2 अक्टूबर को फ़्रांसीसी राष्ट्रपति इमेनुअल मैक्राँ ने अपने देश में धर्मनिरपेक्षता के विषय पर संभाषण करते हुए कई ऐसी बातें कही जो अपवादस्वरूप ही किसी भी छुटभैया नेता के मुँह से भी निकलता है, राष्ट्राध्यक्षों को तो रहने ही दीजिए। इस्लामवादियों द्वारा पूरे विश्व में उत्पन्न संकट को चिह्नित करते हुए मैक्राँ ने खुल कर बोला कि इस्लाम एक ऐसा मजहब है जो पूरे विश्व में संकट में है।
यहाँ संकट का मतलब इस्लाम के संकट में होने से नहीं, विश्व भर में इस्लाम के कारण उत्पन्न होने वाले संकटों से है। यह संकट दिखता सबको है, लेकिन कभी ‘रेडिकल इस्लाम’ तो कभी ‘आतंक का कोई मजहब नहीं होता’ के नाम पर छुपा दिया जाता है। वैश्विक आतंक की बात करें, या फिर मजहबी उन्माद से प्रेरित रक्तरंजित घटनाओं की, लगभग हर बार ये घटनाएँ इस्लाम के नारों, प्रतीकों, नामों या विचारों का परिणाम होती हैं। स्वयं पर बम लगा कर फटने से ले कर, लंदन के पुल पर चाकुओं से गोदने की घटना हो, या फिर ऑस्ट्रेलिया के कैफे में लोन वूल्फ अटैक से ले कर पेरिस में किसी की गर्दन रेतने की घटना, ‘अल्लाहु अकबर’ के नारे और ‘हम आहत थे’ जैसी बातें हर जगह आपको मिल जाएँगी।
आगे बढ़ने से पहले स्पेनिश भाषा एक रोचक कहानी बताता हूँ। हुआ यूँ कि हर घंटे नए कपड़े बदलने वाले एक राजा को किसी व्यक्ति ने कहा कि वो उसे ऐसे कपड़े पहने जिसका रंग, डिजाइन, सोने के धागों का काम, स्पर्श आदि विलक्षण और अलौकिक होंगे। साथ ही, वह कपड़ा सिर्फ बुद्धिमान व्यक्तियों को दिखेगा, मूर्खों को नहीं। राजा प्रसन्न हुआ, और बोला कि इस व्यक्ति को हर तरह के कपड़े, सोना, धन आदि दिए जाएँ ताकि वो कपड़ा बुनना शुरु करे।
कई दिन बीतने पर वो व्यक्ति एक बड़ा ही सुंदर डब्बा ले कर राजा के दरबार में आया। डब्बा खोल कर उसने राजा को कपड़े दिखाए। राजा को कुछ दिखे ही नहीं, तो वो अचम्भित सा उसे प्रश्नवाचक मुद्रा में देखने लगा। इस व्यक्ति ने अब राजा को कपड़े की विशिष्टता याद दिलाई कि मूर्खों को दिखता ही नहीं। अचानक से राजा कपड़ा दिखने लगा। कपड़े वाले ने राजा से कहा, “महाराज, ऐसे विलक्षण वस्त्र को तो दरबार में ही धारण करना चाहिए।”
राजा भी सोचने लगा कि आज ही दरबार में पहचान हो जाएगी कि कौन मूर्ख है, कौन बुद्धिमान। व्यक्ति ने कहा कि राजा एक-एक कपड़े उतारे और नए वाले पहने। वो उसे ‘यह अंगवस्त्र है महाराज, धारण कीजिए’ कह कर कपड़े देने लगा। कुछ समय में राजा ने नए कपड़े पहन लिए। दरबारियों ने कहा, “अहा! महाराज, ऐसे अलौकिक वस्त्र तो देखे ही नहीं। यह तो स्वर्ग से देवताओं के बुने हुए प्रतीत होते हैं।”
फिर यह तय हुआ कि राजा हाथी पर बैठेगा और कपड़े पूरी प्रजा को दिखाएगा। राजा हाथी पर बैठा और मुनादी करवा दी गई कि जो मूर्ख हैं उन्हें वो कपड़े नहीं दिखेंगे। अब अचानक से पूरी प्रजा ने कपड़ों पर किया हुआ सोने के धागों का काम, रेशम पर बने नयनाभिराम पैटर्न आदि देखने के बारे में एक दूसरे को बताया। बगल वाला भी कहे कि ‘हाँ, तुम्हें पीठ पर बना बाघ दिख रहा है, क्या काम किया है बुनकर ने!’ हर व्यक्ति को नई चीज दिख रही थी कपड़ों पर, राजा भी खुश कि कपड़ा पहन लिया है कि इक्कीसवीं सदी का होलोग्राम जो हर कोण से भिन्न दिखता है!
