हिंदुत्ववादी नेता कमलेश तिवारी की हत्या में अब तक जितने भी नाम सामने आए हैं, सभी एक खास कौम के हैं। सूरत से तीन तो नागपुर से एक युवक की गिरफ्तारी हुई है। बिजनौर से 2 मौलाना गिरफ़्तार किए गए हैं। दोनों शूटर की भी पहचान हो गई है और वे भी इसी मजहब के हैं। कमलेश तिवारी की हत्या पैगम्बर मुहम्मद पर टिप्पणी को लेकर की गई है। लिहाजा यह एक ‘हेट क्राइम’ है, लेकिन मीडिया का कोई भी वर्ग ऐसा मानने को तैयार नहीं है। हर धर्म, मज़हब और संप्रदाय में सामाजिक स्तर पर कुछ न कुछ ग़लत होता है और उसे समय-समय पर दूर किया गया है। क्या इस्लाम के मामले में भी ऐसा है?
इसका उत्तर जानने के लिए हमें देश के प्रथम क़ानून मंत्री और संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमिटी के अध्यक्ष बाबासाहब भीमराव आंबेडकर के विचारों को समझना पड़ेगा। आंबेडकर ने इस्लाम को लेकर क्या कहा था, ये जानना ज़रूरी है। आंबेडकर ने इस बात से नाराज़गी जताई थी कि लोग हिन्दू धर्म को विभाजन करने वाला मानते हैं और इस्लाम को एक साथ बाँध कर रखने वाला। आंबेडकर के अनुसार, यह एक अर्ध-सत्य है। उन्होंने कहा था कि इस्लाम जैसे बाँधता है, वह लोगों को उतनी ही कठोरता से विभाजित भी करता है। आंबेडकर मानते थे कि इस्लाम मुस्लिमों और अन्य धर्म के लोगों बीच के अंतर को वास्तविक मानता है और अलग तरीके से प्रदर्शित करता है।
इस्लाम में अक्सर भाईचारे की बात की जाती है। अमन-चैन और सभी कौमों के एक साथ रहने की बात की जाती है। इस बारे में बाबासाहब ने कहा था कि इस्लाम जिस भाईचारे को बढ़ावा देता है, वह एक वैश्विक या सार्वभौमिक भाईचारा नहीं है। बाबासाहब के इस कथन से झलकता है कि वह इस्लाम में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ जैसी किसी भी धारणा होने की बात को सिरे से ख़ारिज कर देते हैं। इसका पता हमें उनकी निम्नलिखित बात से चलता है:
“इस्लाम में जिस भाईचारे की बात की गई है, वो केवल मुस्लिमों का मुस्लिमों के साथ भाईचारा है। इस्लामिक बिरादरी जिस भाईचारे की बात करता है, वो उसके भीतर तक ही सीमित है। जो भी इस बिरादरी से बाहर का है, उसके लिए इस्लाम में कुछ नहीं है- सिवाय अपमान और दुश्मनी के। इस्लाम के अंदर एक अन्य खामी ये है कि ये सामाजिक स्वशासन की ऐसी प्रणाली है, जो स्थानीय स्वशासन को छाँट कर चलता है। एक मुस्लिम कभी भी अपने उस वतन के प्रति वफादार नहीं रहता, जहाँ उसका निवास-स्थान है, बल्कि उसकी आस्था उसके मज़हब से रहती है। मुस्लिम ‘जहाँ मेरे साथ सबकुछ अच्छा है, वो मेरा देश है’ वाली अवधारणा पर विश्वास करें, ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता।”
इसके बाद बाबासाहब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने जो बातें कही हैं, वो सोचने लायक है और आज भी प्रासंगिक है। बाबासाहब ने कहा था कि इस्लाम कभी भी किसी भी अपने अनुयाई को यह स्वीकार नहीं करने देगा कि भारत उसकी मातृभमि है। बाबासाहब के अनुसार, इस्लाम कभी भी अपने अनुयायियों को यह स्वीकार नहीं करने देगा कि हिन्दू उनके स्वजन हैं, उनके साथी हैं। पाकिस्तान और विभाजन पर अपनी राय रखते हुए बाबासाहब ने ये बातें कही थीं। आंबेडकर की इन बातों पर आज ख़ुद को उनका अनुयायी मानने वाले भी चर्चा नहीं करते, क्योंकि ये उनके राजनीतिक हितों को साधने का काम नहीं करेगा। अपना धर्म बदलने की घोषणा करने वाली मायावती भी इस बारे में कुछ नहीं बोलतीं।
