Saturday, December 21, 2024
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दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘मार्क्स जिहाद’: JNU के ढहते किले से सहमे वामपंथी, नया ‘गढ़’ बनाने की साजिश

आँकड़ों की इस बाजीगरी में NDTV ने यह तथ्य छिपा लिया गया है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेजों के सर्वाधिक लोकप्रिय पाठ्यक्रमों की आधे से अधिक सीटों पर अकेले केरल बोर्ड के छात्रों ने ही प्रवेश लिया है। एक तथ्य यह भी है कि प्रवेश लेने वाले केरल बोर्ड के इन छात्रों में आधी संख्या मुस्लिम समुदाय के छात्रों की है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित किरोड़ीमल कॉलेज में पिछले 30 वर्ष से भौतिक-शास्त्र पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर राकेश कुमार पाण्डेय के एक बयान ने शिक्षा जगत में एक नए विवाद को जन्म दे दिया है। उन्होंने केरल राज्य बोर्ड द्वारा अत्यंत उदारतापूर्वक छात्रों को बड़ी संख्या में 100 फीसदी मार्क्स देने की प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हुए इसे ‘मार्क्सवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार की सुचिंतित और सुनियोजित साजिश’ बताया है। इन अत्यधिक बढ़े हुए मार्क्स के आधार पर देश के सबसे प्रतिष्ठित दिल्ली विश्वविद्यालय की ‘कटऑफ’ आधारित प्रवेश-प्रक्रिया के तहत मनमाफिक कॉलेज और कोर्स में प्रवेश सुनिश्चित हो जाता है। उन्होंने केरल प्रान्त के छात्रों के अत्यधिक बढ़े हुए (inflated) मार्क्स के आधार पर प्रवेश लेने और मार्क्सवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार की साजिश को ‘मार्क्स जिहाद’ की संज्ञा दी है।

उनके बयान पर बहुत से वामपंथी और कॉन्ग्रेसी छात्र संगठनों, शिक्षकों और शशि थरूर जैसे राजनेताओं ने आपत्ति दर्ज कराते हुए उनके खिलाफ बर्खास्तगी जैसी सख्त कार्रवाई की माँग की है। डॉ. राकेश कुमार पाण्डेय द्वारा प्रयोग की गई संज्ञा ‘मार्क्स जिहाद’ पर भले ही कुछ लोगों को असहमति या आपत्ति हो, लेकिन उनके द्वारा उठाए गए मुद्दे को निराधार नहीं कहा जा सकता है। यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि केरल में ‘लव जिहाद’ और ‘नारकोटिक जिहाद’ फल-फूल रहा है। इसलिए मार्क्स जिहाद की संभावना को भी प्रथमदृष्ट्या निरस्त नहीं किया जा सकता है। केरल बोर्ड के अत्यधिक दाखिलों के खिलाफ गुनिशा नामक एक छात्रा ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका भी दायर की है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित कॉलेजों- हिन्दू कॉलेज, रामजस कॉलेज, हंसराज कॉलेज, किरोड़ीमल कॉलेज, मिरांडा हाउस कॉलेज और श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स आदि के लोकप्रिय ऑनर्स पाठ्यक्रमों- राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, कॉमर्स आदि में प्रवेश लेने वाले छात्रों की पिछले कुछ वर्षों की सूची देखने से इस आरोप की पुष्टि हो जाती है। इसवर्ष का हिन्दू कॉलेज के राजनीति शास्त्र विभाग का मामला सबसे रोचक है। वहाँ अनारक्षित श्रेणी के अंतर्गत कुल 20 सीटों पर प्रवेश होना था, लेकिन 26 छात्रों को प्रवेश देना पड़ा क्योंकि सभी के 100 फीसदी मार्क्स थे। ये सभी छात्र केरल बोर्ड से 100 फीसदी मार्क्स लेकर आए हैं।

एक वामपंथी रुझान के टी वी चैनल (NDTV) ने दिल्ली विश्वविद्यालय की पहली कटऑफ में हुए दाखिलों के आँकड़े देते हुए इस आरोप का खंडन किया है। इस चैनल ने बताया है कि पहली कटऑफ के बाद कुल 31172 दाखिले हुए हैं। इनमें से केरल बोर्ड के 2365, हरियाणा बोर्ड के 1540 और राजस्थान बोर्ड के 1301 दाखिले हुए हैं। आँकड़ों की इस बाजीगरी में यह तथ्य छिपा लिया गया है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेजों के सर्वाधिक लोकप्रिय पाठ्यक्रमों की आधे से अधिक सीटों पर अकेले केरल बोर्ड के छात्रों ने ही प्रवेश लिया है। एक तथ्य यह भी है कि प्रवेश लेने वाले केरल बोर्ड के इन छात्रों में आधी संख्या मुस्लिम समुदाय के छात्रों की है।

उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि इस वर्ष केरल बोर्ड के 234 छात्रों ने 100 फीसदी अंक और 18510 छात्रों ने ए+ ग्रेड प्राप्त की है। सीबीएसई के मात्र एक छात्र के ही 100 फीसद अंक आए हैं। जबकि सीबीएसई से परीक्षा देने वाले छात्रों की संख्या केरल बोर्ड से दसियों गुना अधिक है। इस वर्ष केरल बोर्ड के 700 छात्रों ने बेस्ट फोर (जिसके आधार पर कट ऑफ निर्धारण होता है) में 100 फीसद अंकों के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय में आवेदन किया है। साथ ही, केरल बोर्ड के कुल आवेदक 4824 हैं जिनमें से अधिसंख्य के अंक 98 प्रतिशत या उससे अधिक हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय में यह ट्रेंड पिछले 3-4 वर्षों में क्रमशः बढ़ता गया है। इस वर्ष इसकी इन्तहा ही हो गई है। दिल्ली विश्वविद्यालय के अनेक शिक्षकों ने ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ इस बात की पुष्टि की है। अनेक प्राध्यापकों ने यह भी बताया है कि 100 फीसदी मार्क्स लाने वाले इन छात्रों को विषय की बहुत कम समझ होती है और उन्हें अंग्रेजी और हिंदी दोनों ही भाषाएँ समझ न आने के कारण कक्षा में ‘संप्रेषण के अभूतपूर्व संकट’ का सामना करना पड़ता है। इसीलिए केरल बोर्ड से 100 फीसदी अंक लाने वाले छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में जैसे-तैसे उत्तीर्ण हो पाते हैं। ये तथ्य केरल बोर्ड की मूल्यांकन प्रणाली को संदिग्ध बनाते हैं।

यह महज संयोग नहीं है कि दिल्ली के ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पिछले 3-4 साल में मार्क्सवादी विचारधारा कमजोर हुई है और वहाँ इस विचारधारा के छात्रों की आमद क्रमशः कम हुई है। इससे दिल्ली विश्वविद्यालय को मार्क्सवादी विचार की नई आश्रयस्थली या पौधशाला में बदला जा रहा है। पिछले कुछ सालों में दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनावों में वामपंथी छात्र संगठनों को मिलने वाले मतों में क्रमशः बढ़ोतरी भी इस ओर इशारा करती है।

दिल्ली विश्वविद्यालय एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है। उसमें प्रवेश लेने का अधिकार देश के प्रत्येक राज्य और बोर्ड के छात्रों को है। क्षेत्र, धर्म या बोर्ड के आधार पर किसी को भी उपेक्षित या वंचित नहीं किया जा सकता है। लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि किसी बोर्ड से पढ़ने या राज्य विशेष का निवासी होने का नाजायज़ फायदा भी किसी को नहीं मिलना चाहिए क्योंकि इससे अन्य योग्य अभ्यर्थियों की हकमारी होती है। उत्तर प्रदेश बोर्ड की सख्त मूल्यांकन प्रणाली के शिकार छात्र इसके उदाहरण हैं। अगर कोई सरकार सुचिंतित तरीके से विचारधारा विशेष के प्रचार-प्रसार के लिए ऐसा कर रही है तो यह अनुचित, आपत्तिजनक और निंदनीय है।

मार्क्स के सहारे मार्क्सवाद का प्रचार-प्रसार संभव नहीं होगा। विचारधारा के प्रसार का यह शॉर्टकट अल्पजीवी और अस्थायी होगा। वस्तुतः यह राज्य की नौजवान पीढ़ी के भविष्य और अपने संवैधानिक दायित्वों के साथ खिलवाड़ है। इससे अन्य बोर्डों में भी इसतरह की प्रवृत्ति बढ़ेगी। अधिकाधिक अंक देकर अपने बोर्ड के छात्रों को दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में ज्यादा से ज्यादा संख्या में प्रवेश दिलाना उनकी प्राथमिकता बन जाएगी। इससे शिक्षा व्यवस्था और मूल्यांकन प्रणाली और भी अधोमुखी हो जाएगी। निश्चय ही, इसके लिए छात्र-छात्राओं को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। वे बेचारे तो बोर्ड परीक्षा रूपी व्यवस्था के ‘गिनीपिग’ हैं।

हालिया विवाद के केंद्र में भले ही केरल बोर्ड या केरल से आने वाले छात्र हों, लेकिन लगभग एक दशक से उदार मूल्यांकन और अत्यधिक बढ़े हुए अंकों की प्रवृत्ति केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के साथ-साथ अधिसंख्य राज्य बोर्डों में भी दिखाई दे रही है। यह अत्यंत चिंताजनक है। अध्ययन-अध्यापन और जीवन में अंकतालिका के बढ़ते महत्व ने तमाम चुनौतियाँ पैदा की हैं। सबसे पहले तो इसने पढ़ने-पढ़ाने का आनन्द समाप्त कर दिया है। यह प्रक्रिया मशीनी हो गई है। सीखने और समझने की जगह पूरा ध्यान अंक लाने पर केन्द्रित हो गया है। इससे छात्रों के ऊपर अत्यंत दबाव और तनाव हावी हो गया है।

