेंगे कि पुलिस कैसी है कि लोग पिस्तौल छीन कर भाग जाते हैं!) गोली के हमले से घबराए मोहित अपनी सर्विस रिवॉल्वर से सुलेमान पर गोली चलाते हैं। सुलेमान बाद में मर जाता है। मीडिया में आधी कहानी चलती है कि पुलिस ने स्वीकारा कि सुलेमान को उनकी गोली लगी थी। फिर उसे देश का अगला IAS बताया जाने लगता है। कोई ये नहीं पूछता कि सुलेमान 20 साल में ही, कट्टा लेकर क्या IPS बनने की ट्रेनिंग कर रहा था?

क्विंट ने हेडलाइन में पुलिस को दोषी और सुलेमान को निर्दोष और UPSC अभ्यर्थी बताने की चेष्टा में कमी नहीं की

बाकी जगहों की खबरों में आप लगातार पाएँगे कि दंगाइयों को पूरा वामपंथी गिरोह लगातार ‘मासूम’ बताने में लगा हुआ है और इनके मजहबी उन्माद को लगातार नैरेटिव से गायब करने की कोशिश कर रहा है। जबकि, यह बात रोशनी और अंधेरे की तरह साफ है कि चाहे वो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी हो या जामिया मिलिया इस्लामिया, दोनों जगहों के छात्रों ने बड़ी भीड़ के सामने हिन्दू घृणा से सने नारों को ध्वनि से सहमति दी है। यहाँ PFI और ISIS के लोग निजी स्तर पर फ़ोन करके, कैराना से हथियार भिजवा कर, भीड़ में हिस्ट्री-शीटरों को घुसा कर तैयारी कर रहे हैं और आप को लगता है कि ये दंगे ऑर्गेनिक हैं?

इन जगहों के छात्रों को ‘हिन्दुओं से आजादी’ चाहिए। इन जगहों के छात्र ‘हिन्दुत्व की कब्र खुदेगी’ की बात करते हैं। यहाँ की दीवारों पर हिन्दुओं को कैलाश पर्वत पर भेजने की बातें लिखी हुई हैं। यहाँ के छात्र भीड़ को उकसा रहे हैं कि ‘अब समय आ गया है कि गलियों में उतरा जाए और एक दूसरे से पूछा जाए कि तेरा मेरा रिश्ता क्या…’। इन दंगाइयों के समर्थक ‘फक हिन्दुत्व’ का पोस्टर ले कर आते हैं और उसमें ‘ॐ’ के पवित्र प्रतीक चिह्न को नाजियों के प्रतीक की तरह दिखाते हैं।

ये सब क्या हो रहा है, क्या हिन्दुओं की समझ में नहीं आ रहा? इन पोस्टरों और नारों के जवाब में तख्ती ले कर फर्जी एक्सेंट में जीभ मरोड़ कर ‘या एक्च्वली… देअर इज़ अ लॉट ऑफ़… वी आर ऑल प्रोटेस्टिंग…’ गुनगुनाने वाले क्या बोलेंगे? इन्हें तो जब सीधा पूछा जाता है कि किस बात का विरोध कर रहे हो, तो मुस्कुराने लगते हैं, और फिर भाग जाते हैं।

नवयुवकों और नवयुवतियों से कुछ सवाल

उन नवयुवकों से मेरा सवाल यह है कि तुम लोग जो संवेदनशील हो रहे हो कि पुलिस हिंसा कर रही है, तो तुम्हारी संवेदना उस बात पर क्यों नहीं है कि दंगा करने से सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान होता है? तुमने आग लगाने वाले को क्लीन चिट कैसे दे दी? बल्कि तुम्हारी समझ में ऐसी विकृति आ गई है जहाँ तुम दंगाइयों को रोकने में असफल पुलिस पर भी सवाल उठाओगे, वो लाठीचार्ज करे तब भी सवाल उठाओगे।

लेकिन बात वही है कि पुलिस तुम्हारे 5 साल के कूढ़मगज अनुभवों के आधार पर फैसला नहीं करती। पुलिस के पास मेरी या तुम्हारी कम्फर्टेबल पोजिशन की लग्जरी नहीं है जहाँ हम कुर्सियों पर बैठ कर पुलिस को ज्ञान दे रहे हैं, पुलिस उस दस हजार की भीड़ के बीच खड़ी होती है जहाँ कोई कट्टा ले कर आया है, कोई घर से माचिस ले कर चला है, किसी की जेब में पेट्रोल की बोतलें हैं, कोई मजहबी लौंडा अपने इस महान कार्य के लिए किसी हिन्दू को अपना बाप बना कर पत्थरबाजी करने में शरीक हो रहा है।