इसी भीड़ में एक व्यक्ति अपने छोटे बच्चे को ले कर आया था। बच्चे को कुछ दिख ही नहीं रहा था। पिता ने उसे कंधे पर बिठाया ताकि वो भी ऐसे दिव्य वस्त्रों को देख सके। बच्चा कंधे पर बैठते ही बोला, “राजा तो नंगा है।” बाप ने सोचा कि मूर्खों को नहीं दिखता, लगता है उसका बेटा ‘सक्सेस’ नहीं निकला। बेटे ने फिर चिल्ला कर बोला, “अरे देखो! राजा तो नंगा है।” बाकी लोगों ने भी सुना। बच्चा और जोर से बोला और हँसने लगा कि राजा नंगा हो कर हाथी पर घूम रहा है।
तब सबको याद आया कि वस्तुतः राजा तो नंगा ही है। अचानक से राजा सबको मूल रूप में दिखने लगा। एक बच्चे पर सामाजिक दवाब या कंडिशनिंग का प्रभाव नहीं था तो उसने सत्य को देखा, बाकी लोग यह सोच कर नंगे राजा की पीठ पर बाघ देख रहे थे कि शायद उन्हें ही कपड़े नहीं दिख रहे, और भीड़ में स्वयं को मूर्ख मानना किसी को स्वीकार्य न था।
उसी तरह इस्लामी आतंक और उन्माद से होने वाले हर कृत्य के बाद भी किसी चालाक व्यक्ति ने दिव्य कपड़े पहनाने की योजना बनाई, और कहा कि सच्चा इस्लाम तो उसी को दिखेगा जो सेकुलर है। अब, आज के दौर में कौन सेकुलर कहलाना नहीं चाहेगा। सबको सेकुलर बनना है, सबके देश में इस्लामी आतंक ने अपनी छाप छोड़ी है, मजहब अपने कट्टर स्वरूप में गर्दनें कटवा रहा है, और हम कह रहे हैं, “अरे, तुम्हें पीठ पर बना बाघ दिख रहा है, क्या काम किया है बुनकर ने!”
लेकिन तथ्य और अकाट्य सत्य यह है कि राजा तो नंगा है, और उसे नंगा कहने की क्षमता उसी में है जो इन सामाजिक, राजनैतिक जुमलेबाजी और पॉलिटिकली करेक्ट होने के भार से अनभिज्ञ हो। जिसे स्वयं को, भले ही गलतबयानी में, बिगट, कम्यूनल, इस्लामोफोब कहे जाने पर कोई चिंता न होती हो। इमैनुअल मैक्राँ ने वह कहा जो सत्य है। वह सत्य उसे सबसे ज्यादा चुभेगा जिसने सुंदर से डब्बे में हवा रख कर दुनिया को कहा कि ये दिव्य वस्त्र हैं।
राजा वाली कहानी में वह व्यक्ति धूर्त और ठग है। यहाँ भी, ऐसे लोग जो ऐसी इस्लामी आतंक या मजहबी उन्माद से प्रेरित घटनाओं को ‘यह सच्चा इस्लाम नहीं है’ या ‘एक घटना के लिए आप पूरे समुदाय को जिम्मेदार नहीं कह सकते’ की ठगी के नीचे छुपाना चाहता है। यह बात भी सत्य है कि उस खास मजहब का हर आदमी आतंकवादी नहीं है, लेकिन दूसरा सत्य यह है कि मजहबी कारणों से, अनजान लोगों (जिसे आप पहले से नहीं जानते हों, जिन्होंने आपका निजी अहित नहीं किया है), समाजों और राष्ट्रों पर हमला करने वाले लोग हमेशा एक ही मजहब के होते हैं।
ऐसा मजहबी उन्माद और किसी धर्म-रिलीजन में नहीं दिखता
सामाजिक अपराध हर जगह होते हैं। आप किसी से लड़ाई कर लेते हैं, रास्ते में मार-पीट हो गई, किसी ने आपके मंदिर तोड़ दिए, कोई गाय काट देता है, ऐसी हर घटना पर आप उन्हीं व्यक्तियों को जवाब देते हैं न कि आप उसके मजहब के मानने वाली भीड़ में जा कर एक बम फोड़ आते हैं। ट्विन टावर उड़ाने का काम हो, मैनचेस्टर के स्टेडियम में बम फोड़ने का काम हो या फिर बार्सिलोना के धमाके, सीरिया को ख़िलाफ़त के नीचे लाना हो या पूरे अफ़ग़ानिस्तान को तबाह करना, किसी वैयक्तिक घटना की प्रतिक्रिया, दूसरे धर्म के लोगों या राष्ट्र को ही निशाना बनाने के उद्देश्य से की गई।
ऐसा उन्माद आपको किसी भी और मजहब के मानने वालों में नहीं दिखता। इसमें फिर वही बात आती है कि ‘लेकिन उस मजहब का हर आदमी आतंकी नहीं है’। ये बात सही है लेकिन कितने लोग, जो सैफ्रन टेरर और साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित के गीत गाते हैं, वो इन आतंकी धमाकों पर ‘इस्लामी टेरर’ लिखते हैं, उसकी विवेचना करते हैं कि ये मदरसों में कट्टरपंथी शिक्षा देने का परिणाम है, ये उस प्रचलन का परिणाम है जहाँ तीन साल के बच्चे के हाथ में छुरा दे कर बकरे को हलाल करना सिखाया जाता है।