बच्चों और उनके माता-पिता के लिए बोर्ड परीक्षा (खासतौर पर बारहवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा) अत्यंत खौफनाक अनुभव हो गई है। यह किले को फतह करने जैसी उपलब्धि बन गयी है। अगर कोई छात्र बहुत अच्छे अंक नहीं ला पाता है तो उसके माता-पिता को उसके जीवन के बर्वाद होने की आशंका सताने लगती है। ये अंक उन्हें न सिर्फ सफलता और संभावनाओं की राह खुलने की आश्वस्ति देते हैं, बल्कि उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में भी इजाफा करते हैं। माता-पिता अपने बच्चों को अपनी असफलताओं और अधूरे सपनों को पूरा करने का माध्यम बनाये जा रहे हैं।

आज तोतारटंत शिक्षा का बोलबाला है। इस अंक केंद्रित व्यवस्था में रचनात्मकता, आलोचनात्मक चिंतन और विश्लेषण क्षमता के विकास का कोई अवकाश या अवसर नहीं है। एक पूरी की पूरी पीढ़ी और पूरा का पूरा देश इस चूहादौढ़ की चपेट में है। कोई इस कहावत को नहीं सुनना चाहता कि यदि कोई चूहादौढ़ जीत भी ले, तब भी वह चूहा ही रहेगा। विडम्बनापूर्ण ही है कि पेरेंटिंग का मापदंड बोर्ड परीक्षा के अंक बन गए हैं। बच्चे ने कितना और क्या ज्ञान अर्जित किया, क्या संस्कार सीखे, एक जिम्मेदार नागरिक और बेहतर मनुष्य के रूप में उसका कितना और कैसा विकास हुआ: इससे किसी को कुछ भी लेना-देना नहीं!

माता-पिता, समाज, शिक्षण संस्थान और सरकार का ध्यान और ध्येय बच्चे की मार्क्सशीट में अधिकाधिक अंक दर्ज कराने पर है। मार्क्स का अत्यधिक महत्व बढ़ जाने से अभिभावकों से लेकर शिक्षक, विद्यालय और स्वयं छात्र अत्यंत दबाव में हैं। इसलिए अवसाद आदि तमाम मानसिक विकार और आत्महत्या जैसे विचार छात्रों में लगातार बढ़ रहे हैं। अधिकाधिक मार्क्स लाने की विकृत प्रतिस्पर्धा ने छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों का रोबोटीकरण कर दिया है। हर बोर्ड में सैकड़ों की संख्या में छात्र 100 फीसदी अंक ला रहे हैं।

100 फीसदी या उसके आसपास अंक प्राप्त करने वाले छात्र खुद की सर्वज्ञता का अहं पाल बैठते हैं। उनमें कुछ नया सीखने या करने की कोई चाहत या कोशिश भी नहीं रहती। निश्चय ही, यह शोचनीय स्थिति है और इसे तत्काल दुरुस्त करने की आवश्यकता है। इसके लिए देशभर में एक स्तरीय, समावेशी और समान मूल्यांकन प्रणाली लागू करनी होगी। मूल्यांकन में सततता और समग्रता आवश्यक है।

पिछले दिनों शिक्षा मंत्रालय ने राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनटीए) द्वारा सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश हेतु केंद्रीकृत परीक्षा आयोजित करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। इससे कुछ हद तक समस्या का समाधान होगा। लेकिन कोचिंग आदि की प्रवृत्ति बढ़ने की भी आशंका है। गाँव और गरीबों के बच्चे इस प्रवेश परीक्षा में कैसे और कितनी भागीदारी कर सकेंगे, इसपर चिंतन आवश्यक है। इन छात्रों के हित-संरक्षण के लिए स्तरीय और वहनीय उच्च शिक्षा का व्यापक विस्तार करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही, मातृभाषा में उच्च शिक्षा देने का भी प्रबंध करने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में इस दिशा में ठोस प्रावधान किए गए हैं।

(लेखक जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं।)

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प्रो. रसाल सिंह
प्रो. रसाल सिंह
प्रोफेसर और अध्यक्ष के रूप में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। साथ ही, विश्वविद्यालय के अधिष्ठाता, छात्र कल्याण का भी दायित्व निर्वहन कर रहे हैं। इससे पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में पढ़ाते थे। दो कार्यावधि के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद के निर्वाचित सदस्य रहे हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-राजनीतिक और साहित्यिक विषयों पर नियमित लेखन करते हैं। संपर्क-8800886847

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