और तुम कहते हो कि पुलिस हिंसा कर रही है। पुलिस की हिंसा कब होती है, वो ठीक से समझो। पुलिस अगर एक शांत इलाके में, जहाँ लोग अपने घरों में हैं, बच्चे स्कूलों में हैं, व्यापारी दुकानों में हैं, नवयुवक ऑफिसों में हैं, सड़क पर सामान्य ट्रैफिक है, वहाँ अचानक से ट्रकों से उतरती है, घरों में घुसती है, और मारने-पीटने लगती है, तब कहेंगे कि पुलिस हिंसा कर रही है।

अगर पुलिस, घर से पेट्रोल बम ले कर चले दंगाइयों को पहले रोकने की कोशिश करती है, लाउडस्पीकर से अपील करती है, पत्थरबाजी झेलती है, फिर उनके शांत होने का इंतजार करती है, फिर देखती है कि दंगाई बसें जला रहे हैं, कट्टों से गोलियाँ चला रहे हैं, पेट्रोल बम फेंक रहे हैं, तब पुलिस आत्मरक्षा में हर वो उपाय करेगी जो कानूनी है। कोर्ट ने पहले भी दंगाइयों का पक्ष सुनने से इनकार किया है, और कल भी दिल्ली हाईकोर्ट ने पुलिस को ऐसे फसादियों की बेल याचिका खारिज करते हुए दो सप्ताह की कस्टडी दी है।

पुलिस शुरुआत नहीं कर रही, पुलिस तो अति हो जाने पर अंत करने के लिए आ रही है क्योंकि उसे आना पड़ रहा है। इसका मतलब यह भी नहीं कि पुलिस हर बार और हर जगह सही ही होती है। लेकिन, ऐसे प्रायोजित दंगों से निपटने के लिए पुलिस के पास और कोई रास्ता नहीं होता जब भीड़ में लोग हथियार ले कर घूम रहे हों और भीड़ उन्हें अपने बीच छुपाए चलती हो। कितनी जगह की भीड़ ने आग लगाने वाले को रोका? कितनी जगह की भीड़ ने कट्टा वाले से कट्टा छीना? कितनी जगह की भीड़ ने रेलवे स्टेशन तोड़ने वाले को मना किया? अरे भीड़ तो छोड़ो, तुमने कितनी बार इन लोगों को चिह्नित करके पूछा कि ये जो हो रहा है, वो क्यों हो रहा है? जवाब है, नहीं पूछा क्योंकि तुम जान बूझ कर भोले बन रहे हो।

प्रधानमंत्री ने कपड़ों की बात की, तुमने उसमें मजहब ढूँढ लिया। प्रधानमंत्री ने कहा कि भारतीय मुस्लिमों को डिटेंशन सेंटर में डालने की बातें झूठी हैं, तुमने कहा कि असम में डिटेंशन सेंटर हैं। आज कर्नाटक में भी खुला है। तुमने ‘डिटेंशन सेंटर’ नामक शब्दों को पकड़ा, संदर्भ भूल गए कि वो बांग्लादेशी घुसपैठियों के लिए हैं। संदर्भ तुम इसलिए भूल गए क्योंकि या तो तुम्हारी बुद्धि घास चरने चली गई है, या फिर तुम यह मान बैठे हो कि व्हाट्सएप्प में मजहब विशेष के लोगों को भारत से निकाले जाने की बातें बिलकुल सही हैं।

ये जो लोग हैं, वो सवाल पूछ रहे हैं कि इस आम जनता को, जो दंगे कर रही है, उसे सरकार क्यों समझा नहीं रही। आप यह देखिए दंगे चरणों में हो रहे हैं, पहले हुआ असम में, फिर बंगाल में, फिर दिल्ली में, फिर उत्तर प्रदेश में, फिर कर्नाटक में। इस बीच न सिर्फ गृहमंत्री ने पूरी तरह से आश्वस्त किया है, बल्कि प्रधानमंत्री ने भी कहा है कि भारत के मुस्लिमों को अफवाहों में पड़ने की जरूरत नहीं है। लेकिन, जब विरोध के मूल में कोई कानून न हो, बल्कि हिन्दुओं के प्रति घृणा भरी हो, तो वो पत्थरबाज भीड़ गृहमंत्री के आश्वासन को कैसे समझेगी!

