अगर कोई भी, अभी भी, इस मुगालते में जी रहा है कि कश्मीर एक ‘राजनीतिक’ समस्या है, या ‘एक हाथ में कुरान, एक हाथ में कम्यूटर’ (माननीय प्रधान सेवक जी कृपया ध्यान दें) से आदिल अहमद डार बनाने की फैक्ट्री रोकी जा सकती है तो उसे ब्रिटिश अख़बार इंडिपेंडेंट में प्रकाशित डार के पिता का यह साक्षात्कार पढ़ना चाहिए- और बार-बार पढ़ना चाहिए; और तब तक पढ़ना चाहिए जब तक यह समझ में न आ जाए कि कश्मीर की समस्या ‘अलगाववाद’ नहीं, इस्लामी कट्टरपंथ है, और कश्मीर के लोगों में उबल रहा उफ़ान ‘anti-India’ नहीं, ‘anti-Hindu’ है।
‘कुछ गलत नहीं किया मेरे बेटे ने’
एडम विथनॉल से बात करते हुए डार के पिता गुलाम डार साफ़ कहते हैं कि उन्हें बेटे की मौत का ग़म भी है और पुलवामा हमले में बलिदान हुए सीआरपीएफ जवानों और उनके परिवारों से सहानुभूति भी, पर वह यह नहीं मान सकते कि उनके बेटे ने कोई गलती की है।
“यह (कश्मीर की) आज़ादी की लड़ाई है। हम (आतंकवादियों से) यह नहीं कह सकते कि वह गलत राह पर हैं… यह लड़ाई हमारी आज़ादी तक नहीं रुक सकती।”
आगे वह डार के आतंकवादी बन जाने का पूरा दोष भारतीय सेना के ‘अत्याचारों’ पर डाल देते हैं- और वह ऐसी घटनाओं का ज़िक्र करते हैं जिनका न सुबूत है न हो सकता है’ “उसके साथ सीआरपीएफ ने दुर्व्यवहार किया”, “उसके दोस्त को उसकी आँखों के सामने मार डाला।” (किस दोस्त को, वह यह नहीं बताते।)
बकौल गुलाम डार, “मुझे फ़िक्र नहीं कि बाकी दुनिया उसे क्या कह रही है। अपने लोगों के लिए वह शहीद है, उसके जनाज़े में 2-3 हज़ार लोगों की भीड़ थी।” और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि वह गलत नहीं कह रहे हैं।
आदिल अहमद डार का वीडियो, जिसमें वह ‘गौमूत्र पीने वाले काफ़िरों’ की बात करता है, ‘exodus’ के नाम पर कश्मीरी पण्डितों का नरसंहार, और याकूब मेमन-अफज़ल गुरू-बुरहान वानी से लेकर अब डार के जनाज़े में उमड़ा जनसैलाब- इन सब चीज़ों के बीच समानता है इस्लाम की वह आधारभूत विचारधारा, जो दार-उल-इस्लाम (इस्लामी उपासना-पद्धति की स्थापना और अल्लाह के अलावा किसी भी अन्य देवता की पूजा का खात्मा, शासन के ज़ोर से) को हर ‘सच्चे मुस्लिम’ के दुनियावी फर्ज़ों में ज़रूरी कर देती है।
जब आदिल डार के पिता “मुझे अपने बेटे पर फ़ख्र है, उसने जो कुछ किया अपने लोगों के लिए किया” कहते हैं तो वह किसी हाशिए पर पड़े अतिवादी की बोली नहीं, मुख्यधारा की समकालीन इस्लामी सोच को ज़ाहिर करते हैं।
‘भारत का सेक्युलर सिस्टम हमें कतई मंज़ूर नहीं’
2010 में दिए गए एक साक्षात्कार में कश्मीर के सबसे बड़े अलगाववादी नेताओं में शुमार सैयद अली शाह गीलानी साफ़-साफ़ कह चुके हैं (और यह पहली बार भी नहीं था) कि कश्मीर समस्या इस्लामी वर्चस्व की है, राजनीति की नहीं। वे जिन्ना के “हिन्दू-मुस्लिम दो अलग-अलग मुल्क हैं” को भी दोहराते हैं, “कश्मीर बनेगा पाकिस्तान” के उद्गार भी व्यक्त करते हैं, और भारत की पंथनिरपेक्षता को भी नकारते हैं। वे साफ़-साफ़ कहते हैं कि एक पंथनिरपेक्ष समाज में कोई भी सच्चा मुस्लिम अपने मज़हब को पूरी तरह नहीं निभा सकता।
“आखिर ऐसे कौन से तकाज़े हैं इस्लाम के जो हर एक इन्सान को अपने मज़हब को मानने की पूरी आज़ादी मिलने, और किसी भी एक मज़हब को हुकूमती ताकत न मिलने, पर पूरे नहीं हो सकते?”
