हाथरस मामले में सवर्णों को गाली देकर यदि मन भर गया हो तो एक नजर अपने इर्द-गिर्द घुमा कर भी देखिएगा। पहचानने की कोशिश कीजिएगा कि कहीं कोई ‘काटजू’ तो आपके आस-पास नहीं है। ऐसे लोगों की पहचान होगी कि वो बलात्कार को सेक्स बताएँगे। फिर एकदम से तेज आवाज में कहेंगे कि हम रेप जैसे अपराध की निंदा करते हैं और दोषियों को सख्त से सख्त सजा दिलवाने की पैरवी।
ऐसे लोग ‘बलात्कारियों’ को अप्रत्यक्ष रूप से मासूम साबित करने के लिए आपके सामने देश की भौगोलिक स्थिति रख देंगे। आपको आजादी से पहले का इतिहास समझा देंगे। आप ज्यादा संस्कृति और सभ्यता से प्यार करने वाले हुए तो ‘कामसूत्र’ का बाण छोड़ देंगे और खुजराहो में बनी नक्काशी का हवाला दे देंगे।
इसके बाद अगर आपमें सोचने-समझने का विवेक बचा तो हो सकता है आप उनका विरोध करें। मगर, उस समय वह आपको ये कहकर चुप कराएँगे कि हमने पहले ही कहा था कि हम रेप जैसे अपराध की निंदा करते हैं और दोषियों के लिए कड़ी से कड़ी सजा की माँग। शायद, तब आपके पास ‘काटजू’ जैसी सोच की आलोचना करने के लिए शब्द न बचें, जो व्यक्तिगत विचार के नाम पर आपके सामने बलात्कार को सेक्स बताकर परोसी जा रही हो।
आज हाथरस कांड ने जब एक बार फिर पूरे देश को झकझोर दिया है तब अपने विवादित बयानों के कारण पहचाने जाने वाले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू दोबारा चर्चा मे हैं। उन्होंने एक फेसबुक पोस्ट लिखा है। पोस्ट में उन्होंने हाथरस की घटना की निंदा बिलकुल उसी अंदाज में की है, जैसा ऊपर जिक्र किया गया। दुखद बात यह है कि मार्कंडेय काटजू पूर्व न्यायाधीश (वो भी सुप्रीम कोर्ट में!) रह चुके हैं और फिर भी ऐसा मानते हैं कि रेप की घटनाएँ बेरोजगारी के कारण हो रही हैं!
He needs psychiatric help….Is anyone there to help him….???
— Oxomiya Jiyori 🇮🇳 (@SouleFacts) September 30, 2020
Rapes happen when unemployed men can’t get married: Former SC Judge Markandey Katju’s bizarre explanation for Hathras casehttps://t.co/02WXF2C4Cs
उनका मानना है कि एक पुरुष के लिए खाने के बाद दूसरी सबसे बड़ी जरूरत है – सेक्स। और भारत जैसे दबे समाज में रहते हुए इसकी आजादी सिर्फ शादी के बाद ही मिलती है, यह भी वो मानते हैं। ऐसे में अगर देश में बेरोजगारी होगी और युवाओं की शादी नहीं हो पाएगी तो एक उम्र के बाद उनकी इच्छाएँ प्रबल होंने लगेंगी और जरूरत बन जाएँगी। वह कहते हैं कि देश में बेरोजगारों से कोई लड़की शादी नहीं करना चाहती है। इसलिए बड़ी संख्या में युवा (लड़के/मर्द) सेक्स से वंचित हो जाते हैं। जबकि एक उम्र में जाने के बाद उनके लिए यह सामान्य जरूरत है।
आगे वो कहते हैं कि 1947 से पहले अविभाजित भारत की जनसंख्या लगभग 42 करोड़ थी। आज अकेले भारत में लगभग 135 करोड़ लोग हैं, जिसका अर्थ है कि जनसंख्या में चार गुना वृद्धि हुई है। लेकिन बढ़ी हुई नौकरियों की संख्या चार गुना से भी कम है। उनका कहना है कि जब जून 2020 में अकेल 12 करोड़ लोगों ने अपनी नौकरियाँ गवाईं तो क्या रेप में वृद्धि नहीं होगी।