नहीं, उस वक्त ये लोग मक्का की तस्वीर लगा कर ‘माशाअल्लाह’ और ‘सुभानअल्लाह’ करते हैं, या फिर विश्व शांति पर उपदेश देने लगते हैं कि ‘एक-दो घटनाओं को कारण पूरे इस्लाम को आप निशाना न बनाएँ’, या सीधे कहते हैं कि ‘कुरान में कहा गया है कि एक व्यक्ति की हत्या पूरी मानवता की हत्या है’, या वो फैज की शायरी और गुलाम अली की गजलों के लिंक शेयर करने लगते हैं। यही चार से पाँच तरह की प्रतिक्रिया आपको उन्हीं कट्टरपंथियों से मिलेगी जो आज भी ‘हिन्दू आतंक’ की बात और गोधरा की याद दिलाते हैं। ये बात और है कि साबरमती एक्सप्रेस के आग लगा कर 59 हिन्दुओं को जिंदा जलाने की बात वो भूल जाते हैं।
माशाअल्ला और सुभानअल्ला सब ठीक है, लेकिन ये तो बताओ कि कार्टून दिखाया बच्ची को, तो तुम क्यों आहत हो गए? कार्टून बना कर शार्ली एब्दो वालों ने क्या तुम्हारे मेल बॉक्स में डिलीवर किया था, या ये कहा था कि ‘भैया, ये पढ़ो, ये कार्टून सही बनाया है कि नहीं’। बनाया भी तो असहमति दर्ज करो कि नहीं बनाना चाहिए। या फिर तुम उन्हें गोली मार दोगे? तब कुरान की वो आयत याद नहीं आती कि एक व्यक्ति की हत्या पूरी मानवता की हत्या है?
ये प्रवृत्ति सिर्फ इस्लाम में ही है कि तथाकथित निंदा/अपमान आदि पर कोई भी आहत हो कर, किसी का भी सर काट सकता है। इस्लामी मुल्कों में तो यह प्रावधान है कि कानून ही ऐसा करने पर आपको फाँसी दे देगा। इसमें पाकिस्तान सबसे आगे है जहाँ आपको बस कहना है कि इस व्यक्ति ने पैगम्बर के बारे में गलत बात बोली है। केस चलेगा और आपको फाँसी होगी।
लेकिन हर मुल्क तो इस्लामी है नहीं। आपको उन्हीं नियमों से चलना है तो आप वैसे ही देशों में बसने की कोशिश कीजिए क्योंकि सहने की सीमा होती है। आपकी सीमा आधे सेकेंड की है कि कहीं पेरिस में सैमुअल पैटी ने कार्टून दिखाया, आप आहत हुए, प्लान बनाया और राह चलते गर्दन रेत दिया। अब जाओ न, फ्रांस पर हमला बोल दो क्योंकि वही कार्टून वहाँ की सरकारी बिल्डिंग पर प्रोजेक्ट किया गया।
लो जा कर सरकार से बदला। चीन से बदला लो जा कर क्योंकि कुरान का अपमान तो पैगम्बर के बाद दूसरे नंबर पर आता है। वो तो कुरान पढ़ने भी नहीं दे रहे, नया कुरान लिखवा रहे हैं सो अलग। क्यों किसी कट्टरपंथी का जमीर नहीं जग रहा चीन को ले कर? वहाँ कोई बम धमाका, लोन वूल्फ अटैक, पुलिया पर चाकूबाजी, गला रेतने आदि की घटना नहीं कर पाते? क्या हो गया उम्माह वालों को? क्या चीन से ज्यादा किसी भी राष्ट्र ने इस्लाम का अपमान किया है? वहाँ तो तुम्हारी रियासत-ए-मदीना के सदर घुटनों पर बैठे हुए हैं, और शी जिनपिंग अपनी आँख मूँद कर उसे धीरे और तेज होने का आदेश दे रहा है।
क्या तुर्की के एर्दोआँ की सारी हिम्मत हाया सोफिया चर्च को ही मस्जिद बनाने में निकल गई? चीन पर चढ़ाई क्यों नहीं कर रहे? कहाँ गई वो फौजें? पाकिस्तान से लोगों को इकट्ठा करो, जिहाद के नाम पर हथियार दो और कहो कि शिनजियांग पहुँचे अपने उइगर हममजहब लोगों की सहायता के लिए। जिहाद के लिए उतरोगे, तभी तो अल्लाह भी दुश्मनों पर अपना अजाब नाजिल करेगा! या फिर सारा जिहाद उन्हीं मुल्कों के लिए है जहाँ वो तुम्हें रहने की जगह देते हैं, और तुम वहाँ लव जिहाद, रेप जिहाद, लैंड जिहाद कर के अपनी बहादुरी दिखा रहे हो? चीन क्यों नहीं जा रहे जिहाद के लिए? पेपर नहीं पढ़ते क्या?