बाबासाहब कहते थे कि कोई भी मुस्लिम उसी क्षेत्र को अपना देश मानेगा, जहाँ इस्लाम का राज चलता हो। इस्लाम में जातिवाद और दासता की बात करते हुए आंबेडकर ने कहा था कि सभी लोगों का मानना था कि ये चीजें ग़लत हैं और क़ानूनन दासता को ग़लत माना गया, लेकिन जब ये कुरीति अस्तित्व में थीं, तब इसे सबसे ज्यादा समर्थन इस्लामिक मुल्कों से ही मिला। उन्होंने माना था कि दास प्रथा भले ही चली गई हो लेकिन मुस्लिमों में जातिवाद अभी भी है। आंबेडकर का ये बयान उन लोगों को काफ़ी नागवार गुजर सकता है, जो कहते हैं कि हिन्दू समाज में कुरीतियाँ हैं, जबकि मुस्लिम समाज इन सबसे अलग है। आंबेडकर का साफ़-साफ़ मानना था कि जितनी भी सामाजिक कुरीतियाँ हिन्दू धर्म में हैं, मुस्लिम उनसे अछूते नहीं हैं। ये चीजें उनमें भी हैं।
बाबासाहब आंबेडकर आगे कहते हैं कि हिन्दू समाज में जितनी कुरीतियाँ हैं, वो सभी मुस्लिमों में हैं ही, साथ ही कुछ ज्यादा भी हैं। मुस्लिम महिलाओं के ‘पर्दा’ प्रथा पर आंबेडकर ने कड़ा प्रहार करते हुए इसकी आलोचना की थी। उन्होंने पूछा था कि ये अनिवार्य क्यों है? जाहिर है, उनका इशारा बुर्का और हिजाब जैसी चीजों को लेकर था। इन चीजों की आज भी जब बात होती है तो घूँघट को कुरीति बताने वाले लोग चुप हो जाते हैं। आंबेडकर में इतनी हिम्मत थी कि वो खुलेआम ऐसी चीजों को ललकार सकें। उनका मानना था कि दलितों को धर्मांतरण कर के मुस्लिम मजहब नहीं अपनाना चाहिए, क्योंकि इससे मुस्लिम प्रभुत्व का ख़तरा वास्तविक हो जाएगा।
Why this is trending #मुस्लिमो_का_संपूर्ण_बहिष्कार
— WhySoSerious (@daburkaatel) October 20, 2019
Ambedkar was already knowing about it. pic.twitter.com/Vuy2AStF0A
उस समय मुस्लिम कोंस्टीटूएंसी की बात करते हुए बाबासाहब आंबेडकर का कहना था कि वहाँ मुस्लिमों को इससे कोई मतलब नहीं रहता कि उनका उम्मीदवार जीतने के बाद क्या करेगा? आंबेडकर कहते हैं, मुस्लिमों को बस इस बात से मतलब रहता है कि मस्जिद का लैंप बदल दिया जाए, क्योंकि पुराना वाला ख़राब हो गया है। मस्जिद की चादर नई लाइ जाए, क्योंकि पहले वाला फट गया है और मस्जिद की मरम्मत कराई जाए, क्योंकि वो जीर्ण हो चुका है। आंबेडकर को मुस्लिमों के इस सिद्धांत से आपत्ति थी कि जहाँ भी स्थानीय नियम-क़ायदों और इस्लामिक क़ानून के बीच टकराव की स्थिति आए, वहाँ इस्लाम अपने क़ानून को सर्वोपरि मानता है और स्थानीय नियम-क़ायदों को धता बताता है।
आंबेडकर मानते थे कि मुस्लिमों की आस्था, चाहे वो आम नागरिक हो या कोई फौजी, केवल क़ुरान पर ही निर्भर रहेगी। आंबेडकर के अनुसार, मुस्लिम भले ही ख़ुद के शासन में रह रहें हो या फिर किसी और के, वो क़ुरान से ही निर्देशित होंगे। आंबेडकर ने तभी यह मान लिया था कि भारत कभी भी ‘हिन्दुओं और मुस्लिमों के बराबर हक़ वाला’ देश नहीं बन सकता। बाबासाहब का साफ़ मानना था कि भारत मुस्लिमों की भूमि बन सकती है, लेकिन हिन्दुओं और मुस्लिमों, दोनों का एक कॉमन राष्ट्र नहीं बन सकता। क्या आज के नेतागण और सामाजिक कार्यकर्ता बाबासाहब के इन कथनों पर चर्चा के लिए तैयार हैं? या फिर सेलेक्टिव चीजें ही चलेंगी?