Sunday, November 17, 2024
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कहीं मुस्लिम सहेली ने ही करवाया गैंगरेप तो कहीं छोटे से बच्चे ने दी इस्लाम के हिसाब से चलने की सलाह: कश्मीर नरसंहार और ‘मेहमान मुजाहिद’

कश्मीरी पंडित पुरुषों को जहाँ बेरहमी से मारा जा रहा था, वहीं औरतों के रेप हो रहे थे, उन्हें कलमे पढ़वाए जा रहे थे और इन्हें बल देने में जो उन दरिंदों का कंधे से कंधा मिलाकर साथ दे रही थीं वो और कोई नहीं बल्कि मुस्लिम महिलाएँ ही थीं।

“हाल ही में मुझे एक महिला के बारे में पता चला। वो किसी फील्ड में गोल्ड मेडलिस्ट थीं। उनके पिता बीएससी थे, उनकी माँ प्रोफेसर थीं। कुल मिलाकर वो कश्मीर के एक पढ़े-लिखे परिवार से थीं। 90 के दशक में इस्लामी कट्टरपंथियों ने पहले उनके माता-पिता को मारा, फिर उनका इतनी बुरी तरह रेप किया कि आज भी वो उस दर्द से नहीं उबर पाई हैं। वो लाइट बंद करके एक ही जगह बैठी रहती हैं। वहीं वह पेशाब करती हैं- टट्टी करती हैं। हमेशा उसी कमरे में अंधेरे में रखती हैं। उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं है। बस एक भाई है जो उनका ध्यान रखता है पर उन्हीं की तरह वो भी डिप्रेशन का शिकार है। अगर वो औरत अपने करियर के हिसाब से आगे बढ़ती तो शायद आज किसी बड़े पद पर आसित होती। मगर वो है कहाँ? अंधेरे में! ”

कश्मीरी हिंदू महिलाओं की पीड़ा को बयाँ करने वाला ये वाकया कोई फिल्मी सीन नहीं, बल्कि एक हकीकत है जिसे ऑपइंडिया के साथ द कश्मीर फाइल्स की एक्ट्रेस भाषा सुंबली ने साझा किया है। कश्मीरी पंडितों के साथ 90 के दशक में हुई इस्लामी बर्बरता को जस का तस जनता के सामने पेश करने वाली ‘द कश्मीर फाइल्स’ में भाषा एक विक्टिम के किरदार में तो हैं ही, लेकिन असल जीवन में भी उनकी जड़ें कश्मीर से ही हैं। वह, कश्मीर के मुद्दों पर मुखर होकर हमेशा अपनी बात रखती रहीं। मगर आपको जानकर हैरानी होगी कि कश्मीर से होने के बावजूद उन्होंने कभी उस ओर रुख नहीं किया। ये पूछे जाने पर कि आखिर ऐसा क्यों? भाषा हर बार यही बताती हैं कि वो अपने ही घर एक टूरिस्ट बनकर नहीं जाना चाहती, वो नहीं चाहती कि वो कश्मीर जाकर होटल रुकें जिसके अगल-बगल में उनके उस घर के अवशेष या स्मति चिह्न हों जिसे कट्टरपंथ की आग में जला दिया गया था। 

आपको बता दें कि 90 के दशक में इस्लामी कट्टरपंथ केवल मुस्लिम पुरुषों में नहीं देखने को मिला था बल्कि छोटे बच्चे से लेकर महिलाओं तक में हिंदुओं के लिए नफरत पैदा हो चुकी थी। भाषा हमसे बात करते हुए बालकृष्ण गंजू को याद करती हैं जो अपनी जान बचाने के लिए एक चावल के ड्रम में छिपे थे और उन्हें इस्लामी पूरा घर छानने के बाद भी नहीं ढूँढ पाए थे, लेकिन तभी पड़ोस की मुस्लिम महिला ने उन दरिंदों को ध्यान उस ड्रम पर दिलवाया और बर्बरता से उन्हें उसी ड्रम में भून दिया गया। इसी तरह अपनी माँ के साथ हुई घटना को भाषा साझा करती हैं कि कैसे उनकी माँ को उनके गाँव के छोटे लड़के ने धमकी दी थी कि वो न स्लीवलेस कपड़ों में बाहर जाएँगी और न ही स्कूटी आदि चलाएँगी।

