पिछले कई सदियों में भारत समेत पूरी दुनिया ने कई महामारियों का कहर देखा। कभी चेचक, कभी प्लेग तो कभी स्पेनिश फ्लू और आज कोरोना। हर बार महामारी शब्द तक पहुँचने के सफर में बीमारियों के शुरुआती बिंदु गंदगी और नासमझी जैसे कारण रहे। मगर, बाद में इनका प्रसार निश्चित ही एक तबके की वजह से हुआ। ये तबका गतिशील लोगों का था। ये तबका धनाकांक्षियों का था। ये तबका प्रवसन की क्षमता रखने वालों का था और इस तबके में नाविक, सैनिक, मिशनरी, प्रवासी, पर्यटक, व्यापारी सब आते थे। इतिहास गवाह रहा है कि जिनमें विदेशी शहरों तक जाने की क्षमता होती है, वही किसी भी महामारी के प्रथम वाहक होते हैं। हाँ बाद में इसका दोष स्थानीय गरीबों एवं मध्य वर्गीय लोगों पर मढ़ दिया जाता है। जैसे कोरोना के समय में हो रहा है।
सबसे पहले बात करें 14 वीं सदी में फैले प्लेग की। ये एक ऐसी बीमारी थी जिसने जब फैलना शरू किया तो यूरोप की आधी संख्या को निगल लिया। बताया जाता है एक समय में करीब 12 जहाज इटली (एक यूरोपीय शहर) के सिसली बंदरगाह पर पहुँचे। मगर, उससे कोई नीचे नहीं उतरा। इसके बाद लोगों ने अंदर जाकर देखा तो वहाँ लगभग सभी जहाज सवार मरे पड़े थे और इनमें से केवल कुछ ही जिंदा थे। शवों से भरा जहाज देखकर पहले तो लोग वहाँ हैरान हुए, मगर बाद में उन शवों को सामूहिक रूप से दफन कर दिया। इस समय तक वहाँ लोगों को ये नहीं मालूम था कि ये संक्रामक बीमारी है और उन शवों को छूने का नतीजा उन्हें लंबे अरसे तक भुगतना पड़ेगा। देखते ही देखते वहाँ के हालात बदतर हो गए। लोगों ने पहले घरों से निकलना बंद किया और बाद में घर के सदस्यों से मिलना-जुलना। उस समय खुद को अलग करने के सिवा कोई वहाँ के लोगों पर कोई चारा नहीं बचा। इस दौरान इस प्लेग को ब्लैक डेथ का नाम दिया गया। बाद में शोधों से पता चला कि ये चीन की देन थी, जो सिल्करूट के जरिए बंदरगाह तक पहुँचे थे।
बता दें, आज जिस कोरोंटाइन शब्द का प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है उसके बारे एक व्याख्या नाविकों से जुड़ी है, जो कहती है कि पहले गतिशील वर्ग का ये तबका खुद को महामारियों से बचाने के लिए जहाज खोलने और यात्रा के लिए प्रस्थान से पहले एकांतवास करते थे। उसे ही कोरोंटाइन कहा जाता था। हम कह सकते हैं कि इसका संबंध उनके गतिशील होने से था। मगर, प्लेग जैसी महामारियाँ एक समुदाय और वर्ग तक पहुँचने के बाद थमने का नाम कहाँ लेती हैं और इन्हें फैलाने वाले भी अपनी गलती कब मानते हैं? भारत की बात करें तो 1817 के आसपास प्लेग ने यहाँ भी महामारी का रूप लिया। इसे फैलाने की जिम्मेदार ब्रिटिश सेना की टुकड़ियाँ थी। जो एक राज्य से दूसरे राज्य घूमकर, इसे पसारते रहे। मगर, बाद में ब्रिटिश सैनिकों और व्यापारियों के जरिए ये इंग्लैंड पहुँच गया और वहाँ इसे भारतीय प्लेग नाम दिया गया। सोचिए, जो भारतीय जनता खुद इसकी पैसिव रेसिपिएंट थी, उन्हें इस चरण में जाकर इस बीमारी का प्रथम संवाहक बना दिया गया और उनकी बात दोयम दर्जे का।
