तबरेज अंसारी कथित तौर पर मोटरसायकिल चुराने एक घर में घुसा और पकड़े जाने पर लोगों ने उसे पोल से बाँध दिया और पीटते रहे। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उसके पास से चोरी के कुछ और सामान भी मिले। पुलिस जाँच कर रही है। जहाँ तक आ रहे विडियो का सवाल है, उसमें यह भी दिखा कि लोगों ने उससे ‘जय श्री राम’ और ‘जय हनुमान’ भी कहलवाया। इसके बाद इसे मजहबी हेट क्राइम, यानी घृणाजन्य अपराध, कह कर तमाम जगहों पर प्रचारित किया गया।
महबूबा मुफ्ती से लेकर असद ओवैसी ने बताया कि देश में समुदाय विशेष के लोगों को घेर कर मारा जा रहा है, और इसमें एक पैटर्न है। हालाँकि एनडीटीवी की रिपोर्ट के अनुसार यह इस साल की 11वीं ऐसी हेट क्राइम की घटना है। ऐसी घटनाओं की किसी भी सभ्य समाज में कोई जरूरत नहीं है, न ही इसे किसी भी तर्क से डिफेंड किया जा सकता है। साथ ही, ओवैसी का ऊपरी कहना उतना ही गलत है जितना यह कहना कि दिल्ली के फ्लायओवर टमाटरों से बने हुए हैं। चंद अपराधों के कारण समुदाय विशेष का हर आदमी असुरक्षित नहीं हो जाता।
इस पर वापस दोबारा आएँगे लेकिन पहले यह जानने की कोशिश करते हैं कि जिस इलाके में यह हुआ वहाँ चोरों के साथ लोग गैरकानूनी तरीके से क्या-क्या करते हैं। जहाँ तक मेरे इलाके की बात है, जो कि झारखंड से बहुत अलग नहीं है, चोर अगर पकड़ा जाता है तो पुलिस के आने तक उसे भीड़, उसकी धर्म/मजहब/जाति/गाँव जाने बगैर ही इतना मारती है कि वो या तो मर जाता है, या मरने की कगार पर पहुँच जाता है।
चोरों को लेकर यही प्रतिक्रिया होती है हमारे समाज में। अगर उस गाँव में कुछ समझदार लोग हों, तो वो उस चोर की जान तो बचा लेते हैं, लेकिन उसे भीड़ के द्वारा बुरी तरह पीटे जाने से नहीं रोक सकते। तबरेज के साथ सबसे पहले तो यही हुआ होगा। फिर, अगर भीड़ ने उसकी पहचान जान ली हो, कि ये समुदाय विशेष से है, तो फिर इसमें कोई दोराय नहीं कि वहाँ खड़े कुछ उचक्कों ने उससे बेवजह ‘जय श्री राम’ और ‘जय हनुमान’ भी कहलवाया हो।
आप इसे इस तरह से देखिए कि एक भीड़ है जिसने किसी चोर को मार कर अधमरा कर दिया है। वहीं कुछ लोग हैं जो विडियो बनाना चाहते हैं, या उस चोर की निरीह स्थिति पर मजे लेना चाहते हैं, तो वो उसके मजहब को निशाना बनाते हैं और उससे ‘जय श्री राम’ का नारा लगवाते हैं। ये कोई समझदारी की बात नहीं है, लेकिन ऐसा होना असंभव तो छोड़िए, मुश्किल भी नहीं है। ये गैरकानूनी है लेकिन भीड़ चोरों के साथ ऐसा करती है।
समाज में हर तरह के लोग रहते हैं, और उन्हीं में से कोई किसी मृतप्राय चोर से ‘जय श्री राम’ कहलवाता है, और दूसरा अपने मजहबी नेता होने की खानापूर्ति के चक्कर में यह बोल देता है कि देश में मजहब विशेष के लोगों को शंका के आधार पर मार दिया जा रहा है। देश में बीस करोड़ के लगभग ‘डरे हुए लोग’ हैं। ओवैसी को सारे ‘डरे हुए समुदाय’ का वकील बन कर यह बोलने में दो सेकेंड नहीं लगे कि ‘हमें अब संदेह के आधार पर मारा जा रहा है’।
