Saturday, November 16, 2024
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बिहारी-गुजराती-तमिल-कश्मीरी किसान हो तो डूब मरो… क्योंकि किसान सिर्फ पंजाबी-खालिस्तानी होते हैं, वही अन्नदाता हैं

आम जन के लिए संभव है कि इन ढाई महीनों के बीच में कई बार मन में ख्याल आया हो कि आखिर केवल गैर भाजपा शासित प्रदेशों से किसान इस आंदोलन का हिस्सा क्यों हो रहे हैं। अगर नए कृषि कानून इतने ही गलत हैं तो एक कृषि प्रधान देश से तो फिर कोने-कोने से आंदोलन होने चाहिए और आपके कान में न तो कहीं अन्य जगह से आंदोलन की आवाज पहुँची न उस पर हुई मीडिया खबर!

किसानों की परिभाषा आज दिल्ली की सीमाओं से बैरिकेड तोड़कर लाल किला पहुँचने के बाद मानक बन गई है। अब से शायद किसान वही होगा जो पंजाब से संबंध रखता होगा और जिसकी विचारधारा में खालिस्तानी भी खुद को जुड़ा हुआ महसूस कर पाएँगे। यदि इसके अलावा कोई राजस्थान, मध्यप्रदेश, कश्मीर, तमिलनाडु, यूपी, बिहार का किसान खुद को ‘अन्नदाता’ कहता पाया गया तो उसे वामपंथी व मीडिया गिरोह वहीं खबरदार कर देगें।

आखिर इतने दिनों से जो नैरेटिव इस गिरोह ने भुनाया उसका अंत इतने सारे राज्यों के अन्नदाता चुप बैठके कर दें! ये कैसे हो सकता है? आज राष्ट्रीय राजधानी में भड़की अराजकता देखने के बाद दूसरे राज्यों के कृषको को भले ही ये लगे कि अच्छा हुआ जो वो विपक्ष के भ्रम जाल में नहीं फँसे। 

लेकिन, गिरोह के लोगों के मुताबिक आज यही वो क्षण है जब दूसरे राज्य के किसानों को चेहरे पर संतुष्टि का भाव दिखाने से ज्यादा चुल्लू भर पानी में डूब मरने के लिए व्याकुल होना चाहिए। या मुमकिन हो तो खुद ही अपने ‘किसान’ होने की उपाधि उन प्रदर्शनकारियों को लाकर दे देनी चाहिए, जो खेती का ‘क-ख-ग’ न जानते हुए भी ढाई महीने से दिल्ली सीमा पर भीड़ बढ़ाते रहे और उनके कारण सोशल मीडिया पर एक दिशा में एजेंडा फलता-फूलता रहा।

इस बीच मध्यप्रदेश में जो किसानों ने नए कृषि कानूनों पर खुशी व्यक्त करके किसान कौम की थू-थू कराई है उसे तो शायद ही कभी ‘पूरे देश के अन्नदाता’ अर्थात दिल्ली की सीमाओं पर एकत्रित सच्चे किसान भुला पाएँ। राजस्थान में भी देखिए सत्ता में कॉन्ग्रेस होने के बावजूद पंचायत चुनाव में बीजेपी का बोल बाला हो गया। ये उन ग्रामीणों की अपनी कौम से दगाबाजी नहीं तो क्या है। आखिर कॉन्ग्रेस ने क्या कमी छोड़ी होगी भड़काने में! फिर भी अपने विवेक पर इस बात को समझ पाए कि उनके लिए कौन सी स्कीम सही है कौन सी नहीं।

आम जन के लिए संभव है कि इन ढाई महीनों के बीच में कई बार मन में ख्याल आया हो कि आखिर केवल गैर भाजपा शासित प्रदेशों से किसान इस आंदोलन का हिस्सा क्यों हो रहे हैं। अगर नए कृषि कानून इतने ही गलत हैं तो एक कृषि प्रधान देश से तो फिर कोने-कोने से आंदोलन होने चाहिए और आपके कान में न तो कहीं अन्य जगह से आंदोलन की आवाज पहुँची न उस पर हुई मीडिया खबर!