कश्मीर पंडितों के साथ हुई वीभत्सता और मुस्लिम महिलाएँ

अंदाजा लगा सकते हैं कि उस दौर में हिंदुओं से नफरत की कोई सीमा नहीं थी। कश्मीरी पंडित पुरुषों को जहाँ बेरहमी से मारा जा रहा था, वहीं औरतों के रेप हो रहे थे, उन्हें कलमे पढ़वाए जा रहे थे और इन्हें बल देने में जो उन दरिंदों का कंधे से कंधा मिलाकर साथ दे रही थीं वो और कोई नहीं बल्कि मुस्लिम महिलाएँ ही थीं। जिनमें से कुछ मुस्लिम महिलाएँ बाद में जाकर कट्टरपंथियों का शिकार भी हुईं। द डिप्लोमैट में इस संबंध में कुछ दिन पहले एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। जिसमें कुछ मुस्लिम महिलाओं की कहानियाँ थीं जो कश्मीर में रेप का शिकार हुईं। किसी ने बताया था कि आतंकियों ने उनका 14 साल की उम्र में रेप किया, तो किसी ने बताया कि 9 साल की उम्र में ही आतंकी उन पर हावी हो गए।

रिपोर्ट में फातिमा नाम की महिला ने तो यहाँ तक बताया कि उसके साथ आतंकियों ने इतने साल रेप किया कि उससे कोई निकाह को तैयार नहीं होता था। बाद में किसी अपाहिज भाई के साथ उसका निकाह हुआ। उसे लगा अब सारी चीजें शांत होंगी। लेकिन नहीं! आतंकी उसके ससुराल भी गए और तब भी रेप किया उसका एक बच्चा हो गया था और दूसरा होने वाला था। इसी तरह अफरोजा ने बताया कि जब वो 12 साल की थी तब कुछ लोग उनके घर खाना खाने, खासर मीट, खाने आते थे और उन लोगों को अंदर रहने को कहा जाता था। एक दिन उनमें से एक आदमी ने उसे बुलाया और जब वो गई तो उसे पकड़ लिया। अफरोजा को नहीं पता था कि क्या हो रहा है पर उसके मुताबिक वो गलत और दर्द देने वाला था।

मेहमान मुजाहिद कॉन्सेप्ट का शिकार हुईं मुस्लिम महिलाएँ

ऑपइंडिया ने इस संबंध में जब भाषा सुंबली से बात की तो उन्होंने अपनी बात रखते हुए ‘मेहमान मुजाहिद’ कॉन्सेप्ट की चर्चा की। ‘मेहमान मुजाहिद’ की अवधारणा समझाते हुए उन्होंने बताया कि कश्मीर में जिहाद पर निकले मुजाहिदों को मुस्लिम परिवार घर बुला बुलाकर मेहमान नवाजी करते थे। औरतों को लगता था कि जब वे लोग कौम के लिए इतना कर रही हैं तो वो उन्हें खिला-पिलाकर खुश तो कर ही सकती हैं। इसी कॉन्सेप्ट की आड़ में कश्मीर की मुस्लिम महिलाओं के साथ भी ज्यादतियाँ हुई। उन्होंने सामने आई रिपोर्ट्स को लेकर कहा कि अगर ऐसा हो रहा है कि औरतें सामने आ रही हैं तो अच्छी बात है और उन्हें एहसास होने लगा है कि उन्हें कैसे जिहाद के नाम पर तबाह किया जा रहा है।

अपनी बात रखते हुए सुंबली स्पष्ट कहती हैं कि वैसे उन्हें इस मामले में कोई लेना-देना नहीं है। उनके लिए अपने लोग, अपना समुदाय महत्वपूर्ण है जिन्हें तमाम तरह से प्रताड़ित किया था। उनके मुताबिक, ये सब बिलकुल ऐसा है जैसे कश्मीर पंडितों का घर जलाते हुए वो खुद शिकार हो गए।

वह याद दिलाती हैं कि एक वो भी दौर था जब इन्हीं मुस्लिम महिलाओं ने हिंदुओं के ख़िलाफ़ कट्टरपंथियों का साथ दिया। जिसका जिक्र द कश्मीर फाइल्स में भी है और बालकृष्ण गंजू के साथ हुई निर्ममता भी इस बात का प्रमाण है कि कैसे मुस्लिम महिलाओं ने 90 के दशक में हिंदुओं के नरसंहार में अपनी भूमिका निभाई। वो इन्हीं पुरानी बातों को याद करते हुए आज कश्मीर में जिहाद की आड़ में जो मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रहा है उस पर कुछ भी कहने से मना कर करती हैं। उनके मुताबिक, अगर हमारा घर जलाते-जलाते उन पर आफत आ गई तो क्या अब इस भी हम लोग ही रोएँ? नहीं। हमारा लेना-देना नहीं है।