कट्टरपंथी इस्लाम और सिर्फ इस्लाम के क्या अंतर है?
इसी साल फरवरी में डोनल्ड ट्रम्प ने भारत दौरे पर ‘रेडिकल इस्लामिक टेररिज्म’ की बात अहमदाबाद में कही। यह बात भले ही ‘राजा तो नंगा है’ के स्तर की नहीं थी, लेकिन अमेरिका के ओबामा टाइम के पॉलिटिकली करेक्ट शब्दावली से कहीं आगे, इसे ‘राजा कमर के ऊपर नंगा है’ कहने जैसा तो था ही। वस्तुतः ‘रेडिकल इस्लामिक टेररिज्म’ या कट्टरपंथी इस्लामी आतंक जैसी बातें बस मन बहलाने वाली बातें हैं क्योंकि आज के समय में अंधे को अंधा कहना अपमानजनक और भेदभावपूर्ण माना जाता है।
इस्लाम से प्रेरित आतंक इस्लामी आतंक होता है क्योंकि ‘अल्लाहु अकबर’ का नारा इस्लाम का है, रेडिकल इस्लाम का नहीं। आप इन सारे आतंकियों की जीवनचर्या देखिए कि ये इस्लाम को जितनी शिद्दत से निभाते हैं, उतनी शिद्दत से कोई नहीं निभाता। कमलेश तिवारी के कातिलों ने नमाज पढ़ी थी तब गला रेता था। बम लगा कर चीथड़े उड़ाने वाला आतंकी मरने से पहले किस खुदा को याद करता है? उसका नारा कौन सा है? फिर इसमें रेडिकल क्या है, ये तो नॉर्मल है।
इस्लामी आतंक के पहले रेडिकल या कट्टरपंथी जैसे शब्द तभी शोभा देते जब इन घटनाओं में आतंकियों को मजहब का प्रतिशत दस या बीस होता। जब पंथ अपने मूल स्वरूप में ही काफिरों को घात लगा कर मारने के निर्देश देता हो, तो उसमें कट्टरपंथ लगाना तो वैसी ही मूर्खता है जैसे ‘लाल’ शब्द के पहले ‘सुर्ख’ लगा कर ‘सुर्ख लाल’ कहना। सुर्ख का मतलब ही लाल होता है।
मैं जानना चाहूँगा कि पवित्र पुस्तक की उन आयतों को आप किस शब्द से नवाजेंगे जहाँ काफिरों को सबसे हेय बताया गया है, उन्हें मारने पर किसी भी तरह के अपराधबोध न पालने की बातें कही गई हैं और स्वर्ग में कमरों के रिजर्व होने के संदर्भ हैं। क्या ये बातें उस किताब के बाहर की हैं जो मदरसों में पढ़ाई जाती हैं! अगर मदरसों के मौलवी काफिरों की बच्चियों के बलात्कार, काफिरों की हत्या, काफिरों से घृणा करना किसी और किताब से, या अपने ही सिलेबस से पढ़ाते हों तब तो मैं मानने को तैयार हूँ कि हाँ, ये कट्टरता है।
लेकिन, जब ये बातें उसी किताब का हिस्सा हैं तो फिर कट्टरपंथी इस्लाम और नॉर्मल इस्लाम में क्या अंतर है? क्या किसी का कार्टून बनाने पर हत्या कर देने की बात सोचने वाला, करने वाला, उसे समर्थन देने वाला, उस पर चुप रहने वाला, स्वतः कट्टरपंथी नहीं है? क्या आपको इन चार तरह के लोगों से अलग तरह का कोई मिला है मजहबी भीड़ में? वो आलोचना भी करेगा तो यह कह कर कि ये सच्चा मजहबी है।
लेकिन, जब आप इन किताबों को पढ़ेंगे, इनके लाउडस्पीकरों से आती मजहबी बातें सुनेंगे तो लगेगा कि जिसने गर्दन उतार दी वही इस्लाम का सच्चा विद्यार्थी और अनुपालक है। उसी ने असली इस्लाम को पढ़ा, सोचा, समझा और जिया है। उसे कोई भी सच्चा मजहबी यह कह ही नहीं सकता कि ये सच्चा मजहबी नहीं है। इसलिए ऐसी वारदातों की आलोचना में भी ‘इफ’ और ‘बट’ के साथ ‘शर्तें लागू’ वाली बातें दिखेंगी।