इसी सवाल के जवाब में सारे जवाब छिपे हैं- बशर्ते ईमानदारी से ढूँढ़ने की नीयत हो!
पाकिस्तान में पिछले 70 सालों में हिन्दुओं का क्या हश्र हुआ, केरला के कन्नूर जिले में ईसाई पादरी के हाथ काटे जाना, शार्ली एब्दो, कमलेश तिवारी, बशीरहाट, हकीकत राय को चुनवाया जाना, शम्भाजी साहू के इस्लाम न स्वीकारने पर उनकी आँखें निकाल कर खाल उधेड़ दिया जाना, आइसिस का यज़ीदी लड़कियों को सेक्स स्लेव बनाना, कश्मीरी पण्डितों का नरसंहार, बामियान बुद्ध को ढहाया जाना- बानगियों की कमी नहीं है यह जानने के लिए कि आखिर एक सेक्युलर समाज में ऐसी क्या कमी है जो गीलानी को वह मंज़ूर नहीं, और जिससे कश्मीर को आज़ाद कराने के लिए बुरहान वानी और आदिल डार ने जान लेने और देने में कोई संकोच नहीं किया।
और अगर आपको यह सब अतिवादी ‘fear-mongering’ लग रहा है तो ऊपर जाकर गीलानी का इंटरव्यू खोल कर पढ़ ही लीजिए।
इस्लाम अपने लोगों में ही नहीं, अपने आस-पास भी गैर-इस्लामी चीज़ें जैसे शराब, अनैतिकता, आदि बर्दाश्त नहीं कर सकता, यह हम नहीं, खुद गीलानी कह रहे हैं। इस्लामी कायदे के मुताबिक, गीलानी कहते हैं, इस्लामी हुकूमत की स्थापना की भरसक कोशिश हर सच्चे मुस्लिम के लिए उतनी ही ज़रूरी है जितना कि गरीबों को दान-पुण्य। सम्प्रदायों के बीच अमन इस्लाम के लिए बस उतना ही ज़रूरी है जितना इस्लाम के फैलाव के लिए ‘सही माहौल’ बनाने में सहायक हो।
कश्मीरी मुस्लिमों के बीच खासा असर रखने वाले गीलानी हालाँकि “दार-उल-इस्लाम में गैर-मजहबियों के मज़हबी जज्बातों का ख्याल रखा जाएगा” का खोखला दावा ज़रूर करते हैं, पर पाकिस्तान की निंदा वह हिन्दुओं और अन्य गैर-इस्लामी मज़हबों की हिफ़ाज़त और इज़्ज़त न कर पाने के लिए नहीं करते, बल्कि इसलिए कि पाकिस्तान अमेरिका की गोद में जा बैठा है।
दोहरी नागरिकता
“आम तौर पर हर मुस्लिम दो देशों का नागरिक होता है- एक उस देश का जिसका वह राजनीतिक रूप से नागरिक होता है, और दूसरा मुस्लिम ‘उम्माह’।” इस्लामिक कट्टरपंथ के खिलाफ़ लड़ रहे ईरान में जन्मे आस्ट्रेलियाई इमाम तौहीदी टॉक शो होस्ट डेव रूबिन से बात करते हुए समस्या को रेखांकित करते हैं। “जब दुनिया के किसी भी कोने में बैठा कोई भी मुल्ला किसी का सर कलम कर देने का फ़तवा जारी करता है तो वह अँधेरे में तीर नहीं मार रहा होता है। उसे यह पता होता है कि उसके इस फ़तवे को पूरा करना किसी न किसी मुस्लिम का फ़र्ज़ होगा।”
आदिल अहमद डार ऐसे ही किसी फ़तवे को पूरा कर रहा था, ऐसे ही किसी उम्माह की नागरिकता का फ़र्ज़ निभा रहा था, क्योंकि हिन्दुस्तानी हुकूमत के सैनिकों की मौजूदगी उसके लोगों को काफ़िरों को सही राह पर लाने या दोज़ख़ की राह पर रवाना करने से रोक रही थी।
एकतरफ़ा सेक्युलरिज्म
