मेरे मित्र प्रवीण जी ने लिखा कि बिहार के इस मुज़फ़्फ़रपुर बालिका शेल्टर होम कांड पर सारे मीडिया वाले चुप हैं। उन्होंने मुझे भी कोसा कि मैंने एक एडिटर के तौर पर क्या किया, मैं इस चुप्पी का हिस्सा क्यों हूँ जबकि मैं बिहार का हूँ और इस स्थिति में हूँ कि दस लोग मेरी बात सुन और पढ़ सकें। आख़िर ये ख़बर मुझ तक ख़बर बन कर ही क्यों पहुँची वो भी तब जब सीबीआई ने इस पर कुछ किया।
ये सारी बातें सही हैं। कई बार कुछ चीज़ें इतनी आम हो जाती हैं कि एक पत्रकार के रूप में आपकी संवेदनाएँ या तो मर जाती हैं, या कहीं खो जाती हैं क्योंकि आपको हर आतंकी हमले के बाद लिखना होता है कि कितने वीरगति को प्राप्त हुए; आपको हर बलात्कार की ख़बर पर उस कहानी को दोहराना होता है जो आप नहीं चाहते; आपको हर ऐसे शेल्टर होम कांड पर, चाहे देवरिया हो या मुज़फ़्फ़रपुर, उन बच्चियों की चीख़ को दबा कर उनकी कहानी कहनी होती है। पेशे की यह मजबूरी है जिससे हर पत्रकार का सामना होता रहता है।
ब्रजेश ठाकुर की मुस्कुराहट आपको बहुत कुछ कहती है। ब्रजेश ठाकुर इसी मुज़फ़्फ़रपुर शेल्टर होम, या बालिका आसरा गृह, का सर्वेसर्वा है। पुरानी ख़बरों के अनुसार, मई 2018 में इस जगह से बहुत बड़ी ख़बर सामने आई जिसमें वहाँ की 42 बच्चियों में से 34 के साथ सेक्सुअल अब्यूज, यानी यौन शोषण, मेडिकली कन्फर्म हुआ। आज की ख़बर है कि जो 11 बच्चियाँ गायब थीं, उनकी शायद हत्या कर दी गई हो।
आप सोचिए कि 11 एक संख्या नहीं है। वो भले ही अनाथ हों, या घर से गायब कर दी गई हों, या उनके परिवार वालों से किसी भी ग़ैरक़ानूनी तरीके से दूर कर दी गई हों, इन बच्चियों के जीवन की भी अहमियत है। अहमियत इसलिए है कि सरकारों की एक बुनियादी ज़िम्मेदारी होती है राज्य या देश के नागरिकों को एक बेहतर जीवन प्रदान करना। इन मौतों की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं की है।
लालू और राबड़ी के दौर को तो हर बिहारी अनंत काल तक जंगलराज का पर्याय कहता रहेगा, लेकिन हमने नीतीश के भी पंद्रह साल देख लिए। एक बिहारी के तौर पर अगर क़ानून-व्यवस्था की बात की जाए तो बहुत ज़्यादा अंतर नहीं आया है। भले ही राजनैतिक हत्याओं का सिलसिला थम गया हो (हालाँकि जब लालू के साथ गठबंधन था तो क़रीब 578 लोगों की हत्या सिर्फ़ पहले दो महीने में हुई थी), और अपहरण का संगठित रोज़गार ख़त्म हो चुका हो, लेकिन अपराधों में कोई बड़ी कमी तो नहीं आई है। सुशासन का एक बड़ा हिस्सा क़ानून-व्यवस्था है, जिसमें नीतीश पूरी तरह से विफल रहे हैं।
आख़िर ब्रजेश ठाकुर जैसे लोग पुलिस की गिरफ़्त में भी मुस्कुराते क्यों हैं? ये मुस्कुराहट पावर के क़रीब होने की गर्मी से आती है। यूँ तो इस कांड में किसी भी बड़े नेता का नाम नहीं आया है, लेकिन जिस तरह की चुप्पी छाई रही है, संभव है कि इसके तार बिहार के बड़े नामों से जुड़े हों। इन नामों में नेता से लेकर तीनों स्तम्भों के वफ़ादार शामिल हो सकते हैं। अगर ऐसा नहीं है तो फिर इतने बड़े कांड पर चुप्पी क्यों है? इस पर मीडिया स्टूडियो में चर्चा क्यों नहीं हो रही?
