1995 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक आदेश में हिंदुत्व की व्याख्या ‘जीवनशैली’ के तौर पर की थी। दो दशक बाद शीर्ष अदालत ने इस पर पुनर्विचार का फैसला किया। अब मद्रास हाई कोर्ट का एक फैसला आया है। उस फैसले पर गौर करने से पहले एक परिस्थितिजन्य सवाल। ऐसी परिस्थिति जो आपमें से बहुतों के लिए काल्पनिक होगी। ठीक उसी वक्त आप जैसे बहुतों के लिए हकीकत।
आप एक गाँव/कस्बे/शहर में रहते हैं। बचपन से आप देख रहे थे कि राम जानकी मोहल्ले से रामनवमी की जुलूस हर साल निकलती है। विभिन्न इलाकों से गुजरते हुए जिला स्कूल मैदान में समाप्त हो जाती है। कभी कोई बवाल नहीं। अचानक से एक बार यात्रा मार्ग में पड़ने वाले इस्लाम नगर के लोग आपके जुलूस पर आपत्ति जताते हैं। इसके बाद उनकी भावनाओं का हवाला दे आपकी धार्मिक यात्रा का मार्ग बदल/छोटा कर दिया जाता है। सालों से चली आ रही एक परंपरा पर विराम लग जाता है, क्योंकि एक खास इलाके के बहुसंख्यकों को आपके धार्मिक आयोजन से दिक्कत है।।
ऐसी किसी भी स्थिति के लिए मद्रास हाई कोर्ट का एक फैसला जो हाल में चुनाव आयोग पर तल्ख टिप्पणी के लेकर चर्चा में रहा है, नजीर बन सकता है। सरल शब्दों में कहें तो हाई कोर्ट ने कहा है;
- मजहबी असहिष्णुता की अनुमति दिया जाना एक धर्मनिरपेक्ष देश के लिए अच्छा नहीं है। किसी भी मजहबी समूह के किसी भी तरह की असहिष्णुता पर रोक लगनी चाहिए
- भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। यदि क्षेत्र विशेष में एक मजहबी समूह बहुसंख्यक है तो यह उस क्षेत्र में अन्य धर्म के लोगों के त्योहारों या जुलूस की अनुमति नहीं दिए जाने का आधार नहीं हो सकता
- प्रत्येक समुदाय को दूसरे धर्मों की भावनाओं का अपमान किए बिना धार्मिक जुलूस निकालने का मौलिक अधिकार है
- क्षेत्र विशेष का बहुसंख्यक समूह दूसरे धर्म के लोगों को धार्मिक जुलूस निकालने या त्योहार मनाने से नहीं रोक सकते
- यदि इसे स्वीकार किया गया तो वह दिन भी आ सकता है जब क्षेत्र विशेष के बहुसंख्यक अपने इलाके में अन्य धार्मिक समूह के लोगों को सड़कों पर आवाजाही, परिवहन या अन्य सामान्य गतिविधियों से भी रोक सकते हैं
- क्षेत्र विशेष के मजहबी बहुसंख्यकों के इस रवैए के विरोध में अन्य धार्मिक समूह भी इसी तरह का रुख दिखाएँ तो अराजकता फैल सकती है। दंगे हो सकते हैं। इसे जानमाल का नुकसान होगा। हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को नुकसान हो सकता है
अब यह जानते हैं कि मद्रास हाई कोर्ट को आखिरकार ये टिप्पणियाँ क्यों करनी पड़ी?
जस्टिस एन किरुबाकरण (N. Kirubakaran) और जस्टिस पी वेलुमुरुगन (P. Velumurugan) की खंडपीठ ने एक गाँव में कुछ हिंदू त्योहारों/धार्मिक जुलूसों को लेकर मुस्लिमों की आपत्ति को लेकर लंबे समय से चल रहे विवाद पर सुनवाई के दौरान ये बातें कही। लाइव लॉ की रिपोर्ट बताती है कि सरकारी जमीन के इस्तेमाल को लेकर 1951 से ही हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच विवाद चल रहा था। इसके कारण कई सांप्रदायिक विवाद हुए और दोनों पक्षों की ओर से कई मामले भी दर्ज किए गए।
बावजूद इसके 2011 तक हिंदुओं के कुछ त्योहारों के आयोजन को लेकर कोई विवाद नहीं रहा। तीन मंदिरों का तीन दिवसीय आयोजन शांति से 2011 तक निपटता रहा। 2012 में मुस्लिमों ने इन आयोजनों को ‘पाप’ करार देते हुए विरोध किया। वे इलाके में खुद के बहुसंख्यक होने और अपनी भावनाओं का भी हवाला दे रहे थे। इसकी वजह से 2012 के बाद ये आयोजन कई तरह के प्रतिबंधों के साथ होने लगे। 2018 में रेवेन्यू डिवीजनल आफिसर ने कुछ शर्तों के साथ आयोजन को अनुमति दी थी। इसे मद्रास हाई कोर्ट में चुनौती दी गई थी। हाई कोर्ट का ताजा फैसला इसी आलोक में आया है।
ऊपर जो परिस्थितिजन्य सवाल है उस तरह के हालात में अमूमन देखने को मिलता है कि हिंदू मन मसोस कर रह जाते हैं। या फिर उनके साथ वही होता है जो चंदन गुप्ता या अनुराग पोद्दार के साथ हुआ। अब इनसे इतर मद्रास हाई कोर्ट ने एक रास्ता दिखाया है, जो मौजूँ है!