हिंदुस्तान का सेक्युलरिज्म एकतरफ़ा है और सियासतदान शुतुरमुर्गों की तरह रेत में सर गाड़कर सोच रहे हैं आसमान को फ़टने से रोक लेंगे। सेक्युलरिज्म दोतरफ़ा होता है- अगर सामाजिक कुप्रथा के नाम पर सती से लेकर सबरीमाला तक पर रोक लगाई जा सकती है तो “हिन्दू काफ़िर और काबिले-क़त्ल हैं” सिखाने वाली विचारधारा में शासकीय हस्तक्षेप से ‘एडिटिंग’ बहुत पहले हो जानी चाहिए थी।
कश्मीर की समस्या यह नहीं है कि वहाँ सेना ज़्यादा तादाद में मौजूद है, या किसी सरकार ने किसी चुनाव में धाँधली करवा दी, या किसी ‘भटके हुए नौजवान’ को पुलिस ने पीट दिया। अगर चुनावी धाँधली से अलगाववाद पनपता होता तो लालूराज झेल चुका बिहार 20-25 बार आज़ादी के नारे लगा चुका होता।
कश्मीर की समस्या यह है कि वहाँ इस्लामी कट्टरपंथी बहुमत में हैं। कश्मीर की समस्या यह है कि बहुतायत में कश्मीरी मुस्लिम भारत से ज़्यादा एक दूसरे राष्ट्र पाकिस्तान नहीं बल्कि इस्लामिक स्टेट पाकिस्तान के परस्त हैं- और कुरान और हदीथ में चाहे जो लिखा हो, कश्मीर का कट्टरपंथी यही मानता है कि उसका मज़हब उसे सेक्युलरिज्म का फ़ायदा उठाकर अपना दार-उल-इस्लाम का एजेण्डा बढ़ाए जाने की भी छूट देता है, और पलट कर गैर-मुस्लिम/काफ़िर के धर्मांतरण के लिए उनके देवताओं को गरियाने से लेकर उनकी औरतों का बलात्कार और आदमियों-बच्चों का क़त्ल कर देने की भी छूट।
आगे की राह
आगे की राह क्या है, यह हमें भी नहीं पता- सिवाय इसके कि समाधान ढूँढ़ने के पहले समस्या को ईमानदारी से और पूरी असुविधा के साथ देखने की ज़रूरत है; “इस्लाम बाकी और उपासना-पद्धतियों जैसा ही है”, “इस्लाम और पंथनिरपेक्षता के मूल्यों में कोई टकराव नहीं है” जैसे मुगालतों से निज़ात पाने की ज़रूरत है। तभी हम समाधान से बारे में सोच भी सकते हैं।
कट्टरपंथियों को पलट कर “या तो मज़हब छोड़ो, या मुल्क छोड़ो, या जान छोड़ो” की धमकी देना भी सही समाधान नहीं हो सकता। सुब्रमण्यम स्वामी का “मुस्लिम इस देश के नागरिक तभी हो सकते हैं जब वे अपने पूर्वजों का हिन्दू होना स्वीकार करें” भी सही जवाब नहीं है, क्योंकि गीलानी पासपोर्ट के लिए मुल्क और संविधान के प्रति निष्ठा की अधिकारिक कसम खा कर भी अपना जिहाद पूरी ताकत से छेड़े हुए हैं। इसके अलावा अगर आम मुस्लिम यह मान भी ले कि उसके पूर्वज हिन्दू थे तो जिहादी मानसिकता ‘कमीने काफ़िर’ का लेबल चस्पा कर उनसे अपने काफ़िर पूर्वजों का मानसिक परित्याग करवा ही देगी।
समाधान का एक हिस्सा यह हो सकता है कि व्यक्तिगत तौर पर मुस्लिमों के नागरिक अधिकारों पर कोई अतिक्रमण न करते हुए भी भारतीय धर्मों (शैव, शाक्त, सिख,वैष्णव, बौद्ध, जैन, इत्यादि ) और इस्लाम, तथा सेक्युलर भारतीय शासन पद्धति और इस्लाम, के बीच मौजूद विसंगतियों को राजनीतिक, और उससे भी पहले सांस्कृतिक-बौद्धिक वर्ग, ईमानदारी से स्वीकारे। इसके बाद अगले चरण में इस विसंगति को संविधान में भी स्वीकार किए जाने की आवश्यकता है।
इसके बाद ही आगे ऐसे किसी भी समाधान की सम्भावना बन सकती है जिसकी परिणति अभी तक की विफलताओं से अलग हो।