अपनी बात को आगे बढ़ाने से पहले वो एक बार फिर स्पष्ट करते हैं कि वह रेप को जस्टिफाई नहीं कर रहे। बस उस स्थिति की ओर ध्यान आकर्षित करवा रहे हैं, जिसके कारण यह सब बढ़ रहा है। वह मानते हैं कि अगर रेप को कम करना है तो सामाजिक और आर्थिक तंत्र भारत में बनाना होग, जहाँ कोई बेरोजगारी न हो या हो तो बहुत कम।
अब सोचिए कि एक छोटे से पोस्ट को लिखते वक्त जब व्यक्ति विशेष को हर पैराग्राफ में इस बात को दोहराना पड़े कि वह रेप को जस्टिफाई नहीं कर रहा है। तो कहीं न कहीं इस बात का आभास तो होता है कि उसे खुद भी यह बात मालूम है कि वह बलात्कार पर सफाई ही दे रहा है। फिर चाहे उसे सेक्स के समान बता कर करे या उसे बेरोजगारी का दुष्परिणाम बताकर।
आगे बढ़ने से पहले बता दें कि सोशल मीडिया पर इस पोस्ट की खूब आलोचना हो रही है। लोग तरह-तरह की प्रतिक्रिया देकर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश की सोच पर सवाल उठा रहे हैं और जो उनको चाहने वाले हैं, वो समझा रहे हैं कि वह इसे डिलीट कर दें। मगर, हर जगह ‘माननीय’ पूर्व न्यायाधीश काटजू एक कमेंट ही कॉपी पेस्ट कर रहे हैं और कह रहे हैं कि उनका मत तो बस यह है कि जब तक बेरोजगारी है, रेप होते रहेंगे।
काटजू के बयान के मुताबिक सेक्स की जरूरत और बेरोजगारी की समस्या रेप जैसी घटना के लिए जिम्मेदार हैं। इसलिए यह सवाल उठता है कि क्या यह दोनों स्थिति सिर्फ पुरुषों के लिए है? या महिलाएँ इनकी चीजों की परिधि में आती ही नहीं?
सेक्स को पुरुषों की जरूरत तक सीमित कर देने वालों को टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक खबर पढ़ने की आवश्यकता है, जो बताती है कि महिलाओ के भीतर सेक्स की इच्छा पुरुषों से अधिक होती है। और फिर रही बेरोजगारी की बात तो इस लॉकडाउन में जहाँ पुरुष कर्मचारियों ने नौकरियाँ गवाई हैं, वहीं महिला कर्मचारियों को भी जॉब से हाथ धोना पड़ा है। अब जाहिर है बेरोजगार हुई लड़कियाँ वयस्क ही हैं। तो अगर ‘काटजू’ थ्योरी को यहाँ अप्लाई किया जाए तो क्या निष्कर्ष समान मिलेंगे?
नहीं। आप कभी नहीं सुनेंगे कि किसी बेरोजगार ‘कमला (महिला-जो वयस्क भी है)’ ने अपनी सेक्स की इच्छा पूरी करने के लिए ‘काटजू (मजबूर, गरीब… खेत में शौच के लिए जाता एक मर्द)’ को धर दबोचा क्योंकि उससे उसके हार्मोन कंट्रोल नहीं हो रहे थे। मगर आज ‘काटजू’ से आप यह जरूर सुन रहे हैं कि ‘कमला (हाथरस पीड़िता जैसी अनेक महिलाएँ)’ का रेप इसलिए हुआ क्योंकि युवक बेरोजगार होते हैं और उनकी उम्र में सेक्स की जरूरत होती है। पर बेरोजगारी के कारण उनकी शादी नहीं होती, जिससे वह इस जरूरत से वंचित हो जाते हैं।
रेप और सेक्स के बीच में अंतर तक न जानने-समझने वाले लोगों के बारे में जब मालूम चलता है कि वो भारतीय न्याय व्यवस्था (वो भी सबसे ऊपरी हिस्से में बैठे) का हिस्सा रहे हैं, तो इससे ज्यादा हास्यास्पद कुछ भी नहीं लगता। कल्पना कीजिए कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को अंजाम देने वाला आरोपित कटघरे में खड़ा है और उसे देख कर लोग तरस खा रहे हैं। सबके मन में बस यही चल रहा है कि काश इसके पास नौकरी होती तो यह आराम से सेक्स कर पाता, किसी लड़की की जिंदगी बर्बाद नहीं करता।
