दुनिया के ऐसे राष्ट्रों, जो विदेशी आक्रमणकारियों एवं औपनिवेशिकता के समर्थक शासन तंत्रों के शिकार रहे हैं, के शास्त्रीय ज्ञान को केवल विनष्ट ही नहीं किया गया है, अपितु विद्रूप भी किया गया है। एशिया महाद्वीप में प्राच्य संस्कृति का मूल केंद्र भारत इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। इस स्थिति का आकलन वर्तमान चीन द्वारा तिब्बती जन-मानस के साथ किए जा रहे अमानवीय एवं निंदनीय आचरण से लगाया जा सकता है। चीन ने तिब्बती जनता के साथ जो व्यवहार किया है और कर रहा है वह सभ्य मानव जाति की सबसे घृणित घटना है। दुर्भाग्य यह है कि दुनिया में मानवाधिकार के रक्षक राष्ट्रों ने आजतक मुखर होकर इसे वैश्विक मंच पर उठाया ही नहीं।
भारतवर्ष तो कम से कम इसे अपना पड़ोसी और सहोदर मानते हुए उन्हें अपने देश में ससम्मान जीवन जीने का सुअवसर प्रदान किया है। चीन दुनिया पर अपना आधिपत्य पतित प्रयासों के माध्यम से कर रहा है। कोरोना विषाणु इसका एक जीता जागता उदाहरण है। आइए, कोरोना संकट से उत्पन्न परिस्थिति में भारतीय संस्कृति के शुक्ल पक्ष का एक सारगर्भित विश्लेषण करते हैं। प्रस्तुत आलेख में आधुनिक समाज में विश्वस्तर पर व्याप्त कोरोना वायरस (विषाणु) की भयावहता का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए यह समझाने का प्रयास किया गया है कि भारतीय जीवन पद्धति का वैष्णव मार्ग ही इस वैश्विक विषता और विषाणुता का एकमात्र सार्थक समाधान है।
आज का कोरोना, प्रकृति का उत्पाद नहीं है, अपितु चीन जैसे कुत्सित देश की साम्राज्यवादी कुवृत्ति का उत्पाद है, जो अचानक विश्व की मानव जाति की हर पल की जीवन जीने की संभावना को ही छीन लिया है। कहाँ दुनिया ‘संपोषणीय विकास’ के प्रतिमान (मॉडल) तैयार कर रही है तथा विश्वस्तर पर ‘समावेशी समाज’ के निर्माण की गति को त्वरण प्रदान करने में पूर्ण मनोयोग से लगी है, वहीं महादानवीय कुप्रवृति वाले चीन ने विश्वविनाश के लिए जैव हथियार ‘कोरोना’ और ‘हन्ता’ जैसे विषाणुओं को प्रयोगशालाओं में तैयार किया है। चीन द्वारा पालित और चीनी महादानवीय प्रवृति के समर्थक राष्ट्र और उनके वैज्ञानिक इससे पूर्व एंथ्रेक्स जैसे जैव विषाणुओं का अपने शत्रु राष्ट्रों के विनाश हेतु समय-समय पर इससे पहले भी दुरूपयोग कर चुके हैं।
अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि क्या ‘जैव विषाणु’ के माध्यम से विश्व को बर्बाद करने का विचार चीन, पाकिस्तान तथा इनके समर्थक मानसिकता वाले देशों में एकाएक आ गया है? अथवा उनकी धार्मिक मान्यताओं में ऐसा करने को ही विकास कहा गया है? यहाँ यह कहना तो उचित नहीं होगा कि किसी भी धर्म में क्रूरता, कपट, क्लेश तथा कष्ट को श्रेयस माना गया है। चीन की वर्तमान राजनीतिक वैचारिकी में तो हिंसा का स्थान है परन्तु इस्लाम में कम से कम सबकी सलामती का ही पैग़ाम है। इसका उत्तर मात्र यही है कि जैव विषाणुओं के उत्पादन के पूर्व से ही मूल रूप से विषता इन राष्ट्रों के शाषकों के मन-मस्तिष्क में ही उपजा है।