ये ध्यान रखने वाली बात है महामारियाँ यात्रा करती हैं। उड़ान भरती हैं। और इसी माध्यम से वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर तबाही मचाती हैं। ये तबाही कभी युद्ध के रूप में जाती है। कभी व्यापार के रूप में। इसका कोई चेहरा नहीं होता। कोई आकार नहीं होता। पहले के समय में ये अच्छी बात थी कि हवाई सुविधा उपलब्ध न होने के कारण इन महामारियों को सुदूर इलाकों तक पहुँने में समय लगता था और कई बार कुछ गाँव-नगर इनके कहर से छूट भी जाते थे। मगर, अब तकनीक के जरिए दुनिया मुट्ठी में होने के कारण संक्रमण का काम आसान हो गया है।
दुनिया में बीमारियों के महामारी बनने तक का सफर उपनिवेशों की खोज और उनपर अपना साम्राज्य स्थापित करने की लड़ाई से शुरू हुआ और व्यापार के फैलाव के साथ इनका प्रसार भी तेज हुआ। इतिहास पर गौर करें, तो जैसे-जैसे उपनिवेशाद के कारण विस्थापन और प्रवसन की प्रक्रियाओं में तेजी आई वैसे-वैसे पूरी दुनिया को महामारियों ने जकड़ लिया। इसी बिंदु को इंगित करवाते हुए प्रोफेसर नोआ हरारी अपनी किताब में भी लिखते हैं कि यूरोपीय सभ्यताओं ने उपनिवेशवाद के दौर में हर जगह की मूल सभ्यताओं में बाहरी जीवाणु और तमाम वैसी बीमारियाँ ले गए जो ऐसी जगहों पर कभी नहीं थी। अपनी किताब “आने वाली कल का संक्षिप्त इतिहास” में वे हवाइयाँ द्वीप का जिक्र करते हैं और लिखते हैं कि 2 सदी पहले 18 जनवरी 1778 में एक ब्रटिश कैप्टेन जेम्ल कुक हवाईयाँ पहुँचा। उस समय वहाँ की संख्या 5 लाख के करीब थी। ये लोग यूरोपीय देशों और अमेरिका से कटकर रहते थे। मगर कुक ने वहाँ पहुँचकर पहली बार फ्लू, ट्यूबरक्लूसिस, सिफिलिस पैथोजन जैसी बीमारियों को फैलाया। इसके बाद अन्य यूरोपीय पर्यटकों ने यहाँ आकर टायफायड और स्मॉलपॉक्स का प्रसार किया। नतीजतन हवाई में 1853 तक केवल 70,000 सर्वाइवर जिंदा बचे।
इसके बाद स्पैनिश फ्लू के फैलने के पीछे भी यही हाल था। नोहा हरारी बताते हैं कि 1918 में अचानक उत्तरी फ्राँस में लोगों के मौत की खबरें आने लगीं। उनमें अजीब तरह का फ्लू देखा गया। बाद में इस फ्लू संक्रमक क्षमता देखकर इसे स्पेनिश फ्लू नामक महामारी का नाम मिला। ये इतनी खतरनाक थी कि इसने दुनिया भर के 5 करोड़ लोगों का निगल लिया था। और इसके फैलने का कारण भी वही लोग थे। जिनमें प्रवसन उस समय सबसे अधिक होता था यानी सैनिक टुकड़ियाँ। कह सकते हैं इस महामारी के तेजी से फैलने के पीछे विश्व युद्ध भी एक बड़ा कारण था।
इसी तरह, चेचक। 5 मार्च 1520 को जहाज़ों का एक छोटा-सा बेड़ा क्यूबा के द्वीप से मैक्सिको की ओर रवाना निकला। इन जहाज़ों में घोड़ों के साथ 900 स्पेनी सैनिक, तोपें और कुछ अफ़्रीकी गुलाम सवार थे। इनमें से एक गुलाम, फ्रांसिस्को दि एगिया था। जो अपनी देह पर चेचक के विषाणु को एक जगह से दूसरी जगह ले जा रहा है। हालाँकि फ्रांसिस्को को इसकी जानकारी नहीं थी, लेकिन उसकी खरबों कोशिकाओं के बीच वो घातक विषाणु कई लोगों को मौत की नींद सुलाने के लिए सफर कर रहा था। फ़्रांसिस्को के मैक्सिको में उतरने के बाद इस विषाणु ने उसके शरीर में तेज़ी के साथ बढ़ना शुरू कर दिया, और अन्ततः उसकी त्वचा पर भयावह फुँसियों के रूप में फूट पड़ा। जब उसमें इसके लक्षण दिखने शुरू हुए तो फ़्रांसिस्को को केम्पोआलान नगर स्थित एक स्थानीय अमेरिकी परिवार के घर पर बिस्तर पर ले जाया गया। जहाँ पहुँचकर उसने सबसे पहले उस परिवार के सदस्यों को संक्रमित कर दिया और उस परिवार ने अपने पड़ोसियों को। दस दिन के भीतर केम्पोआलान एक क़ब्रगाह में बदल गया। बाद में शरणार्थियों ने इस बीमारी को आसपास के नगरों तक फैला दिया। मगर फिर भी, कई प्रायद्वीपों के लोगों ने ये मान लिया कि ये बीमारी कुछ दुष्ट देवताओं की साजिश है जो उड़कर इस बीमारी को फैलाते हैं। यानी उस समय भी ये गतिशील वर्ग (चाहे फ्रांसिसकों या फिर शर्णार्थी) दोषी करार नहीं दिए गए।
इन उदाहरणों से गौर करिए कि पैनडेमिक के पीछे कभी भी गरीब, पिछड़े और आम जीवन व्यतीत करने वालों का हाथ नहीं रहा। इसके पीछे प्राय: धनी, सुदृढ़, प्रवासी, धनाकांक्षी, गतिशील लोग होते थे और आज भी स्थिति वही है। फिर चाहे देश में पहला कोरोना केस बना वुहान से लौटा केरल का छात्र हो या लंदन से लौटी कनिका कपूर। सब एक समृद्ध समाज का हिस्सा हैं। जिनके लिए आज यहाँ कल वहाँ एक आम बात है।
वुहान के अलावा अगर किसी भी देश की गरीब जनता इस समय कोरोना बीमारी का शिकार होती है। तो जाहिर है वह उसकी पैसिव रेसिपिएंट होगी। मगर, धीरे-धीरे उन्हें ही इसका मुख्य संवाहक बना दिया जाएगा। जैसे 18 वीं सदी में भारतीय प्लेग के दौरान किया गया। महामारी तो सैनिकों और औपनिवेशिक गतिविधियों से जुड़े आयरिश लोगों के माध्यम से फैली। लेकिन उसका सारा ठीकरा फूटा भारतीय जनता पर। ऐसे ही यूरोप और अमेरिकी भूखंड में भी हुआ। वहाँ तो कई बार महामारियों के प्रसार के लिए स्थानीय यहूदी समुदाय को जिम्मेदार बताया गया और इसके लिए उन्हें दंड भी दिया गया। कोरोना के समय में यही प्रक्रिया चालू है।
गौरतलब है कि ये पश्चिमी देशों की सनक ने न केवल युद्द, व्यापार, दुनिया की खोज करने वाले अभियानों को बढ़ावा दिया। बल्कि इनके साथ महामारियों को भी एक माध्यम दिया। जिसके जरिए ये सफर करती रहीं और मानवता को चपेट में लेती रहीं। इस गतिशील कहे जाने वाले वर्ग ने विभिन्न जीवनशैलियों का अलग-अलग देशों में लेन-देन कराया मगर साथ ही ये भी साबित किया कि इनके प्रवसन के साथ साथ समाज में सिर्फ़ धन और दूसरे देशों की जीवनशैलियाँ नहीं आतीं बल्कि इनके साथ बीमारी और महामारियाँ भी आती हैं। जो नई धरातल पर, नए लोगों को देखकर नया विस्तार पाती हैं।
याद दिला दें, महात्मा गाँधी ने अपनी दूरदर्शिता से इन्हीं परिणामों को आँका था। उन्होंने बीमारियों को महामारी में तब्दील होते देखा था। उन्होंने महसूस किया था कि एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए सुविधाएँ जितनी विकसित होंगी, उसके साथ ही विकसित होगी महामारी फैलने की तेज रफ्तार। शायद यही कारण था कि उन्होंने रेल कॉन्सेप्त से मन कचोटा। उनका मानना था कि रेल का इस्तेमाल न केवल ब्रिटिश अपनी पकड़ जमाने के लिए करेंगे बल्कि इससे महामारियाँ भी फैलेंगी और व्यापारी ही इसका लाभ उठा पाएँगे। आज हम संदर्भ में कोरोना से जूझते हुए इसकी बात की महत्ता को समझ सकते हैं।