आजकल एक नया ट्रेंड सा चल पड़ा है। कुछ नेताओं ने अंग्रेजों के ‘फूट डालो-राज करो’ की तर्ज पर हिन्दुओं को आपस में ही बाँटने की कोशिशें शुरू कर दी है। बाँटने और राज करने की राजनीति के सिरमौर बन चुके नेताओं ने मुस्लिमों और दलितों को एक साथ रख कर हिन्दुओं को उनसे अलग रखना शुरू कर दिया है। यह ऐसा ही है जैसे हाथी की सूँड़ में अगर चोट लगती है तो कहा जाए कि ये चोट हाथी को थोड़े लगी है, उसकी सूँड़ को लगी है। ये प्रयास इसीलिए किए जा रहे हैं ताकि दलित ख़ुद को हिन्दुओं से अलग देखने लगें, जो कि असंभव है। यह ऐसा ही है, जैसे क़ुरैशियों को कहना कि तुम मुस्लिम नहीं हो। यह ऐसा ही है, जैसे पठानों और मुस्लिमों को अलग कर के देखना।
यह सब चरणबद्ध तरीके से किया जा रहा है। इसे समझने के लिए कुछ दिन पीछे कर्नाटक चुनाव से पहले वाले समय को देखने चलते हैं। उस दौरान राज्य के मुख्यमंत्री रहे सिद्धारमैया ने लिंगायत और वीरशैव समुदाय को अलग रिलिजन के रूप में का मान्यता देने की योजना बनाई। इसका सीधा अलक्ष्य था- लिंगायतों को यह एहसास दिलाना कि वे अलग रिलिजन से सम्बन्ध रखते हैं और वे हिन्दू धर्म के अंतर्गत नहीं आते। ‘अलग पहचान’ की इस राजनीति को केंद्र सरकार ने रिजेक्ट कर दिया। मामला हाईकोर्ट में गया और वहाँ मोदी सरकार ने साफ़-साफ़ कहा कि बसवन्ना के अनुयायी अलग धर्म में नहीं आते।
GN Azad, in RS: I request you to keep the New India to yourself & give us our Old India where there was love, culture. Hindus used to feel the pain when Muslims & Dalits used to get hurt. When something used to get into eyes of Hindus, Muslims & Dalits used to shed tears for them pic.twitter.com/516uWh6Cqw
— ANI (@ANI) June 24, 2019
कर्नाटक में लिंगायत समुदाय के भीतर आने वाले अधिकतर लोग अनुसूचित जाति के अंतर्गत आते हैं और अगर उन्हें हिन्दू धर्म से अलग दर्जा दे दिया जाता तो वे अनुसूचित जाति का दर्जा भी खो देते। लिंगायत समुदाय के गुरु माने जाने वाले बसावा या बसवन्ना 12वीं सदी के भक्ति काल के एक लोकप्रिय कन्नड़ कवि थे। लिंगायत समुदाय का संस्थापक उन्हें ही माना जाता रहा है। बसवन्ना भगवान शिव के परम भक्त थे। अब आप सोचिए, शिवभक्तों को हिन्दुओं से अलग दर्जा देने की कोशिश करने वाले ये नेता दलितों को अलग साबित करने के लिए क्या नहीं करेंगे? एपीजे अब्दुल कलाम ने 2003 में वाजपेयी काल के दौरान संसद में बसावा की प्रतिमा का अनावरण किया था, प्रधानमंत्री मोदी ने 2015 लंदन में टेम्स नदी के किनारे उनकी प्रतिमा का अनावरण किया।
लेकिन, भाजपा के कार्यकाल में लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा देने की कोशिश नहीं की गई। ठीक ऐसे ही, आज मंगलवार (जून 25, 2019) को राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आज़ाद ने हिन्दुओं व दलितों को अलग-अलग रखते हुए उन्हें ऐसे साबित करने की कोशिश की, जैसे हिन्दू और मुस्लिम अलग धर्म और मज़हब हैं। उन्होंने उस कथित पुराने भारत की बात की, जहाँ ‘दलितों और हिन्दुओं’ को एक-दूसरे की फ़िक्र थी। अब ‘दलितों और मुस्लिमों’ पर कथित अत्याचार की बात करते हुए ‘डर का माहौल’ पैदा करने की कोशिश चल रही है ताकि ऐसा प्रतीत हो कि अत्याचार करने वाले हिन्दू हैं और पीड़ित मुस्लिम और दलित। जबकि असल में, अगर अत्याचारी हिन्दू है तो दलित भी उसके अंदर आ गया।
I stand by my statement. Politicians should be away from religion. It was a dharma sabha, I thought it was the right time to apologise. It was a statement from my heart and conscious: Karnataka Minister DK Shivakumar on his earlier statement on Lingayat issue pic.twitter.com/sRxrAAvmr7
— ANI (@ANI) October 18, 2018
बात-बार पर संविधान की बात करने वाले ऐसे नेताओं व पत्रकारों की जमात को सबसे पहले संविधान की याद दिलानी ही ज़रूरी है। भारत में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों को दलित कहा जाता है। अगर ये नेता मानते हैं कि दलित और हिन्दू अलग-अलग हैं तो फिर मुस्लिमों में किसी जाति को एससी-एसटी का दर्जा क्यों नहीं प्राप्त है? The Constitution (SC) Order, 1950 के मुताबिक़, हिन्दू, जैन और बौद्ध- इन तीन धर्मों के लोगों को छोड़ कर किसी अन्य धर्म से सम्बन्ध रखने वाले किसी भी व्यक्ति को एससी केटेगरी के अंदर नहीं रखा जा सकता। कहने को तो अगर अर्थ लगाया जाए तो हर धर्म के दबे-कुचले लोगों को दलित कहा जा सकता है क्योंकि दलित शब्द का संविधान में कहीं वर्णन नहीं है।