ये नागरिकता कानून का विरोध नहीं, दिमाग में जमा मजहबी मवाद है

जब आप इनकी, यानी मजहबी भीड़ की, मजहबी छात्रों की भीड़ की, और उनके वैयक्तिक मनोभावों को, उनके नारों को पढ़ेंगे और सुनेंगे तो पाएँगे कि ‘CAA-NRC तो बहाना है, इरादा गजवा-ए-हिन्द लाना है’। जी हाँ, इस मजहबी उन्माद से सनी भीड़ की हीरोइनें, आयशा और लदीदा, पुलवामा में बलिदान हुए जवानों के नामों की लिस्ट शेयर करके बताती है कि उनकी मौत से उसे कितनी खुशी है। वो लिखती हैं कि सेकुलर नारे को वो नकार चुकी है, और सिर्फ इस्लामी कट्टरपंथी नारे में ही उसका विश्वास है। उसके लिए यह जिहाद का हिस्सा है, जहाँ काफिरों की कोई जगह नहीं।

और हिन्दू क्या कर रहा है! हिन्दू पोलिटकली करेक्ट होना चाह रहा है। वो अभी भी इस इंतजार में है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की दीवारों पर ख़िलाफ़त की माँग, ‘हिन्दुओं से आज़ादी’ के नारे की बात, ‘हिंदुत्व की कब्र’ खोदने की बात का कोई फैक्ट चेक आए और कहा जाए कि डरो मत, वो तो सीरिया के आईसिस इलाके की रिफ़ायनरी की दीवारों पर लिखा हुआ है। भारत का हिन्दू यह सोच रहा है कि इतनी हिंसा, मस्जिदों से नमाज के बाद निकलती भीड़ के द्वारा की गई आगजनी के विडियो शेयर होने से बेचारे कट्टरपंथियों का नाम खराब हो रहा है, वो सुबह रुक्साना भाभी से नजरें कैसे मिला पाएगा!

ये दुर्भाग्य है कि हिन्दुओं को लगता है कि सीलमपुर में पुलिस पर पेट्रोल बम फेंकते दंगाई का हाथ उसी बम से फट जाने पर, उस विडियो को दिखाने से, हिन्दू कोई अपराध कर रहा है! आप सोचिए कि हम किस तरह से कंडिशन हो चुके हैं कि जो दंगाई है, जो बम फेंक रहा है, उसका हाथ फट गया, तो हमारी सहानुभूति उस दंगाई के साथ हो जाती है कि वो बेचारा है। कुछ कुतर्की यह भी कह देंगे कि वो तो साइंस एक्सपेरिमेंट कर रहा था और मुझे कैसे पता चला कि वो पेट्रोल बम पुलिस पर ही फेंका जाता! ये तो वही बात हो गई कि खराब ड्राइवर के साथ बैठे हुए आप उसे तब तक कुछ मत कहिए जब तक वो किसी पोल में गाड़ी न ठोक दे!

हिन्दुओं को, और हर धर्म, मजहब, रिलीजन और पंथ के नागरिकों को आँखें खोलनी होंगी और दंगाई को पहचानना होगा। उन्हें यह आँख खोल कर देखना होगा कि ‘हिन्दुओं से आजादी‘ की माँग कौन कर रहा है? हिन्दुओं के धैर्य की परीक्षा ली जा रही है वरना किसकी हिम्मत है कि वो ‘फक हिन्दुत्व’ की जगह किसी भी दूसरे मजहब का ‘इ’ भी लिख दे। अगले दिन उसका गला रेता हुआ मिलेगा। जाओ, अगर कूव्वत है तो जैसे ‘ॐ’ के प्रतीक के साथ हरामखोरी की, वैसे चाँद-तारे के साथ कर के दिखाओ।

वो नहीं हो पाएगा तुमसे, वो तुम सोच भी नहीं सकते क्योंकि कमलेश तिवारी की याद तुरंत आ जाएगी। हिन्दुओं को गरियाना, अपमानित करना, उनके देवताओं की मूर्तियाँ तोड़ना, उनके ग्रंथों पर चप्पल रख कर फोटो शेयर करना, सूअर को जनेऊ पहनाना बहुत आम बात है। वो आम इसलिए है कि न तो इस पर कोई कानून है, न ही हिन्दुओं को एक पैसा चिंता है कि उसके प्रतीक चिह्नों के साथ कौन क्या कर रहा है।