शेक्सपीयर ने एक अलग संदर्भ में कहा है न कि ‘नाम में क्या रखा है, वो जिसे तुम गुलाब कहते है, उसे किसी और नाम से भी पुकारो, उसका सुगंध वैसा ही रहेगा’। उसी तरह तुम ‘शांतिप्रिय’ कहते रहो लेकिन मूल स्वरूप में जो ‘शांति’ प्रदर्शित होती है, वो पूरी दुनिया को दिखती है। यही बात इमैनुअल मैक्राँ ने स्पष्ट शब्दों में कही कि इस्लाम जहाँ भी है, संकट में है।
फ्रांस के राष्ट्रपति ने कहा कि राजा नंगा है
मैक्राँ की बात पर कई ‘एक्सपर्ट’ और ‘सेकुलर जीव’ दुखी हो गए कि यह तो माइनॉरिटी को सीधे तौर पर अलग-थलग करने की विभाजनकारी बातें हैं। जबकि, मैक्राँ ने वही कहा जो हर जगह दिख रहा है। इस्लाम ने विश्व में हर जगह संकट उत्पन्न किए हैं, सिवाय चीन के। पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दुओं की हालत देखिए, अफगानिस्तान में सिखों की, तुर्की में ईसाइयों की, पूरी दुनिया में यहूदियों की… भारत में अल्पसंख्यक वाला विक्टिम कार्ड स्वाइप करने के बाद कैराना, मेरठ, मेवात और दिल्ली तक में लोगों को ‘यह मकान बिकाऊ है’ लिखने पर मजबूर करने वाला मजहब कौन सा है?
यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया से ले कर न्यूजीलैंड, भारत, बांग्लादेश तक किसके आतंक की छाप है? बेल्जियम से लेकर फ़्रांस तक, मैड्रिड, बार्सीलोना, मैन्चेस्टर, लंदन, ग्लासगो, मिलान, स्टॉकहोम, फ़्रैंकफ़र्ट एयरपोर्ट, दिजों, कोपेनहेगन, बर्लिन, मरसाई, हनोवर, सेंट पीटर्सबर्ग, हैमबर्ग, तुर्कु, कारकासोन, लीज, एम्सटर्डम, अतातुर्क एयरपोर्ट, ब्रुसेल्स, नीस, पेरिस में या तो बम धमाके हुए या लोन वूल्फ अटैक्स के ज़रिए ट्रकों और कारों से लोगों को रौंद दिया गया। हर बार आईसिस या कोई इस्लामी संगठन इसकी ज़िम्मेदारी लेता रहा और यूरोप का हर राष्ट्र अपनी निंदा में ‘इस्लामोफोबिक’ कहलाने से बचने को लिए इसे सिर्फ आतंकी वारदात कहता रहा।
भारत में 1970 के बाद से 2015 तक कुल 9,982 आतंकी घटनाओं में 18,842 मौतें हुईं, 28,814 लोग घायल हुए। अगर 1984 से 2016 तक के आँकड़ें लें तो क़रीब 80 आतंकी हमलों में 1985 मौतें हुईं, और लगभग 6000 से ज़्यादा घायल हुए। अगर और क़रीब के दिनों को लें, तो 2005 से अब तक हुए आतंकी हमलों में 707 मौतें हुईं, और 3200 के क़रीब घायल हुए हैं।
यूरोप में, तुर्की और रूस को छोड़कर, आतंकी हमलों में 2004 से अब तक 615 मौतें हुईं और 4000 के लगभग लोग घायल हुए। अमेरिका में 2000 से अबतक क़रीब 3188 मौतें हुईं जिसमें से 2996 लोग सिर्फ 9/11 वाले हमले में मारे गए। यानि, बाक़ी के हमलों में 192 लोग मरे।
क्या ये वैश्विक आतंक पर इस्लाम की छाप नहीं है? कश्मीर में हिन्दुओं का प्रतिशत सौ से एक पर कैसे पहुँचा? तो फिर मैक्राँ ने क्या गलत कह दिया? मैक्राँ ने इस पर अपनी बात रखते हुए बहुत ही आधारभूत समस्याओं पर ध्यान दिलाया कि इस्लाम को मानने वाले इस्लाम के कानून को राष्ट्र के कानून से भी ऊपर मानते हैं, जो कि निजी स्तर पर सही हो सकता है, लेकिन उन्हें राष्ट्र के कानूनों का पालन करना ही होगा।