अब इसमें बात यह आती है कि किसी चोर से, जो कि दूसरे मजहब का है, उससे ‘जय श्री राम’ कहलवा कर क्या हासिल हो जाएगा? इस पर दो सेकेंड सोचिए कि अगर ये दो-चार लड़कों की शरारत या मजहब से घृणा नहीं तो और क्या है। सिवाय एक विडियो पर मिनट भर के मजे के लिए ऐसा करवाया गया, और अचानक से एक चोर के पिटने की घटना, हेट क्राइम बन कर बाहर आ गई। यहाँ पर, यह जानना भी ज़रूरी है कि अभी जाँच चल रही है और यह बात हमें नहीं पता कि तबरेज को शुरु से ही मजहब के आधार पर पीटा गया, या चोरी करते पकड़े जाने पर भीड़ द्वारा पीटने के बाद, उसका नाम आदि पूछ कर उससे नारेबाजी कराई गई।
लिबरलों का क्रोध और उनका ‘लिंचिंग प्रेम’
चूँकि मरने वाला समुदाय विशेष से है, तो ज़ाहिर है कि लिबरलों में क्रोध ज़्यादा होगा। लिबरल शब्द सुन कर, उसके मायने जान कर हमें लगता है कि अच्छा शब्द है, ऐसे लोग अच्छे और खुले विचार रखते होंगे। लेकिन आज की दुनिया में इन लिबरपंथियों ने इतनी नकली बातें की हैं, और झूठे मुद्दों को साम्प्रदायिक रंग दिया है कि भले ही तबरेज की भीड़ हत्या उसके मजहब के कारण हुई हो, भले ही वो चोर न हो, रास्ते से जा रहा हो, और पीट कर मार दिया गया हो एक उन्मादी भीड़ के द्वारा अपने मजहब के कारण, लेकिन आम आदमी एक मृतक के प्रति सहानुभूति दिखाने से पहले सोच रहा है कि वो कैसे प्रतिक्रिया दे।
कारण सीधा है कि लिबरपंथियों की बातों से विश्वास उठ चुका है। इन्हें ऐसी मृत्यु पर अफसोस नहीं होता, इन्हें ऐसे अपराध पर कोई दर्द नहीं होता, इन्हें खास तरह के अपराधों, जिसमें खास तरह के नाम हों, उन्हीं संदर्भों में दर्द होता है। वस्तुतः दर्द भी नहीं होता, ये बस दिखाते हैं कि इन्हें दर्द हो रहा जबकि ये भीतर से वो गिद्ध हैं जो ऐसी मौतों का इंतजार करते हैं।
हमारे देश के लिबरल और वामपंथी, जो अचानक से संवदेनशील हो कर पूरे समाज की सामूहिक चेतना और करुणा के भाव पर ही सवाल उठा देते हैं, दरअसल बहुत बड़े धूर्त हैं जो इस इंतजार में रहते हैं कि इनके मतलब का कोई मरे, मार दिया जाए, गायब हो जाए। वरना, आप गूगल पर सर्च कीजिए कि रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद जो चुनाव हुए, उसी के बाद केरल में ही कितने विद्यार्थियों ने, जिसमें दलित और दूसरे मजहब के शामिल हैं, आत्महत्या की, और कितनों पर रोहित वेमुला वाला कवरेज हुआ।
ये लोग ही वो कारण हैं कि आज कोई समुदाय विशेष का कोई आदमी सच में जब किसी उन्मादी भीड़ की घृणा का शिकार होता है तो आम जनता यह सोचने लगती है कि ज़रूर इसमें कोई झूठ छुपा होगा। इनकी क्रेडिबिलिटी इतनी गिर चुकी है कि व्यक्ति मर जाता है और समाज उसके प्रति अपने ईमानदार भाव तक प्रकट नहीं कर पाता क्योंकि उसे डर होता है उस संवेदना के झूठे हो जाने का।