अभी इसलिए, इन दंगों के सहारे छोटे-छोटे इलाकों में, छोटे-छोटे समूहों में, छोटे-छोटे समय के लिए इस्लामी कट्टरपंथी टेस्टिंग कर रहे हैं। वो यह देखना चाहते थे कि मंदिर पर मस्जिद रख देंगे तो हिन्दू क्या कर लेगा। वो यह देखना चाहते हैं कि कारसेवकों को अगर ट्रेन में जला दिया जाए तो उनका कितना नुकसान हो सकता है। वो यह देखना चाहते हैं कि इसी देश के टैक्स का पैसा खाते हुए, ‘पाकिस्तान से नाता क्या, ला इलाहा इल्लल्लाह’ कहने पर क्या हो सकता है। वो यह देखना चाहते हैं कि बड़े-बड़े शहरों में किसी भी बात की आड़ में दंगा करने पर क्या हो सकता है।

वो अब देखना चाहते हैं कि दो बार बहुमत में आई हिन्दुओं के हितों की बात करने वाली सरकार के रहते हुए दंगे करने पर क्या हो सकता है। वो ये देख रहे हैं कि अगर इसमें छात्रों का प्रयोग किया जाए तब तो कहेंगे कि पढ़े लिखे लोग विरोध कर रहे हैं, कोई तो बात होगी। वो ये देख रहे हैं कि अब सीधे हिन्दुओं से आज़ादी की बात करने पर भी कोई उन्हें नोटिस नहीं कर रहा है। वो अब देख रहे हैं कि हिन्दुत्व की कब्र खोदने की बात पर हिन्दू चिल आउट कर रहा है। वो ये देख रहे हैं कि उम्माह और ख़लीफ़ा के शासन में ख़िलाफ़त की बात पर हिन्दू चर्चा भी नहीं कर रहा। इसलिए वो अब ‘फक हिन्दुत्व’ का पोस्टर भीड़ में किसी के हाथ में पकड़ा देता है।

तलाक, कश्मीर, राम मंदिर का उबाल है ये, ‘नागरिकता’ तो बहाना है

दशकों से ललबबुआ बनी भारत की दूसरी बहुसंख्यक आबादी अल्पसंख्यक बन कर विशेष सुविधाओं का उपभोग कर रही है। जिन राज्यों के जिन जिलों में कथित अल्पसंख्यकों की संख्या ज्यादा है, वहाँ की जनसांख्यिकी पर इनका प्रभाव देख लीजिए। कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को भगाना भी एक सफल इस्लामी प्रयोग था, जिसकी छोटी-छीटी झलक आप कैराना और मेरठ में आए दिन देखते रहते हैं। हिन्दुओं को हर त्योहार पत्थरबाजी, मूर्तियों और मंदिरों को तोड़ने की खबरों में बाढ़ क्यों आ गई है आज कल?

हौज़ काज़ी में दुर्गा मंदिर को मजहबी भीड़ तोड़ देती है और हिन्दू कीर्तन करते रह जाते हैं। आखिर ऐसी स्थिति में हम पहुँचे कैसे? आखिर इकोसिस्टम इस स्तर पर कैसे पहुँच गया कि दंगाइयों को पुलिस अगर नियंत्रण में लाना चाहती है तो पुलिस को ही हर जगह दरिंदे के रूप में देखा जा रहा है? आपने क्या किया है इन झूठों को काटने के लिए? क्या आपने इन दंगापरस्त एंकरों से, कॉलेज के तख्तीधारी छात्र-छात्राओं से कभी पूछा कि इस दंगे पर तुम चुप क्यों थे?

आपने नहीं पूछा क्योंकि आपको लगा कि दोस्ती टूट जाएगी, या आपने यह सोचा कि इससे क्या हो जाएगा, लिखने दो… इससे आप उसी गिरोह के पैदल सिपाही तैयार होने दे रहे हैं, जिन्हें तथ्यों की ईंटों से इतना पीटना चाहिए कि उसका चेहरा पहचानने लायक न रहे। क्या आपने लगातार उनसे सवाल पूछे कि नागरिकता कानून में ऐसा क्या है जिससे उसे दिक्कत है? जब वो कहे कि मजहब विशेष के ख़िलाफ़ अत्याचार हो रहा है, तो आपने उन्हें पूछा कि मोदी की कौन सी योजना ऐसी है, जहाँ उनका शौचालय तोड़ दिया गया और उसकी ईंट से हिन्दू का शौचालय बनवा दिया गया?