विषता और विषाणुता पर यूनेस्को ने बहुत पहले ही कहा था कि युद्ध बाहर से नहीं आते हैं, युद्ध मानव के मन में ही पैदा होते हैं, इसलिए दुनिया को यदि युद्धों से बचाना है तो मानव के मस्तिष्क को ही शिक्षा द्वारा विकसित, संशोधित एवं संवर्धित करना होगा। इसी तथ्य को प्रसिद्ध दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल ने भी उद्घाटित किया था। विषता और विषाणुता भी दानवीय प्रवृति (संस्कार) वाले क्रूर राज्याध्यक्षों के मन में ही पलते हैं जो समय-समय पर मानव जाति के शांत जीवन को विनाशकारी स्थिति तक पहुँचा देते हैं। वर्तमान कोरोना संकट ऐसी ही मानसिकता की उपज है।
आज के कोरोना संकट पर एक विहंगम दृष्टिपात करने से आश्चर्यजनक तथ्य सामने आए हैं, जिन पर विचार करना समीचीन होगा। जो राष्ट्र अपने को अति-आधुनिक, स्वच्छ, विकसित, स्वस्थ एवं संपन्न मानते थे तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अधुनातन ज्ञान से सुसज्जित हैं, वही कैसे इस कोरोना त्रासदी से सर्वाधिक ग्रसित हो गए? इतना ही नहीं अमेरिका, ब्रिटेन, स्पेन, इटली, फ्रांस और जर्मनी तो चीन से भौगोलिक रूप से भी दूर स्थित हैं, परन्तु संक्रमित होने तथा मरने वालों की संख्या इन्हीं विकसित राष्ट्रों में अधिक है। यह अब तक के स्थापित विज्ञान और समाज विज्ञान के ज्ञान के विपरीत प्रतीत हो रहा है। भारत के जन-मानस की अपनी जनसंख्या, रहन-सहन आदि की स्थिति उन देशों की दृष्टि में दयनीय है परन्तु कोरोना को यहाँ पाँव फैलाने में कठिनाई तो हो ही रही है। इसका शोध परक विश्लेषण सामयिक एवं सार्थक होगा।
कोरोना ने तो विश्व मानवता को ऐसी कगार पर खड़ा कर दिया है कि प्रत्येक व्यक्ति यह सोचने को विवश हो गया है कि अगले क्षणों में जीवित भी रह पाएगा या नहीं। इतना ही नहीं, अपने परिवार के सदस्यों की कोरोना से होने वाली मृत्यु में निकट से निकट सम्बन्धी भी उस मृत व्यक्ति की ओर देखना भी नहीं चाह रहा है। इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है? क्या इसी वैज्ञानिक प्रगति की कामना की गई थी? दोषी कौन है? क्या इसका निदान तुरंत खोजना सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं है? क्या विभिन्न संस्कृतियों की जीवन पद्धति एवं उनके मूल दर्शनों में ही समाधान दिखता है? इन्हीं यक्ष प्रश्नों के उत्तरों को सांकेतिक रूप से इस आलेख में ढूँढने का एक लघु प्रयास किया गया है।
आज के भारत में बुद्धिजीवी उसे कहा जाता है, जो मानव जीवन का दर्शन मार्क्स या माओ के ही आसपास मानते हैं। इतना ही नहीं, यह अति-बौद्धिक वर्ग भारत के सनातन दर्शन और उस पर आधारित संस्कृति की बात को सिरे से ख़ारिज करते हुए इसके (सनातन दर्शन) समर्थकों को बुर्जुवा कहकर उपहास भी करता है। इनके लिए अनुशासित जीवन जीने वाला वर्ग पोंगापंथी लगता है और उन्मुक्त आचरणहीन समाज आधुनिक।
यही मार्क्सवादी और माओवादी दुनिया में हिंसा के पोषक हैं तथा मानवाधिकार के तथाकथित प्रवक्ता। इन्हें कभी भी यह नहीं सोचने की आवश्यकता पड़ी कि वर्तमान भारत में हिन्दू संस्कृति कैसे अनेकानेक आघातों को सहते हुए भी उत्तरोत्तर निखरती ही गई। आज यह वर्ग इतना भी विश्लेषण नहीं कर पाता है कि दुनिया के अन्य देशों के नागरिक क्यों सनातन धर्म एवं संस्कृति की ओर आकर्षित हो रहे हैं? ऐसे तथाकथित हिंसावादी बुद्धिजीवी कोरोना, एंथ्रेक्स, सार्स और हन्ता जैसे विषाणुओं से अधिक घातक और पतित हैं।