अगर नीतीश भाजपा का क़रीबी है तो भाजपा-विरोधी मीडिया इसमें रुचि क्यों नहीं दिखाती? इस पर तो घेर कर सरकार गिराई जा सकती है। इसी कारण मैं यह लिख सकता हूँ कि इनमें जो नाम होंगे वो बहुत बड़े नाम होंगे। बड़े नामों तक सेक्स की निरंतर सप्लाय की भी बातें गुपचुप तौर पर होती रही हैं। दबी ज़ुबान में बहुत सारी बातें कही जाती हैं कि फ़लाँ अधिकारी ऐसा है, फ़लाँ नेता को हर रात लड़की चाहिए, फलाँ साहब को बिना सेक्स नींद ही नहीं आती, फलाँ आदमी का होटल में कमरा बुक रहता है…
कहने को तो यह सब पब्लिक इमेजिनेशन है, कोरी अफ़वाह है। मैं भी इस पर बहुत कुछ नहीं लिख सकता क्योंकि न तो मेरे पास सबूत हैं, न ही मैंने बालिका गृह जाकर किसी से बात करने की कोशिश की है। मेरे लिए मेरी तार्किकता यही कहती है कि आख़िर सुप्रीम कोर्ट को नीतीश कुमार पर बरसने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? आख़िर कठुआ की एक पीड़िता पर इतना बवाल होता है तो फिर यहाँ 11 बच्चियाँ गायब हैं, या मृत हैं, 34 का बलात्कार होता रहा है, और इस पर कोई चर्चा ही नहीं हो रही!
ब्रजेश ठाकुर अपनी गिरफ़्तारी में जिस मुस्कुराहट के साथ कोर्ट पहुँचता है वो सत्ता के मुँह पर थूकने जैसा है। सत्ताधीश भी उस थूक को पोंछ ही सकता है, क्योंकि उसमें सामर्थ्य नहीं कि ऐसे दरिंदों पर नकेल कसी जाए। क्या सत्ता के लोकतांत्रिक नेता इस बात से डर रहे हैं कि ब्रजेश ठाकुर का मुँह खुला तो बहुत लोगों के नाम बाहर आ जाएँगे?
यह बात भी जान लीजिए कि किसी दिन ब्रजेश ठाकुर ही मरा हुआ मिल सकता है। ख़ैर, उसकी मौत पर मुझे आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि ऐसे लोगों को क़ानूनन फाँसी ही मिलनी चाहिए जो छोटी बच्चियों को आसरे के नाम पर बलात्कार का शिकार बनाने से लेकर हर रात किसी की यौन कुंठा मिटाने भेज देता है। ऐसे लोगों को तो जो भी सज़ा मिले कम ही होगी।
इस बात का दूसरा पहलू यह भी है कि भारत ही नहीं, दुनिया के तमाम देशों में चाइल्ड शेल्टर होम में सेक्स का कारोबार ख़ूब होता है। मजबूर, बेसहारा बच्चियों और युवतियों की ब्लैकमेलिंग, चर्चों से लेकर इस तरह के एनजीओ संचालित आसरा गृहों में ख़ूब होती है। चूँकि सरकारी तंत्र पूरी तरह से इन मामलों में विफल रहा है, ज़रूरत है कि सुप्रीम कोर्ट स्वतः संज्ञान लेकर, भारत के हर ज़िले के ऐसे शेल्टर होम की ऑडिटिंग करवाए और बच्चियों से बात करे कि उनके साथ क्या-क्या होता है।
जिनके पास कहीं जाने को नहीं, जिन्हें यह भी पता नहीं कि उनके साथ जो हो रहा है वो क्या हो रहा है, जिन्हें यह समझा दिया जाता है कि ज़िंदा रहने के लिए यह करना ज़रूरी है, वो आख़िर करेंगी भी तो क्या! हम जिस समाज में रहते हैं, वहाँ घरों में ही सौ में से 99 लड़कियाँ और कई लड़के यौनशोषण का शिकार होते रहते हैं। ऐसे समाज में एक छोटी बच्ची की क्या अहमियत जिसका परिवार भी नहीं है।
सरकारों और न्यायालयों से आग्रह है कि इन बच्चियों के माता-पिता बन कर, इन्हें न्याय दिलवाएँ। जो बच्चियाँ अब हमारे बीच नहीं हैं, उनके लिए विनम्र श्रद्धांजलि, लेकिन उन हज़ारों, या लाखों बच्चियों को इन शेल्टर होम्स के नरकों से मुक्ति मिले जहाँ हर पल कुछ न कुछ बहुत बुरा घटित हो रहा है। मेरा सबसे बड़ा डर यही है कि मीडिया के इस सन्नाटे के नीचे उन बच्चियों की चीख़ें गायब न हो जाएँ।
मेरी बाध्यता है कि मैं सिर्फ़ लिख ही सकता हूँ। मेरा काम है लिखना। मैं जज नहीं, मैं मंत्री नहीं। मैं एक आम नागरिक के तौर पर बस यह कह सकता हूँ कि इस पर वैसे लोग कुछ करें, जो करने की स्थिति में हैं। यह छोटी घटना नहीं है। घरों से बच्चियाँ गायब हो जाती हैं। मेले में जो बिछड़े हैं वो किसी ऐसे ही दरिंदे के ‘आसरा गृह’ में पहुँचा दिए जाते हैं। हमारे आँगनों से हमारी बहनें, बेटियाँ अचानक से गायब हो जाती हैं। जब कोई ख़बर आती है कि कहीं बिना शिनाख़्त की कुछ बच्चियों की हड्डियाँ पोटली में मिली हैं, तो दिल बैठ जाता है। वो मेरी बहन हो सकती थी, वो किसी की बेटी रही होगी।