शुरुआत में कश्मीर करता था बॉलीवुड को फॉलो, फिर हिंदुओं को हिजाब पहनने को कहा जाने लगा

कश्मीर में पसरे कट्टरपंथ को लेकर भाषा ने कहा कि शुरुआती दौर में कश्मीर ऐसा नहीं था। वहाँ बॉलीवुड का हर फैशन फॉलो करने वाली महिलाएँ थी लेकिन धीरे-धीरे समय बदला और हिंदू लड़कियों को हिजाब पहनाने की बातें होनी लगीं। उनके मुताबिक उनकी माँ यानी डॉ क्षमा कौल के साथ भी ऐसी घटनाएँ घटी थीं जिन्हें एक गाँव के बच्चे ने ही उनके हिसाब से रहने को कह दिया था।

मुहल्ले के बच्चे ने दी धमकी, सहपाठी ने रुलाया: कश्मीर में कट्टरपंथ पर ‘दर्दपुर’ की लेखिका डॉ क्षमा कौल

डॉ क्षमा कौल ‘दर्दपुर’ किताब की लेखिका हैं जो कश्मीर में फैलते कट्टरपंथ की चश्मदीद रही हैं। जब हमने उनसे संपर्क किया और उन अनुभवों को जाना तो उन्होंने 35-40 साल पुराने किस्सों का जिक्र किया। डॉ क्षमा कौल से बात करते लगा कि अभी तक हमने कश्मीर में कट्टरपंथ को सिर्फ 1989-1990 के समय से आँका लेकिन वास्तविकता में इसकी नींव कई साल पहले से पड़नी शुरू हो गई थी।

उन्होंने अपने साथ हुई दो घटनाएँ साझा कीं, जो बताती हैं कि कैसे मुस्लिम परिवार का बच्चा-बच्चा भी हिंदुओं को काफिर की नजर से देखता था। उन्होंने बताया कि 1984 में वो जब वो नौकरी करने लगी थीं तब स्कूटी से अपने काम पर जाया करती थीं। लेकिन एक दिन मोहल्ले के छोटे लड़के ने उन्हें रोका और कहा, “रहना है तो हमारे हिसाब से रहो।” डॉ क्षमा आज उस बच्चे को याद करते हुए कहती हैं कि वो बच्चा बेहद प्यारा था। लेकिन उसने जब कट्टरता आनी शुरू हुई तो उसने मुझे रोककर ये सारी बातें कहीं।

चौथी क्लास की एक घटना को याद करते हुए डॉ क्षमा ने बताया कि वो परीक्षा के बाद स्कूल में दवात भूल गई थीं, जब वो उसे वापस लेने गई तो एक मुस्लिम सहपाठी ने उन्हें रोका और उन्हें कहा कि अगर दवात वापस लेनी है तो रोकर दिखाना होगा। डॉ क्षमा के अनुसार, वह बहुत ज्यादा छोटी थीं जब उनके साथ ये सारी घटनाएँ शुरू हुईं।

स्कूल में चलती थी आतंकवाद की ट्रेनिंग

उनके मुताबिक, उनके घर के पास में एक हाई स्कूल था जहाँ मुस्लिमों को सुबह-सुबह ट्रेनिंग दी जाती थी और ट्रेनिंग के समय वहाँ इतनी भयानक आवाजें आती थीं कि वे लोग डर जाते थे कि आखिर हो क्या रहा है। जब हम लोग पूछते थे कि ये लोग किस चीज की ट्रेनिंग कर रहे हैं तो बताया जाता था कि वो पुलिसमैन हैं और अपनी ट्रेनिंग कर रहे हैं। बाद में पता चला कि ये सब आतंकवाद फैलाने की तैयारी थी।

वह कहती हैं कि 1984-1985 में मुस्लिम कट्टरंपथियों ने जमकर तैयारी की थी और 1986 में पहला हमला किया। फिर 1987 शांत रहे। 1989 में ये निकल कर सामने आए और हिंदुओं को मारना शुरू किया। शुरू में 1-1 को मारा गया फिर धीरे-धीरे 5-6 मारे जाने लगे। बाद में औरतों को निशाना बनाया गया। उसके बाद कश्मीरी पंडित सिर्फ भागते रहे और ये लोग मस्जिद पर लाउडस्पीकर लगाकर बताते रहे कि कश्मीरी पंडित चले जाएँ और औरतों को यही छोड़ दें।