दरअसल, वास्तविकता ये है कि आप इतने दिनों से एक ऐसी भीड़ के जमावड़े को किसान का आंदोलन कहते रहे। जिसकी परिभाषा वामपंथी मीडिया गिरोह और विपक्षियों ने गढ़ी और जिसका पूरा ड्राफ्ट एक साल पहले हुए शाहीन बाग मॉडल के आधार पर तैयार हुआ।

तुलना कीजिए कि 1 साल पहले जैसे भारतीय मुसलमानों को इस बात को जानने में कोई दिलचस्पी नहीं थी कि सीएए/एनआरसी से भारतीय मुसलमानों का कोई नुकसान होगा। वैसे ही इस बार भी हालत यही है। तमाम राज्य के किसानों को मालूम है कि मंडी को लेकर आए नए नियम उन्हें अपनी आय तय करने की आजादी देंगे। मगर, दिल्ली सीमा पर प्रदर्शनकारी बार बार APMC और MSP को लेकर प्रश्न खड़े करते रहे। नतीजतन, धीरे-धीरे वहाँ इतनी भीड़ इकट्ठा हो गई कि कुछ लोग तो यही सोचने में लटक गए कि इतने सारे बुजुर्ग गलत थोड़ी हो सकते हैं।

गणतंत्र दिवस के दिन देश की राजधानी ने साल के साथ उन घटनाओं को दर्ज किया है जिसकी कल्पना भी कोई नहीं कर सकता था। बाहरी ताकतों से देश को बचाने के लिए सुरक्षाबल अलर्ट थे, लेकिन किसे उम्मीद थी ऐसा दंगा वो मचाएँगे जो कल तक शांतिपूर्ण ट्रैक्टर रैली निकालने की कसमें खा रहे थे। किसान एकता दिखाने की बात कर रहे थे।

ऐसा प्रदर्शन जिसमें कॉन्ग्रेस और आम आदमी पार्टी अपनी समांतर राजनीति करते रहे। वामपंथी कट्टरपंथी दिल्ली हिंसा के आरोपितों की रिहाई की माँग में जुट गए और खालिस्तानियों ने खुलेआम झंडा फहराहने पर इनाम घोषित कर दिया। तो सोचिए उस प्रदर्शन के क्या मायने थे और क्यों इसे जारी रखा जा रहा था? असली किसान की माँग ये तो नहीं होतीं।

यकीन करिए, आज दिल्ली के कोने-कोने से आ रही तस्वीर बिलकुल हैरान करने वाली नहीं है। शुरुआत में ही इस बात के कयास लग गए थे कि पिछले साल की भाँति कहीं इस साल भी राजधानी संघर्ष से न जूझे। आज वह अटकलें सही साबित हुईं। पहले पुलिस को झूठा आश्वासन देकर दिल्ली में एंट्री की गई। सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाया गया। फिर उन्हें घेर घेर कर मारा गया… मगर, सोशल मीडिया के क्रांतिकारियों के पास बात जब इस हिंसा के ख़िलाफ़ आपत्ति दर्ज कराने की आई तो मीडिया के एक तय ध़ड़े ने फिर मोर्चा संभालते हुए ये दिखा दिया कि पुलिस ने अन्नदाता पर हमला किया और बाद में वह भड़के।

आज जिन दिल्ली सीमा पर बैठे कथित किसानों के लिए मीडिया की संवेदनाएँ जिस तरह से निकल निकलकर बाहर आ रहीं है। वह क्यों मानेंगे कि आखिर यूपी बिहार, तमिल, और कश्मीर में भी खेती करने वाले अन्नदाता हैं जिन्हें अपनी ऊपज बेचने की चिंता उतनी ही है जितनी पंजाब के अन्नदाताओं को। उनके लिए तो वही सच है जिनसे उन्हें ब्रेकिंग न्यूज मिले।

मीडिया इतने दिनों से आपको ये दिखाने को आतुर है कि दिल्ली की ठंड में ठिठुरने वाले सैंक़़ड़ों किसानों की हालत की जिम्मेदार भाजपा है। लेकिन मीडिया आपको उनसे रू-ब-रू नहीं करवाएगा जो कृषि कानून आने से पहले भी और बाद में भी सुबह सुबह ठंड में घर से निकल कर रोज अपने खेत जाते हैं और जिनकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए मोदी सरकार पर्याप्त प्रयास कर रही है।

वो ये नहीं बताएगा आपको कि जो कॉन्ग्रेस इस मुद्दे पर किसानों को भड़का रही है, उसके अपने राज्य में कितने किसान कर्ज के तले दबकर सांस नहीं ले पा रहे। ये मीडिया आपको ये भी नहीं बताएगा कि मोदी सरकार कि प्राथमिकताओ में किसान का उत्थान सर्वोपरि है और जो कानून वो लेकर आए हैं वह दशकों की माँग थी ।

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