वामपंथी अतिवादी बौद्धिक जैव विषाणुओं से अधिक हिंसक हैं, क्योंकि इन्होंने युगों-युगों से ऋषियों, संतों, देवदूतों, पैगम्बरों के सद्-प्रयासों से मानव, पर्यावरण और ब्रम्हांड के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु स्थापित ज्ञान को भी तुच्छ एवं अप्रासंगिक सिद्ध करने का पूरा प्रयास किया है और आज भी कर रहे हैं। इनका एक गिरोह है, जिसकी पहचान अब ठीक से हो चुकी है। यह नरपिपासु वर्ग ही कोरोना जैसे विषाणुओं का आविष्कार करके दुनिया को अभूतपूर्व त्रासदी की स्थिति तक पहुँचा दिया है।
अभी तो एक तरह से पूरा विश्व ‘लॉकडाउन’ की परिस्थिति में पहुँच चुका है, परन्तु इनकी इच्छा तो तब पूरी होगी जब दुनिया ‘लक डाउन (दुर्भाग्य) ‘ की स्थिति में पहुँच जाएगी और मात्र यह मार्क्स और माओवादी बौद्धिक ही बस बचे रह जाएँगे। इनको भारतीय पौराणिक ‘भस्मासुर’ की कथा के परिणाम का बोध नहीं है। भगवान शंकर से आशीर्वाद पाकर जब उन्हीं पर उसने आक्रमण कर दिया तो उन्होंने किसी प्रकार भस्मासुर का संहार किया। भले ही यह कोरोना आज दुनिया के लिए भस्मासुर बना है, परन्तु चीन और चीनी की स्वाद चखने वाले इस बौद्धिक वर्ग का समूल नाश पहले होगा और यदि कोई संस्कृति बच पाएगी तो वह सनातनी संस्कृति और इस पर आधारित वैष्णव जीवन पद्धति।
भारत की सनातन ‘हिन्दू’ जीवन पद्धति का उपहास उड़ाने वालों की आँख पहली बार तब खुली, जब यूनेस्को ने वेदों को दुनिया का प्राचीनतम साहित्य माना। सनातन दर्शन एवं संस्कृति के मूल स्रोत वेद ही हैं। वेदों में ही विश्व को कुटुंब मानने का निर्देश है, तथा जीव और निर्जीव, साकार और विराकार, आस्तिक और नास्तिक के बीच अभेद (अद्वैत) के साथ ही साथ अहिंसा, करुणा, दया, सहअस्तित्व, सहयोग तथा सर्वमयता जैसे उच्च अनुकरणीय आदर्शों का वर्णन मिलता है।
वेदों के बाद के सभी साहित्य वेदों की ही टीका, भास्य, व्याख्या तथा विस्तार आदि के रूप में आए। तात्विक रूप से सनातन दर्शन शाश्वतता के सिद्धांत पर आधारित है , जिसका अर्थ होता है कि ऐसे आदर्श, मूल्य या सिद्धांत जो स्थान (परिस्थिति) और काल के परिवर्तित के होने पर भी अपनी मौलिक प्रासंगिकता यथावत बनाए रखते हैं। सनातन धर्म के बाद के सभी धर्मों में पूर्णतः या अंशतः सनातन धर्म के प्रतिपाद्यों का समावेश मिलता है।
भारत में मौलिक सनातनी दर्शन के बाद बौद्ध, जैन, सिख आदि भारतीय धर्म भी कहीं न कहीं मौलिक रूप से वैदिक मान्यताओं के आसपास ही घूमते हैं। यदि अंतर भी कहीं है तो मानवोचित मूल्यों की सार्वभौमिकता में नहीं, अपितु विधियों में है। यहाँ दार्शनिक मीमांसा को मात्र संकेत रूप में ही बताया जा रहा है।
विश्व में आज व्याप्त विषता/विषाणुता का निदान कहीं न कहीं सनातन संस्कृति के वैष्णव मार्ग में ही निहित है। वैष्णव मार्ग को यदि सूक्ष्म रूप से विश्लेषित किया जाए तो यह निर्विवाद रूप से स्वीकार करना पड़ेगा की समता, सर्वमयता, सहअस्तित्व, सर्वकल्याण, सर्वोदय, समन्वय तथा सम्यकता के व्यापक मानव मूल्यों का सर्वमान्य सार ही वैष्णत्व है। आज की ही नहीं, पिछली शताब्दियों में भी अमानवीय विषता/विषाणुता का निदान वैष्णत्व में ही मिला था।