लोगों के मन में रेप आरोपित को लेकर सोच का यह विकल्प क्यों? इसे भी ‘काटजू’ थ्योरी से समझिए। नौकरी होती तो शादी होती। शादी हो जाती तो बीवी के साथ सेक्स कर पाता। इच्छाएँ वहीं शांत हो जातीं। न मन इधर-उधर भागता, न वह किसी लड़की को पकड़ कर रेप करता और न ही हवस शांत होते ही फँसने के डर से उसे बर्बरता से मारता।
‘काटजू’ थ्योरी के साथ कई लोग आपको अपने आस-पास देखने को मिलते होंगे। उन्हें रेप के पीछे बलात्कारी मानसिकता नहीं, प्रशासन की ढिलाई नजर आती होगी। उन्हें लड़कों की गंदी नजर से आपत्ति नहीं होगी, लड़की ने क्या पहना था, इस पर उनका सवाल होगा। उनके साथ बात करने के बाद आप बलात्कारी को भी घृणा की जगह मानवीय दृष्टि से देखने लगेंगे। बिलकुल उसी तरह जैसे आतंकियों को उनके प्रोफेशन और फैमिली बैकग्राउंड से जज करने लगते हैं। उनके लिए संवेदनाएँ प्रकट करने लगते हैं।
अगर भारत में रेप की वारदातें वाकई बेरोजगारी के कारण बढ़ रही हैं तो world population review के आँकड़े में क्यों स्वीडन शामिल है? वहाँ की इम्प्लॉयमेंट रेट तो 75 प्रतिशत के भी पार है। क्यों रेप मामलों में टॉप 10 की गिनती में कहीं भी भारत नहीं है?
इसके अलावा देश की ही अगर बात करें तो बॉलीवुड का उदाहरण ले सकते हैं। इन दिनों सुर्खियों में भी है। बॉलीवुड के न जाने कितने लोगों पर रेप का आरोप लगा है। अब उनका अपराध सही साबित करने के लिए कौन सी बेरोजगारी या पुरुषों की हवस वाला कार्ड खेला जाएगा? कार्यस्थलों पर होने वाले लड़की के शोषण पर कैसे सफाई दी जाएगी? खुद के ही रिश्तेदारों द्वारा सताई पीड़िता के लिए क्या कहा जाएगा?
रेप और सेक्स में फर्क होता है। इस बात को सब अच्छे से जानते हैं। रेप की बढ़ती घटनाओं में बेरोजगारी एक फैक्टर की तरह हो सकती है। मगर, रेप के लिए सिर्फ़ बेरोजगारी को जिम्मेदार ठहराना और उस पर भी पुरुष की इच्छा व अवस्था का हवाला देने वाली समझ आपके भीतर के इंसान को गर्त में पहुँचा देगी। ऐसा होते ही आपकी सोच कुछ-कुछ ऐसी हो जाएगी:
महिलाओं की इज्जत आपको ख़िलवाड़ लगेगी!
आप इस बात को भूल जाएँगे कि सेक्स नैचुरल है और आपसी सहमति से बनाया गया संबंध है!
रेप पीड़िता/पीड़ित के मन पर हुआ आघात है। उसके शरीर पर किया गया हमला है। इसमें पीड़ित के साथ संबंध तो बनाए जाते हैं, मगर उसके अंतर्मन को झकझोर दिया जाता है। रेप में पीड़िता की गैर रजामंदी होती है और वो असहनीय पीड़ा होती है, जो किसी अनचाहे इंसान को अपने ऊपर महसूस करने के कारण बढ़ती जाती है।
पीड़ित लड़की/लड़का वहीं खत्म होना शुरू हो जाती/जाता है, जब कोई उसे ऐसी मंशा से छूता है। तब वो इतना समझदार नहीं रह जाती/जाता कि उसे ये पता चले कि रेप करने वाला लड़का बेरोजगार है या उस पर हवस का भूत सवार है। उसके सामने सीधे वो निर्भया का चेहरा आ जाता है, जिसके विरोध करने पर योनि में लोहे की रॉड घुसा दी गई थी और आँतों को बाहर कर दिया गया था।