उन्होंने इसी पर आगे बात रखते हुए कहा कि इस्लामी अलगाववाद किसी भी समाज में एक समानांतर तंत्र विकसित करने की कोशिश करता रहता है। शुरुआत में यह अलग मूल्यों और व्यवस्था वाला समाज बनता हुआ दिखता है, लेकिन इसका अंतिम लक्ष्य हर व्यवस्था को अपने नियंत्रण में लेना होता है। उन्होंने कहा कि इस्लाम को मानने वाले लगातार राष्ट्र के मूल्यों से विलग हो कर एक काउंटर सोसायटी (विरोधी समाज) बनाना चाहते हैं। इसी सोची-समझी राजनैतिक-मजहबी अलगाववाद की परिणति बच्चों को सामान्य स्कूलों से निकाल कर उनमें मजहबी कट्टरता भरने के रूप में होती है जो कि स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों और मानव मात्र की गरिमा के विरोध में दिखती है।
इस बात पर जो लोग विरोध जता रहे हैं वो वास्तव में ऐसा सोचते हैं कि स्त्री और पुरुष बराबर नहीं होते, मजहबी और गैरमजहबी मनुष्य बराबर नहीं होते। क्योंकि मैक्राँ के भाषण में उस सच्चाई को स्वीकारा गया है जो विश्व के हर कोने में बम, चाकू, गाड़ी या गोली के रूप में ‘अल्लाहु अकबर’ के नारे के साथ काफिरों की वैयक्तिक या सामूहिक हत्याओं में परिणत होती है। क्या यह सोच घरों में या गैरसरकारी संस्थानों में दी जा रही शिक्षा का सीधा परिणाम नहीं?
मदरसों में पढ़ाया जाने वाला इस्लाम
मदरसों में किस तरह की शिक्षा दी जा रही है, उसका ऑडिट होना चाहिए। वहाँ के बच्चे-बच्चियों से पूछा जाना चाहिए कि काफिरों के बारे में उनकी क्या राय है, मौलवी उन्हें हिन्दू लड़कियों के साथ क्या करने की बातें सिखाता है, क्या वह उनके साथ अश्लीलता भी करता है आदि। ये बातें जानना आवश्यक है क्योंकि अगर, फ्रांस की तर्ज पर, हर राष्ट्र ने हर बच्चे को सरकारी स्कूल (या ग़ैरसरकारी जहाँ मजहबी कट्टरता सिलेबस का हिस्सा न हो) में ही शिक्षित करना शुरु नहीं किया, तो 2060 तक विश्व की सबसे बड़ी मजहबी आबादी बन चुका इस्लाम किस रूप में अपना प्रभाव दिखाएगा वो कल्पनातीत है।
हाल ही में, असम सरकार ने कहा कि मदरसों में सरकारी पैसे नहीं दिए जाएँगे। उनका सीधा कहना था कि सरकार का काम मजहबी शिक्षा देने को बढ़ावा देना नहीं है। उसके उलट, राजस्थान में मदरसों के निर्माण, पुनरुत्थान आदि को ले कर करोड़ों रुपए जारी करने की बात की गई है। एक सेकुलर देश में सत्ता को किसी भी तरह के मजहबी कार्य का हिस्सा नहीं बनना चाहिए। सांस्कृतिक कार्य अलग है, क्योंकि संस्कृति राष्ट्र की धरोहर होती है, मजहबी कार्य अलग है।
मदरसों की फंडिंग बंद होनी चाहिए क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को बेहतर नागरिक बनाना होता है जो संविधान का सम्मान करे न कि वो यह सोचे कि शिया काफिर है, अहमदिया काफिर है, हिन्दू काफिर है, ईसाई काफिर है, यहूदी काफिर है, जैन काफिर है, सिक्ख काफिर है, बौद्ध काफिर है और काफिर तो किताब के अनुसार हत्या के योग्य है। जब आप बचपन से हर चलती-फिरती वस्तु को नुक़सान पहुँचा सकने वाला मानते हो, हर बिना टोपी-पैजामा वाला आपको काटने योग्य दिखता है, तब तो मौका मिलते ही तुम उसे मार ही डालोगे।
ऐसे लोग विलक्षण प्रतिभा वाले होते हैं, जो जीवन और मृत्यु की कल्पना से परे, देश के कानून से ऊपर उठे हुए, किसी की भी हत्या करने के बाद डरते नहीं कि उनका क्या होगा, उनके परिवार का क्या होगा, समाज में उनके परिवार को लोग क्या कहेंगे…
क्या यह इस्लामोफोबिया है?