हाल ही में प्रतापगढ़ में एक दलित को खाट में लोहे के तार से बाँध कर, हाथ पाँव काट कर जला दिया गया। इसमें परिवार वाले भी परेशान हैं कि कोई ऐसा क्यों करेगा। क्या आपने यह खबर सुनी? शायद नहीं। क्योंकि इसमें दलित की हत्या तो हुई है, लेकिन पता नहीं चल रहा कि किसने की। इसलिए लिबरलों को शायद इंतजार है कि इसमें किसी सवर्ण जाति के अपराधी का नाम आए वरना अगर किसी मुस्लिम या दूसरे दलित का नाम आ जाएगा तो इनका क्रोध और नकली संवेदना तो बेकार ही हो जाएगी।
यह तो अभी हुई एक घटना मात्र है, मैं आपको पचास घटनाओं की लिस्ट देता हूँ जो सारे हेट क्राइम हैं लेकिन उसमें अपराधी समुदाय विशेष से है और ये घटनाएँ बहुत पुरानी नहीं, बल्कि 2016 के बाद की हैं। आपने इनमें से एक पर भी लिबरपंथियों का क्रोध न तो ट्विटर पर देखा होगा, न ही प्रेस क्लब में, न न्यूज़ चैनलों को स्टूडियो में, न पत्रकारिता के स्वघोषित मानदंडों के तीन एकड़ में फैली हुई फेसबुक पोस्टों पर।
लिंचिंग किसी भी की भी हो, हर तरह से गलत है
खैर, मुद्दा यह नहीं है कि लिबरल क्या करते हैं, मुद्दा यह है कि तबरेज को भीड़ ने इतना मारा कि वो हॉस्पिटल में मर गया। चाहे यहाँ उसके मजहब के कारण उसे मारा गया हो, या उसके चोर होने के कारण, किसी भी सूरत में यह हत्या उचित नहीं है। ऐसी हर घटना पर हमारी और आपकी एक समान, संवेदनशील और समझदारी वाली प्रतिक्रिया होनी चाहिए कि हमारे समाज में भीड़ को किसी भी कारण से, चाहे वो गाय चुरा कर भाग रहा हो, गोमांस खा रहा हो, चोरी कर रहा हो, राह चलते अपना काम कर रहा हो, भाजपा के झंडे लगा रहा हो, उस व्यक्ति की जान लेना तो छोड़िए, उस पर एक थप्पड़ उठाने की भी इजाज़त नहीं होनी चाहिए।
इस पर विचार रखने के लिए आपको उस व्यक्ति की जाति, धर्म या मजहब जानने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। अगर आपको तबरेज की हत्या पर समाज में दोष दिखता है, तो आपको विनय की भी हत्या पर विचलित होना पड़ेगा। अगर आपको किसी चोर की भीड़ हत्या पर संवेदनशील होने का मन करता है तो आपको जीटीबी नगर मेट्रो स्टेशन के बाहर इस्लामी भीड़ द्वारा लिंच किए गए ई-रिक्शा चालक की भी मौत का गम करना चाहिए।
अगर आप ऐसा करने में अक्षम हैं, अगर आपको गलती सिर्फ हिन्दुओं में ही दिखती है, अगर आप एक बेकार सी वेबसाइट के ‘हेट क्राइम वॉच’ के आँकड़ों को पढ़ कर विचलित हो रहे हैं, तो आप निश्चित ही वैचारिक स्तर पर दोगले व्यक्ति हैं जो अपने दोस्तों को बीच, यह कहता पाया जाता होगा कि ‘यार समुदाय विशेष में कोई मार ही नहीं रहा आज कल, मुझे हिन्दुओं को गरियाते हुए कुछ पोस्ट करने की इच्छा हो रही है’।