अगस्त 7, 2018 को भारतीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर मीडिया को ‘दलित’ शब्द के बदले ‘अनुसूचित जाति’ का प्रयोग करने कहा था। यहाँ बात यह है कि आख़िर हिन्दुओं में फूट डालकर अगर वोट मिल भी जाते हैं तो क्या इससे देश और समाज नहीं बँट जाएगा? जो नेता इस तरह के कार्य करते हैं, उन्हें अंग्रेजों से अलग कैसे माना जाए? उदाहरण देखिए। कई मीडिया संस्थानों ने सर्वे के आधार पर यह बताया कि कैसे भारत में मुस्लिमों व दलितों पर अत्याचार हो रहा है, उनसे भेदभाव किया जा रहा है। इसी तरह बीबीसी अपने लेख में कहता है कि नरेंद्र मोदी के भारत में मुस्लिम और दलित अपनी जान के लिए चिंतित हैं। अंतरराष्ट्रीय संस्था ह्यूमन राइट्स वाच ने लिखा कि हिन्दू लोग मुस्लिमों व दलितों पर अत्याचार करते हैं।
यह सब किसलिए? जो दलित हिन्दू समाज का ही अंग है, उस अनुसूचित जाति को उसके ही धर्म से अलग पहचान बनाने की कोशिश कर पूरे हिन्दू समुदाय को अलग-थलग करने की कोशिश चल रही है, जिसमें ईसाई मिशनरी, लोभी नेता और हिंदुत्व-विरोधी ताक़तों के साथ-साथ भारत विरोधी ताक़तें भी शामिल हैं। इन्हें आइना दिखाने के लिए दो ऐसी घटनाओं का ज़िक्र करना ज़रूरी है, जहाँ इनके मुँह बंद हो जाते हैं। मई 2018 में तमिलनाडु के थेनी जिले में एक दलित बस्ती में किसी वृद्ध दलित महिला की मौत हो गई। जब वे उस महिला का अंतिम क्रिया कर्म करने के लिए जा रहे थे, तभी मुस्लिमों से उनकी झड़प हुई।
Atrocities against Dalits by Muslims in India keep going. Indian Left worldwide pushes propaganda blaming Modi for it—”violence against Muslims and Dalits increasing in Modi’s India” while burying all news of violence *by* Muslims against Dalits using fake #BrahminicalPatriarchy.
— Sankrant Sanu सानु (@sankrant) June 17, 2019
दरअसल, मृत दलित महिला की शवयात्रा मुस्लिम बस्ती से गुज़र रही थी, जिसपर मुस्लिमों ने आपत्ति जताई। बाद में दोनों के बीच लाठी-डंडे से लड़ाई हुई और 30 से अधिक लोग घायल हो गए। इसे क्या कहा जाएगा? इसे हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच लड़ाई कहा जाएगा या फिर दलितों और समुदाय विशेष के बीच, ऐसा हिन्दुओं और दलितों को अलग-अलग देखने वाले विद्वानों को जवाब देना चाहिए? यह निर्भर करता है। अगर दलितों ने नुक़सान पहुँचाया तो इसे हिन्दुओं द्वारा मुस्लिमों पर अत्याचार बना कर पेश किया जा सकता है। अर्थात यह, कि यही दलित तब तो हिन्दू हो जाते हैं (जो कि सही है) जब पीड़ित कोई मुस्लिम हो और यही दलित हिन्दू तब नहीं होते जब मुस्लिमों के साथ उन्हें एक कर के बात की जाती है।
अब दूसरी घटना पर आते हैं। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को 1981 में ‘अल्पसंख्यक संस्थान’ का दर्जा दिया गया, जिसे 2005 मे इलाहबाद हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया। यूपीए सरकार इस निर्णय के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट गई लेकिन राजग सरकार ने सत्ता में आने के बाद इस अपील को वापस ले लिया। अभी हाल ही में ख़बर आई कि एससी-एसटी कमीशन ने एएमयू से पूछा है कि संस्थान अनुसूचित जाति एवं जनजाति को एडमिशन के दौरान नियमानुसार आरक्षण क्यों नहीं दिया जाता? इस विवाद पर मुस्लिमों व दलितों पर कथित अत्याचार की बात करने वाले किसका पक्ष लेंगे? एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा जब भंग कर दिया गया है तो फिर वहाँ एससी-एसटी को आरक्षण क्यों नहीं दिया जा रहा?
यकीन मानिए, अगर किसी अन्य विश्वविद्यालय में ऐसा होता तो इसे मोदी सरकार द्वारा दलितों पर अत्याचार के रूप में पेश किया जाता। यूनिवर्सिटी के कुलपति की जाति देखी जाती कि कहीं वह कथित उच्च जाति का तो नहीं है। इसीलिए, यह निर्भर करता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि पीड़ित कौन है और अपराधी किसे दिखाना है? अक्सर ख़बरों में अगर दलित परिवारों में लड़ाई हुई हो फिर भी इसे दलितों पर अत्याचार के रूप में ही पेश किया जाता है। दलित को जब पीड़ित दिखाना हो तब उसे दलित कहा जाएगा और जब उसे अपराधी दिखाना हो तो उसे हिन्दू बताया जाएगा। ध्यान दीजिए, आज ये दलितों को हिन्दू धर्म से अलग करने की कोशिश कर रहे हैं, कल इनकी ज़हर बुझी तलवार ओबीसी जातियों तक पहुँचेगी और ‘मुस्लिमों और ओबीसी’ पर अत्याचार का रोना रोया जाएगा।