जब आप इस तरह की सीधी और स्पष्ट बातें करेंगे तो लोग तुरंत आपको इस्लामोफोब कह देंगे। जबकि, इस्लाम को उसके मूल रूप में जानना और समझना, उससे घृणा करना कैसे हो गया! इस्लामोफोब वाली बात नंगे राजा के कपड़ों वाली बात है कि इस्लामी आतंक को जो ‘कट्टरपंथी हमला’ नहीं कहेगा वो तो इस्लामोफोब है। अब, ऐसे में कौन आदमी स्वयं को खुल्लमखुल्ला इस्लाम से घृणा करने वाला कहेगा? उसने न तो किताब पढ़ी है, न ही आतंकियों की दिनचर्या को जानता है कि वो किस मजहब को, कैसे निभा रहा है, फिर उसे भी लगेगा कि ‘सही बात है, वो तो कट्टरपंथी हैं’।
जबकि वही एकदम सही पंथ पकड़ कर आगे बढ़ रहा है, अगर वह पंथ कट्टरपंथ होता तो एक स्वर में सारे कट्टरपंथी इकट्ठा होते और हर घटना के बाद सामूहिक प्रतिक्रिया देते। लाउडस्पीकरों से मौलवी समझाता कि किसी की हत्या, किसी के बारे में दुर्भावना रखना, किसी दूसरे धर्म के लोगों को प्रति घृणा से जनित अपराध जहन्नुम ले जाता है। समाज को सुधारने की बात होती कि कट्टरपंथी मत बनो। आपने कितने मौलवियों को ऐसा बोलते सुना है? कितने ट्विटर हैंडल इसकी मुखर हो कर, बिना ‘इस्लाम का मतलब शांति है’ का प्रयोग किए बगैर सीधे शब्दों में कहते हैं कि गर्दन काटने वाला उस मजहब का था और मजहब के लोगों को ऐसा नहीं करना चाहिए।
ऐसे लोगों की संख्या शून्य है। आप इस पर बात करते हैं, तो इस्लामोफोब का टैग आप पर वही लगाते हैं जो सच्चे मजहबी नहीं हैं, जिन्हें अपनी पाक पुस्तक का बिलकुल भी ज्ञान नहीं है। अगर आप कहते हैं कि फलाँ ने गर्दन काटी और वो सच्चा मजहबी था, तब तो इस्लाम के मूल मर्म को समझ गए हैं, जो इन्हें नकारते हैं, उन्हें स्वयं ही इस्लाम का कुछ भी ज्ञान नहीं।
ऐसे आतंकी निजी जीवन में गहन रूप से मजहब का अध्ययन करने वाले, हर निर्देश और आदेश को सीधे अल्लाह का आदेश मानने वाले, स्वयं को मानवों में सबसे उत्तम समझने वाले, एक अलग स्तर के सुप्रीमेसिस्ट होते हैं। ये आपको हमेशा स्वयं से हीन सिर्फ इसलिए मानते हैं क्योंकि बचपन से उन्हें यही सिखाया गया है। इन्हें गजनवी, गौरी, नादिरशाह, बिन कासिम, ओसामा, बाबर, औरंगजेब सब हीरो दिखते हैं क्योंकि इन्होंने काफिरों पर हमला किया, उनकी स्त्रियों का बलात्कार किया, उनके मंदिर तोड़े, उनका सामूहिक नरसंहार किया, संस्कृति के हर चिह्न को आग लगा दी।
समुदाय के कितने लोग आपको मिले हैं जो इतिहास की इन घटनाओं को लिए माफी माँगते हैं हिन्दुओं से? इन्हें उस बाबरी मस्जिद पर हिन्दुओं और भारतीय राष्ट्र से माफी चाहिए जो हिन्दुओं के मंदिर को तोड़ कर बनाई गई थी। इन्होंने हर नरसंहार को इस्लामी गौरव का परचम माना है। अगर ऐसा नहीं है तो ये छाती ठोक कर क्यों कहते फिरते हैं कि हमने तुम पर पाँच सौ साल राज किया? जबकि क्रूर सच्चाई यही है कि राज तुमने नहीं किया था बल्कि तुम्हारे पूर्वज भी उसी हिन्दू जनसंख्या का हिस्सा थे जिस पर बाहरी आक्रांताओं ने राज किया।
भारतीय परिदृश्य में कमाल की बात यह है कि अरब में जिन लोगों को जलील किया जाता है, वो अपने आपको बादशाहों की संतान मानते हैं। अरब वाले जिन्हें अपने मजहब का मानने से इनकार करते हैं और इनके कन्वर्ट होने की अशुद्धि पर दुत्कारते हैं, वो भी स्वयं को जहाँपनाहों के पोतों से नीचे देखते ही नहीं। ये वैसी सच्चाई है जिस पर कोई बात करना नहीं चाहता, आप करेंगे तो तुरंत ‘तुम इस्लामोफोबिक हो’, ‘तुम घृणा फैला रहे हो’।
मतलब, तुमसे आतंकी हमलों के बाद एक शब्द नहीं निकलता अपने मजहबी भाइयों को लिए, और हम अगर आतंकवादी को इस्लामी आतंकवादी कहें तो हम इस्लाम से घृणा करने वाले! मतलब, तुम काफिर कह कर हर हिन्दू को घृणा की निगाह से देखो, धर्म जान कर प्रेम की आड़ में बलात्कार करो और अपने बाप, भाई, चाचा, फूफा, मौसा आदि से बलात्कार करवाओ, उनकी हत्या करो, उन्हें अपने घरों को छोड़ने को मजबूर करो, और हम उन बातों पर बोलें तब इस्लामोफोबिक बन गए हम?
जो जन्म से ले कर मृत्यु तक, इस विचार (या विकार) के साथ जीते हैं कि हर काफिर कत्ल के योग्य है, जिन्हें यह बात सामान्य लगती है कि दूसरे धर्म वाले या तो मार दिए जाएँ या उनका मजहब स्वीकार लें, उस घृणित सोच पर सवाल करना इस्लामोफोबिया कैसे है?
मैक्राँ द्वारा उठाई गई हर बात चाहे वो किसी भी समाज में रह कर एक काउंटर सोसायटी बनाने की हो, या फिर मजहबी शिक्षा और अलग संस्कृति के नाम पर सरकारी स्कूल से बाहर ले जा कर बच्चों को शुरु से ही कट्टरपंथी बनाने की हो, या फिर इस्लामी अलगाववाद द्वारा राष्ट्रीय कानूनों को न मान कर अपने कानून को ही मानने की जिद से उपजा अंतिम लक्ष्य हो कि हर चीज उनके नियंत्रण में आ जाए, आज के संदर्भ में हर राष्ट्राध्यक्ष को बोलना चाहिए।
जब तक आप एक सामाजिक विकृति को स्वीकारते नहीं, उसका उपचार असंभव है। चाहे हंगरी हो, पोलैंड हो, रुस हो या चीन, हर राष्ट्र ने अपने स्तर से इस वैश्विक कैंसर के मूल पर रोक लगाने की व्यवस्थाएँ की हैं। फ्रांस इन आतंकियों के निशाने पर पूरे दशक रहा है। खास समुदाय वाले शरणार्थी बन कर आए, या वहाँ रह रहे कट्टरपंथियों ने पेरिस में कई बार, नीस, लेस लिस, ला डिफेंस, जो ले टूर्स, सेंट क्वेंटिन फलावियर, थेलीज, वैलेंस, मैगनविल, लेवालेइ पैरे, मर्साई, करकासोन, स्ट्रैसबर्ग, ल्योन आदि शहरों को अपने आतंक का निशाना बनाया है।
यही हाल दुनिया के हर उस देश का है जहाँ इस्लाम अल्पसंख्यक है, या वहाँ ऐसे लोग शरणार्थी बन कर गए हैं, या वहाँ ये राजनीतिक रूप से कमजोर हैं, लेकिन ख्वाब पूरे देश को इस्लाम के नीचे लाने के हैं। इसलिए, पहले तो इस विकृति के कारणों को पहचानना होगा, जोर-जोर से बोलना होगा, लोगों के बीच चर्चा का विषय बनाना होगा, वृहद समाज में इसकी स्वीकृति पैदा करनी होगी कि इस मुद्दे पर बात करना इस्लामोफोबिया नहीं है, बल्कि राजा नंगा है। तुम्हें उसका नंगापन दिख रहा है, और तुम चिल्ला रहे हो कि वह नंगा है, तो भीड़ भले ही उसके पीठ पर बने बाघ की अदृश्य कलाकारी पर आहें भर रहा हो, तुम अकेले होने पर भी सही हो।
इस्लामी कट्टरपंथ कुछ भी नहीं है, यह पाँच वक्त के नमाजी, टखने तक पाजामा पहनने वाले, इस्लाम के हर निर्देश का पालन करने वाले सच्चे मजहबी भाइयों को बुरा बताने की एक चाल है। स्कोडा-लहसुन तहजीब के सर्वोत्तम दौर में अपने इन मजहबी भाइयों को कट्टरपंथी कहने वालों की चाल को पहचानिए और उन्हें सच्चा मजहबी कह कर यथोचित सम्मान दीजिए।