कट्टरपंथ से जूझना कश्मीरी पंडित महिलाओं के जीवन का अंग बन गया था

वह कहती हैं, “कश्मीर में रहकर कट्टरपंथियों को झेलना कश्मीरी पंडित महिलाओं के जीवन का अंग बन गया था। हमारे डीएनए में हो गया था कि हमें ये सब सहना ही सहना है। हमारे दिमागों में भी भर दिया गया कि अगर कोई ऐसे परेशान करे तो रोते हुए घर लौट आना है।” उन्होंने उन घटनाओं को साझा किया जब कश्मीरी पंडित महिलाओं के साथ वीभत्सता की हर सीमा लांघी गई।

वह गिरिजा टीकू की कहानी को साझा करती हैं और कहती है कि वो महिला सिर्फ अपनी तनख्वाह लेने वापस गई थी। लेकिन वहाँ उसकी मुस्लिम सहेली ने ही इंतजाम किया था कि आतंकवादी आएँ, उसकी काफिर सहेली का गैंगरेप करें। आपको हैरानी होगी कि गिरिजा टीकू को मारने वाले उन आतंकियों ने गिरिजा का न केवल रेप किया था बल्कि उसका शरीर आरा मशीन में कटवाया था और दोनों हिस्से अलग-अलग फेंके थे।

ऐसे ही एक नर्स से जुड़ा किस्सा वो बताती है, जिन्होंने इंसानियत दिखाते हुए अपना खून आतंकी क चढ़ाया, लेकिन बाद में क्या हुआ? उनका रेप, उन्हें भी मारा गया और उनकी लाश को उसी अस्पताल के आंगन में फेंका गया जहाँ उन्होंने खून दिया था। इसी तरह एक दंपत्ति को जीप में बाँधकर जमीन से रगड़-रगड़ कर मारा गया। एक डॉ सुंबली थी जिन्हें उनके घर में जला दिया गया। आदि-आदि

द कश्मीर फाइल्स ‘शिकारा’ की तरह नहीं करेगी निराश 

डॉ क्षमा की तरह तमाम कश्मीरी पंडितों के पास अपने-अपने अनुभव हैं जिन्हें उन लोगों ने 32 साल तक समेटे रखा। अब विवेक अग्रनिहोत्री के निर्देशन में बनी ‘द कश्मीर फाइल्स’ आपके सामने इन्हीं कहानियों को विजुअली प्रस्तुत करेगी ताकि दुनिया को भी पता चले कि 32 साल में अपने ही घरों से विस्थापित हुए कश्मीरी पंडितों पर क्या बीती।

इससे पहले साल 2020 में जब कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार को दिखाने के नाम पर शिकारा फिल्म का प्रमोशन हुआ था। उस समय कई लोगों ने इससे कई उम्मीद बाँधीं थी। देश के विभिन्न राज्यों से लेकर विदेशों तक में बैठे कश्मीरी पंडितों में एक आस जगी कि शायद अब उनके साथ हुई निर्ममता का दुनिया को अहसास होगा। लेकिन, फिल्म रिलीज के बाद ये उम्मीद उस समय बुरी तरह धराशायी हुई जब लोगों ने देखा कि कैसे कश्मीरी पंडितों का मखौल एक प्रेम कहानी दिखा कर उड़ाया गया।

फिल्म के बाद प्रीमियर कई लोग गुस्से से चीखते-चिल्लाते दिखाई दिए थे कि उनका नाम इस्तेमाल करके क्या लाया गया है और एक सवाल सबके मन को कचोट रहा था कि क्या बॉलीवुड में पसरा नैरेटिव कभी कश्मीरी पंडितों के साथ हुई बर्बरता को सामने नहीं आने देगा या क्या हर बार कश्मीरी पंडितों को आधार बनाकर भाईचारे की, प्रेम की कहानियाँ रची जाती रहेंगी। कश्मीरी पंडितों के सवाल, उनका दर्द, उनका गु्स्सा सब वाजिब था। उनकी पीड़ा दिखाने के नाम पर जो घिनौना नैरेटिव गढ़ा गया।

वो उसी पर प्रतिक्रिया थी। लेकिन, 2020 की शिकारा और 2022 की द कश्मीर फाइल्स में क्या अंतर है इसका अंदाजा रिलीज से पहले आ रहे उन लोगों के रिएक्शन से लगाया जा सकता है जो फिल्म देखने के बाद उन भयावह पलों को याद कर एक बार फिर फूट-फूटकर रोए और अन्य लोगों से यह फिल्म देखनी की अपील इसलिए की ताकि पूरी दुनिया जाने कश्मीर में 90 का दौर कितना काला और खून से रंगा है जिसके सामने बड़ी-बड़ी प्रेम कहानी कितनी तुच्छ है।

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