देशभर में आज यानी, 24 अक्टूबर के दिन शारदीय नवरात्रि पर माँ दुर्गा के नौ स्वरूपों की आराधना हो रही है। हर घर में अष्टमी की पूजा और व्रत रखा जा रहा है। ऐसे में देश के कुछ ऐसे गिरोहों का सक्रीय होना भी स्वाभाविक है जो सालभर हिन्दू घृणा अफीम खाकर सोए रहते हैं और हिन्दू त्योहारों पर उनमें अपनी कुत्सित मानसिकता का योगदान देने के उद्देश्य से पुनर्जीवित हो जाते हैं।
ऐसे ही उदाहरण दुर्गा पूजा के अवसर भी लगभग हर साल ही देखने को मिलते हैं। इसी क्रम में सोशल मीडिया पर एक ऐसा ग्राफिक चित्र भी देखा जा सकता है, जिसमें दुर्गा माता के चित्र को महिलाओं द्वारा मासिक धर्म यानी पीरियड्स के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले सैनिटरी पैड पर उकेरा गया है।
ऐसा ही एक पोस्टर पीसी दास नाम के एक युवक ने बांग्ला में लिखे एक संदेश के साथ फेसबुक पपर शेयर किया है। पीसी दास ने इसमें कैप्शन लिखा है, “माँ दुर्गा भी एक माँ हैं। वो इस विश्व की माँ हैं। यह चित्र ड्रॉ कर के सारे संसार की माताओं को सम्मानित करने का प्रयास किया है।”
ऐसे घटिया नैरेटिव को दिशा देने वालों में पीसी दास अकेला नहीं है। ऐसे कई अन्य उदाहरण मौजूद हैं, जो बेहद शालीन नजर आकर अपनी विचारधारा के जहर को सामान्य बना देने का हर सम्भव प्रयास करते हैं –
वास्तव में देखा जाए तो ना ही सैनिटरी पैड में कोई विवाद जैसी बात है और ना ही दुर्गा माता को महिलाओं की दिनचर्या से जोड़ने के इस संदेश में। समस्या उस विषैले विचार से है, जो ऐसे ख़ास अवसरों में ही ख़ास तरीके से हिन्दू देवी-देवताओं के खिलाफ नैरेटिव तैयार करने का प्रयास करते हैं। इसके साथ ही, इस चित्र में समस्या का मूल माँ दुर्गा को हर त्योहार पर सिर्फ और सिर्फ पीरियड्स के रक्त के साथ जोड़कर प्रदर्शित कर उनके व्यक्तित्व को समेटने का प्रयास करना है।
दुर्गा को सनातन धर्म में बेशक माँ, बेटी और बहन का दर्जा दिया है और इसी वजह से उनके स्वरुप को सिर्फ नवरात्र या फिर दुर्गा पूजा के दिन ही नहीं बल्कि साल के पूरे 365 दिनों ही उन्हें पूजनीय माना गया है। लेकिन हर अवसर पर माँ दुर्गा के अस्तित्व की तुलना या उसके विवरण को महज पीरियड या सैनिटरी पैड में समेट देना इस संस्कृति का हिस्सा नहीं है। साथ ही, यह सरदर्द हिन्दुओं का ही है किवह कब और किस दिन उन्हें किस स्वरुप में पूजते हैं, ना कि किसी निकृष्ट और नास्तिकता का पाखंड करने वाले मजहबी वामपंथी का! वामपंथियों और उदारवादियों को यदि किसी मजहब में ज्ञान देना ही है तो उन्हें उन मजहब से शुरुआत करनी चाहिए, जहाँ समाज को शिक्षित करने की सजा गला रेतने के रूप में मिलती है।
निश्चित ही, ऐसे चित्र बनाने वाले कलाकार का प्रयास हिन्दू धर्म के हित में या आस्था के कारण किसी देवी-देवता के प्रति आभार प्रकट करना बिलकुल भी नहीं होता है। उनका प्रयास सिर्फ और सिर्फ एक परम्परा को खंडित करने के लिए समानांतर नैरेटिव स्थापित करने का होता है और इसके लिए कला का सहारा प्रपंचकारी वामपंथी हमेशा से ही लेते ही आए हैं।
हिन्दू धर्म में पीरियड्स या फिर उसके रक्त को यदि अपवित्र माना जाता तो असम में स्थित शक्तिपीठ कामाख्या देवी के मंदिर को वामपंथी क्यों भूल देना चाहते हैं? वह भी तो सनातन संस्कृति का ही अहम् हिस्सा है।
लेकिन बुद्धिपिशाच वामपंथियों के साथ समस्या वास्तव में सिर्फ हिन्दू धर्म या फिर इसकी मान्यताएँ नहीं हैं। ऐसे कुत्सित विचार सिर्फ और सिर्फ हिंदुत्व की विचारधारा के प्रति कट्टरता और नफरत के परिणामस्वरूप ही जन्म लेते हैं।
ऐसे ही आडंबरों, चित्रों और नारों का इस्तेमाल हर मौके पर किया जाता है। इसी का नतीजा होता है कि हर बलात्कार के मामले में फ़ौरन कह दिया जाता है कि ‘जिस देश में नारी को पूजने की बात करते हैं’, ‘रेपिस्तान’ या फिर ‘कहाँ हैं वो दुर्गा को पूजने वाले’!
यह छोटे-छोटे से कुछ सत्य हैं, हर बार नजरअंदाज करते हुए जिनका सामान्यीकरण कर दिया गया और हम इसके अभ्यस्त होते चले गए। आज कम से कम ऐसे प्रयास करने वालों पर लोग संज्ञान लेने लगे हैं। लोग इन प्रयासों को पहचानने लगे हैं। यही वजह है कि ‘इरोज नाउ’ जैसे दिग्गजों को भी पवित्र नवरात्र के अपमान पर माफ़ी माँगनी पड़ रही है। लेकिन इससे भी बड़ा भय यह है कि इन सबकों को भुला दिया जाता है और अगली बार यही किस्सा किसी नए चेहरे के द्वारा दोहरा दिया जाता है।