आप चिल्ड आउट हैं कि हमें क्या, ये तो शांत हो जाएगा। लेकिन आपको यह नहीं दिखता कि आज के दंगों की जड़ में कश्मीर है, ट्रिपल तलाक का कानून है, राममंदिर का फैसला है… आप यह नहीं समझ रहे कि ये दंगे अचानक नहीं हुए, ये दंगे कुछ वैसे ही हुए जैसे गाँव से गुजरते काँवरियों के ऊपर रात के एक बजे छतों से पथराव होता है। इसका मतलब है कि छतों पर पत्थर रखे गए थे कि कोई इधर से गया है, तो लौटेगा भी।

वैसे ही पेट्रोल बम बनाए जाते हैं। आपको लगता है कि लखनऊ के परिवर्तन चौक पर बस जलाने वाले लोग पार्क में बैठ कर चकमक पत्थर टकरा कर आग का आविष्कार कर रहे थे? या वो अपने घरों से चले होंगे तो तेल और माचिस ले कर निकले होंगे? आपको लगता है कि पीतल और लोहा गला कर भीड़ जामिया की सड़क पर सैमुअल कोल्ट बन जाती है और कट्टे का आविष्कार करती है, फिर गोली चलाती है? या फिर उसे पता था कि यहाँ दंगे होंगे और गोली चला कर किसी की जान लेंगे, और फिर उस लाश का इस्तेमाल करेंगे सरकार पर निशाना साधने के लिए?

आपके पास विकल्प दो ही हैं: डर कर रहिए या सवाल पूछना शुरू कीजिए। सवाल नहीं पूछेंगे इनसे कि ‘हिन्दुओं से आजादी’ और सेकुलर होने की बात, दोनों ही एक साथ कैसे संभव है, तो ये और बड़ी भीड़ बन कर आएँगे। अगर आप इनसे नहीं पूछेंगे कि ‘हिन्दुत्व की कब्र’ खोदने की हिम्मत तो छोड़ें, ये विचार कैसे आया इनके दिमाग में, तो ये कल आपके घरों की दीवारों पर ऐसे नारे लिखेंगे। सवाल नहीं पूछेंगे कि तुम्हें ‘हिन्दुत्व’ को फक करने का विचार क्यों आता है, तो ये कल आपकी बहू-बेटियों को छेड़ने से भी नहीं हिचकिचाएँगे।

इनके गिरोह में रवीश कुमार और अनुराग कश्यप जैसे जैसे नाम हैं जो हर बात पर हिटलर और आपातकाल की बातें करते हैं। फोटोशॉप में ये मोदी का सर हिटलर के धड़ पर जोड़ देते हैं और मोदी हिटलर बन जाता है। ये कह देते हैं कि आपातकाल आ गया है, और आवाज उठाने की आज़ादी नहीं है, और मूर्खों की एक जमात पोस्टर ले कर खड़ी हो जाती है कि तुम हमारी आवाज़ को दबा नहीं सकते। जबकि सत्य यह है कि इसी अनुराग कश्यप की पाँच फिल्मों पर रोक किस सरकार में लगी थी, वो यह भूल गया है। सत्य यह है कि फासीवादी सरकारों के राज में ऐसे पोस्टर सड़कों पर नहीं दिखते, आवाज उठाने वाले जेलों में होते हैं।

इस सरकार से ज्यादा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कब थी मुझे याद नहीं। अगर कोई ‘हिन्दुओं से आजादी’, ‘हिन्दुत्व की कब्र खुदेगी’, ‘फक हिन्दुत्व’ बोल कर और लिख कर खुले आम टहल रहा है, तो उससे ज्यादा बोलने की स्वतंत्रता और क्या होगी? ऐसे लोगों को सरकार द्वारा जेल में डालना तो छोड़िए, आम आदमी उसकी निंदा भी नहीं कर पा रहा क्योंकि ये तस्वीरें, ये आवाज़ें उस तक मीडिया पहुँचने ही नहीं देती।

इसलिए हिन्दुओं को सोचना चाहिए कि उसका अस्तित्व किन शर्तों पर रहेगा इस भारतभूमि पर। हिन्दुओं को यह देखना होगा कि जब सामने वाला खुल्लमखुल्ला तुम्हारी कब्र खोदने पर तुला हुआ है, तो तुम्हें कम से कम वैचारिक तैयारी तो करनी ही होगी। अगर हिन्दुओं ने इन बातों पर आज प्रश्न नहीं किए तो ये भीड़ तुम्हारे घरों में घुसेगी। फिर ये भीड़ क्या करेगी, उसके लिए इतिहास को पढ़ो।

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी