शायद याद हो कि 2018 की 1 जनवरी को महाराष्ट्र के भीमा कोरेगाँव में क्या हुआ था। एक ऐतिहासिक युद्ध के 200 साल पूरे हुए थे, और हर बीते साल की तरह, इस साल भी एक खास जाति के लोग, अपने योद्धाओं की याद में एक छोटे आयोजन में भाग लेने के लिए जुटे। इनके दो सौ सालों के इतिहास में इस आयोजन में कभी भी किसी हिंसा का जिक्र नहीं है। लेकिन, जब वामपंथी नक्सली, माओवंशी कामरेड और घोर जातिवादी घृणा बाँटने वाले नव निर्वाचित विधायक जिग्नेश मवाणी का हाथ इसमें लगता है तो वहाँ पत्थरबाज़ी के कारण एक राहुल पतंगले की मौत हो जाती है।
उसके बाद जो हिंसा भड़कती है उसमें तीस पुलिस जवान समेत कई लोग घायल होते हैं और करीब 300 लोगों को हिरासत में लिया जाता है। उसके बाद प्रकाश अंबेडकर नामक एक व्यक्ति, जिसकी एकमात्र उपलब्धि भीम राव अंबेडकर का पोता होना है, वो इसमें कूद जाता है, और प्रदर्शनों का आह्वान करता है। पुलिस जाँच शुरू करती है और तब नए एंगल सामने आते हैं जो बताते हैं कि आखिर एक अहिंसक सम्मेलन, एक सुनियोजित हिंसक दुर्घटना का रूप कैसे ले लेती है।
अर्बन नक्सलियों के कुछ नेता पुलिस द्वारा पकड़े जाते हैं जिनका इस हिंसा को भड़काने से ले कर प्रधानमंत्री के हत्या की योजना बनाने तक में हाथ बताया जाता है। रोना विल्सन, वरावारा राव, अरुण फरेरा, सुधा भारद्वाज और गौतम नवलखा एक साथ पुलिस की छापेमारी के बाद धरे जाते हैं। उन पर केस चलता है, सुप्रीम कोर्ट उन्हें हाउस अरेस्ट में रखने की सलाह देती है।
अब ये समझिए कि दो साल पहले वहाँ ऐसा क्या हुआ था कि हर साल का शांत आयोजन हिंसक हो गया। हुआ यह कि जब शहरी नक्सलियों और दलितों के स्वघोषित नेताओं को पता चला कि दलित लोगों से संबंधित कुछ होने वाला है, तो उनके लिए यह वैसा ही मौका था जैसा कि खबरी गिद्ध राजदीप सरदेसाई संसद हमलों को मानते हैं: वैसा समय जब परिस्थितियाँ अनुकूल हों और आपकी बांछे खिला दें (जहाँ-जहाँ भी होती हैं)।
चूँकि, समुदाय विशेष को सत्तर साल पागल बनाने के बाद, नया मुस्लिम दलित है जिस पर एकमात्र नेत्री सुश्री मायावती जी का ही राज था, क्योंकि लालू टाइप के डकैत नेता सत्ता से बाहर हो चुके थे, तो दलित राजनीति को भड़काने के लिए जिग्नेश मवाणी टाइप के टुटपुँजिए लौंडों को एक दरार दिखी जहाँ वो पैर फँसा सकता था। विधायक बन कर तो वो हीरो बना, लेकिन नया-नया जोश उसे राष्ट्रीय परिदृश्य में स्थापित कर सकता था।
माओवंशी आंदोलन लाशें चाहता है
मवाणी को उन्हीं लोगों का साथ मिला जो सालों से इस देश के टुकड़े-टुकड़े करने से ले कर इनकी राह में आने वाले सारे लोगों को हटाने की योजना बना रहे थे। नरेन्द्र मोदी की हत्या इनकी योजना में शामिल थी। साथ ही, वामपंथी लम्पटों का जो टैम्पलेट है, आंदोलनों को सफल मानने का, उसके लिए हिंसा और कुछ लाशों की जरूरत पड़ती है।
तो इस दिन को अंग्रेजों और पेशवाओं की लड़ाई की जगह दलितों और ब्राह्मणों की लड़ाई के नाम पर प्रचारित किया गया, जो कि सर्वथा गलत है (जिस पर आगे चर्चा होगी)। और ब्राह्मणों के घुस जाने के बाद, आज के नैरेटिव में वहाँ ‘हिन्दुत्व’ घुसाया गया। हिन्दुत्व के आने से वैचारिक रूप से इन्हें उन आतंकियों का भी समर्थन मिल गया जो हिन्दुओं को हर दूसरे वाक्य में कोसते रहते हैं।
आंदोलन की रूपरेखा तो तैयार हो गई, स्टेज सज गया, वक्ता आ गए, लेकिन इससे आंदोलन सफल नहीं कहा जाता। वामपंथियों या भीम-मीम के आंदोलनों के नाम पर मासूम गरीबों को सड़क पर आगजनी करने को उकसाने वाले हमेशा कुछ लाशों की तलाश में रहते हैं। वो न सिर्फ हिंसा भड़काना चाहते हैं, बल्कि अपने ही लोगों से पेट्रोल बम फिंकवाते हैं, और भीड़ को कहते हैं कि देखो ब्राह्मणों ने बम फेंका तुम पर, तुम्हें 5000 सालों से सता रहे हैं, देखते क्या हो, यलगार हो!
भीड़ में आया गरीब, जो कि पिछले साल तक महार जाति के योद्धाओं के स्मारक पर पुष्प अर्पित करता था, आज यह पूछ भी नहीं पाया कि पत्थर फेंकने वाले, या आग का गोला फेंकने वाले ब्राह्मण ही हैं, यह कैसे पता चला? क्या उनकी तरफ की भीड़ में उन्हीं दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों में ब्राह्मण नहीं हैं? भारद्वाज कौन होते हैं? फिर भीड़ में पत्थर का जवाब पत्थर से देने को तैयार दलित गरीब पैदल सिपाही यह क्यों नहीं सोचता कि सामने भी तो कथित ब्राह्मणों के समर्थन में दलित भी खड़े हो सकते हैं?
लेकिन दंगाई सोच के शहरी नक्सिलयों और आतंकियों के पुरातन हिमायतियों ने उन्हें बताया कि यही तो उनके वंशज हैं जिन्हें तुम्हारे पूर्वजों ने धूल चटाई थी, वो अपना बदला लेने आ रहे हैं, टूट पड़ो। दलित टूट पड़ता है, कोई राहुल मारा जाता है, 16 साल का योगेश प्रह्लाद जाधव की हत्या होती है भीड़ में, 19 साल की दलित गवाह पूजा किसी कुएँ में मृत पाई जाती है। सैकड़ों घायल होते हैं उस एक हिंसक प्रदर्शन और उसके बाद के दंगों में।
उकसाने वालों में मिलिंद एकबोते और संभा जी भिड़े का नाम बताया जाता रहा जो कि माओ की नाजायज वामपंथी औलादों की हिंसक योजना का विरोध कर रहे थे। कहा गया कि इन्होंने ही हिंसा भड़काई जबकि जाँचों में पता चला कि वामपंथी गुंडे ठीक-ठाक समय से इस हिंसा की योजना बना रहे थे। वैसे भी, जहाँ माओवंशी कामपंथी आतंकी किसी योजना का हिस्सा हों, और उनकी योजना में दो-चार लाशें न गिरें, ऐसा संभव ही नहीं। पुणे पुलिस ने लगातार छापेमारी करके ऐसे उत्पाती योजनाकारों को पकड़ा जिन पर मामला चल रहा है।
दलितों के आंदोलन के नाम पर ऐसे ही, एक अफवाह के नाम पर, अप्रैल 2018 में नौ लोगों की जानें गईं जब दलित लोगों से यह कह दिया गया सरकार आरक्षण खत्म करने की योजना बना रही है। इन दंगों से जो नुकसान हुआ, वो किसका हुआ? न तो मवाणी का, न भीम आर्मी वाले रावण का, न उन नेताओं का जिन्होंने पैसे दे कर गरीब लोगों के हाथों में पेट्रोल से भींगी मशालें दीं, और कहा कि आग लगा दो। कानूनी केस किन पर चल रहे हैं? लेकिन पैदल सिपाहियों की कमी नहीं दिखती।
इनके हर आंदोलन में आम नागरिक की लाश की जरूरत होती है, और अगर वो स्वतः पूरी न हो रही हो, तो हाल के फर्जी प्रदर्शनों की तरह, आपस में ही देसी कट्टे से गोली मार कर पूरी कर दी जाती है। ये पैटर्न है। लोगों का मरना हर वामपंथी, या भीम-मीम आंदोलन की एक जरूरत है, जहाँ वो जरूरत ये लोग आपस में भी पूरी कर लेते हैं। इनके नेता स्टेज से भाषण दे कर भावनाएँ भड़काते हैं, इन्हें फर्जी बात सिखाई जाती है कि पाँच हजार सालों से तुम्हें सताया जा रहा है। कोई मुझे एक दस्तावेज ला कर दिखा दे जहाँ ऐसा लिखा हो कि ‘जाति’ जैसी कोई चीज थी भारत में मुगलों और अंग्रेजों के आने से पहले, या यह कि उनके साथ दुर्व्यवहार होता था।
इससे इनकार नहीं कि बाहरी आक्रमणकारियों और मुग़ल आतंकियों के यहाँ बस जाने के बाद जातिगत भेदभाव हमारे समाज में आया और हम उसकी आग से आज भी झुलस रहे हैं। जिस मनु स्मृति का जिक्र ये चम्पक हमेशा करते हुए, लोगों को मनुवादी कहते हैं, उन्हें पता भी है कि उसके 100,000 श्लोकों वाली इस स्मृति के संक्षिप्त रूपों में अब न सिर्फ 4,000 श्लोक ही बचे हैं, बल्कि उस पुस्तक की प्रतियाँ बहुत खोजने पर ही किसी घर में मिले। किसी ‘वाद’ को पकड़ने के लिए कम से कम उस आदमी को जानना तो पड़ेगा, उसकी बातें तो जाननी होंगी? दुर्भाग्य यह है कि दूसरों को मनुवादी कहने वालों से दो श्लोक पूछ दीजिए दाँत निपोड़ देगा, और जिसको कहते हैं, उससे भी पूछिए तो वो भी यही कहेगा कि इन भीम-मीम की नौटंकियों से पहले उन्होंने मनु स्मृति का नाम भी नहीं सुना था।
लेकिन उसी मनुवाद के नाम पर इन्हें भड़का कर दंगा कराया जाता रहा है, आगे भी कराया जाता रहेगा। मरेंगे भी वही लोग, मारेंगे भी आपस में ही, नेता तो विधायक बन जाएगा, उसके बाद चुप बैठा रहेगा।
भीमा-कोरेगाँव में हुआ क्या था?
1818 की पहली जनवरी को ईस्ट इंडिया कम्पनी और पेशवा बाजीराव द्वितीय के बीच एक युद्ध हुआ। इस युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से पेशवा की सेना से लड़ने वाली टुकड़ी में कथित तौर पर दलित योद्धा थे, जिसे महार रेजिमेंट कहा जाता है। ये पूर्णतः सहमत होने वाली बात है, और इसका जिक्र भी है कि इस टुकड़ी में वाकई कथित निचली जातियों के सैनिक थे। इसी कारण इस युद्ध को ‘दलितों ने जब उच्च जाति के शोषक, उत्पीड़क ब्राह्मण पेशवा को हराया’ के रूप में आज कल प्रचारित किया जाता है।
लेकिन सच्चाई इससे बहुत दूर है। ये कोरी गप्पबाजी और बकवास है, चाहे तार्किक रूप से देखें, या तथ्यों को सामने रखा जाए। इनका मानना है कि पेशवा ब्राह्मण थे, तो उसकी अंग्रेजों के हाथों हुई हार को इसलिए दलितों की जीत कहा जाए क्योंकि लड़ने वाले दलित सिपाही थे। अब इसमें समस्या जो है, वो यह है कि दलित सैनिक यहाँ किसी स्वतंत्र टुकड़ी के सिपाही नहीं थे, बल्कि वो ईस्ट इंडिया कम्पनी की एक टुकड़ी के सिपाही थे, जिसमें उनके अलावा और भी धर्म-मजहब-जाति के सैनिक थे।
ऐसा किसी दस्तावेज में नहीं लिखा है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के बॉम्बे नेटिव इन्फैंट्री, जो पेशवा से लड़ी, उसमें पूरा तो छोड़िए अधिकतर भी दलित थे। कुछ रहे होंगे, संभव है लेकिन आज भी रेजिमेंट के नाम होने का मतलब यह नहीं होता कि सिख रेजिमेंट में सिख ही होते हैं। 1932 में अंबेडकर ने स्वयं यह माँग रखी थी कि महार समुदाय के ज्यादा सैनिकों को सेना में जाने का मौका मिलना चाहिए।
आप जब युद्ध में जाते हैं तो आप पाकिस्तान को हराना चाहते हैं, आप किसी भी धर्म के भारतीय सैनिक हों, निशाने पर पाकिस्तान का झंडा होता है न कि मजहब। उसी तरह, यह मानना मूर्खता है कि ब्रिटिश की तरफ से लड़ने वाले दलित ये सोच कर लड़ रहे होंगे कि आज तो पेशवा के ब्राह्मणवाद को ऐसी धूल चटाएँगे कि 2019 में इसकी वैचारिक सहमति वाले मनुवादियों की सरकार ही न आ पाए। ऐसा नहीं होता।
एक पल को चलिए मान लेते हैं कि वो खुन्नस में थे कि पेशवा ब्राह्मण है, तो उसे हराना एक निजी संतुष्टि देगी और उसके सैनिकों को मारना दलित अस्मिता के नए कीर्तिमान रचेगा। लेकिन जितना सच यह है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के झंडे के लिए दलित लड़ रहे थे, उतना ही बड़ा सच यह है कि पेशवा की सेना में अरबी (मुस्लिम) थे। इसकी चर्चा कई जगहों पर, अंग्रेजों द्वारा लिखे गए इतिहास में ही है। तो कायदे से तो ये लड़ाई या तो अंग्रेजों ने मराठा पेशवा के साथ लड़ कर जीती, या फिर दलित सैनिकों ने मुस्लिम सैनिकों का गला रेत कर ये जीत हासिल की।
इसे आधे तर्क के साथ देखना बस यही बताता है कि आप कह देंगे कि मैकग्राथ खराब क्रिकेटर है क्योंकि उसकी बैटिंग एवरेज तो ऋषभ पंत से भी खराब है। फिर आपको पंत की बॉलिंग एवरेज और औसत भी तो देखना होगा। वो आप नहीं करेंगे क्योंकि इधर दलित सैनिक है, उधर ब्राह्मण पेशवा का झंडा! या तो झंडा बनाम झंडा तौलिए, या फिर सैनिक बनाम सैनिक। अगर यह कम है तो रामचंद्र क्षीरसागर की पुस्तक ‘दलित मूवमेंट इन इंडिया एंड इट्स लीडर्स, 1857-1956’ में यह भी लिखा है कि महार जाति के सैनिक मराठा के लिए भी लड़ा करते थे।
इसलिए, वामपंथियों के नैरेटिव से बचिए क्योंकि वो कब किसको कट्टे से मार कर आपकी जाति का हीरो बना कर खुद सत्ता में पहुँच जाएँ, या वैटिकन से फंडिंग पा जाएँ, आपको पता भी नहीं लगेगा। जहरीली वामपंथन लहसुनधति रॉय के गैरकानूनी बंग्ले के बारे में आपको पता है कि वो उन्हीं जंगलों की जमीन का अतिक्रमण कर के बनी है जिसकी बातें वो पूरी दुनिया में करती रहती है। ये है सच इन माओ की नाजायज औलादों का जिन्हें अपनी राजनैतिक बेहतरी के लिए आम दलितों की टूटी रीढ़ या सर मे लगी गोली का सहारा चाहिए, और वो काम भी कट्टा ले कर ये लोग स्वयं करते हैं।