वैष्णव मार्ग सर्वविनाश के विपरीत सर्वविकास की अवधारणा पर खड़ा हुआ है। ऋषियों, महर्षियों, संतों, साधकों एवं योगियों आदि ने अपने जीवन की सभी निजी आकाँक्षाओं को त्याग कर विश्व कल्याण और इसके दीर्घ काल तक के सातत्य के निमित्त अभिस्ट जीवन पद्धति की खोज की। उन्हीं दिव्य आत्माओं के ज्ञान, संज्ञान और प्रज्ञान के मौलिक निष्कर्ष का परिणाम है वैष्णव मार्ग। इन महान ऋषियों के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलने का निर्देश युद्धिष्ठिर ने यक्ष के उस प्रश्न के उत्तर के रूप में दिया था, जिसमें यक्ष ने पूछा था कि दुनिया में जीने का मार्ग क्या है (क: पंथा), और उत्तर था ‘महाजनों येन गतः स:पंथा’।
महाजन भारत के ऋषि गण थे, जिन्होंने आवश्यकताओं को यथा संभव न्यून करके ‘जियो और जीने दो’ के मार्ग को बताया। महाजन का अर्थ आज के साम्राज्यवादी अथवा एकाधिपत्यवादी नहीं। हमने दुनिया को स्वार्थपरक एवं शोषणयुक्त विकास आधारित मानसिकता के कारण असाध्य, विषता, विषाणुता पैदा करके घोर सर्वविनाश की ओर धकेल दिया है। अब सब एक साथ त्राहिमाम-त्राहिमाम बोल रहे हैं। इस विश्व के सभी राष्ट्र अब भारत के वैष्णव दर्शन की ओर निरीह भाव से देख रहे हैं। कोरोना की विषता का समाधान अब तक जो भी लेशमात्र मिल पाया है, वह वैष्णत्व में ही मिल पाया है।
वैष्णत्व को बिना किसी अकादमिक क्लिष्टता के चक्कर में पड़े, इसे सीधे समझने का प्रयास करते हैं। गुजरात में पंद्रहवीं शताब्दी में एक भक्त कवि हुए, जिनका नाम था नरसी मेहता (उन्हें कवि नरसिंह मेहता या नर्सी भगत भी कहा जाता था)। उनकी एक मूल गुजराती भाषा में रची गई भजन वैष्णव धर्म के अपेक्षित आचरणों को स्पष्ट करती है। यह वास्तव में संपूर्ण वैष्णव वांग्मय का सार है। इसे ही महात्मा गाँधी ने अपनी दैनिक प्रार्थना का अनिवार्य अंग बना लिया था।
शांत चित्त होकर इस पर मनन करने तथा संकल्प के साथ पालन करने से वैष्णत्व और गाँधी चित्त को ठीक से समझा जा सकता है। प्रसंगवश इस भजन का इस आलेख में उल्लेख करना पूर्णतः समीचीन होगा। आज दान से अधिक दानशीलता का प्रदर्शन हो रहा है, स्वाभिमान का स्थान दम्भ ले चुका है, तब ये भजन मनुष्य जाति को वैष्णव सन्देश देती है।
भजन अपने मूल रूप में कुछ इस तरह से है:
‘वैश्णव जन तो तेने कहिये जे
पीड़ परायी जाणे रे
पर-दुख्खे उपकार करे तोये
मन अभिमान ना आणे रे
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे…
सकळ लोक मान सहुने वंदे
नींदा न करे केनी रे
वाच काछ मन निश्चळ राखे
धन-धन जननी तेनी रे
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे…
सम-द्रिष्टी ने तृष्णा त्यागी
पर-स्त्री जेने मात रे
जिह्वा थकी असत्य ना बोले
पर-धन नव झाली हाथ रे
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे…
मोह-माया व्यापे नही जेने
द्रिढ़ वैराग्य जेना मन मान रे
राम नाम सुन ताळी लागी
सकळ तिरथ तेना तन मान रे
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे…
वण-लोभी ने कपट-रहित छे
काम-क्रोध निवार्या रे
भणे नरसैय्यो तेनुन दर्शन कर्ता
कुळ एकोतेर तारया रे
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे…’