बांग्लादेश जल रहा है। हर तरफ हिंसा और आफरा-तफरी का माहौल है। हिंसा को नियंत्रित करने के लिए सेना को सड़कों पर उतारा गया है। देश में इंटरनेट, रेल सेवा, बस सेवा आदि ठप है। जेलों से कैदी भाग रहे हैं। सरकारी भवनों में आग लगाई जा रही है। अब तक 105 लोग अपनी जान गँवा चुके हैं। ये सब कुछ हो रहा है आरक्षण के विरोध में। इस घटना से पड़ोसी देश भारत को भी शिक्षा लेने की जरूरत है।
दरअसल, बांग्लादेश की सरकारी नौकरियों में कुछ समूहों के लिए साल 2018 तक 56% आरक्षण का प्रावधान था। इन आरक्षण को बांग्लादेश में बेहद आकर्षक माना जाता है। इन समूहों में विकलांग व्यक्ति (1%), स्वदेशी समुदाय (5%), महिलाएँ (10%), अविकसित जिलों के लोग (10%) और 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार (30%) शामिल हैं।
इसमें योग्यता के आधार पर चयन के लिए केवल 44% सीटें बचीं। साल 2018 में छात्र समूहों द्वारा बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए, जिसके कारण हसीना सरकार ने कोटा खत्म कर दिया। फिर जून 2024 में हाई कोर्ट और फिर बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के इस फैसले को पलट दिया और स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों के लिए 30% आरक्षण को खत्म करने को अवैध ठहराया।
इसके बाद प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार ने आरक्षण की व्यवस्था को फिर से लागू कर दिया। इससे बांग्लादेश के छात्र-छात्राएँ भड़क गए और सड़कों पर उतर आए। बांग्लादेश के विद्यार्थी पिछले एक महीने से अधिक समय से इसके खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। उनका कहना है कि योग्यता के आधार पर चयन सिर्फ 44 प्रतिशत सीटों पर होता है, जो सामान्य वर्ग के मुश्किलें पैदा कर रही हैं।
बांग्लादेश में बेरोजगारी दर साल 2023 में 4.7 प्रतिशत थी। इसके पहले साल 2019 में यह दर 5.32 प्रतिशत थी। किसी भी देश के लिए लगभग 5 प्रतिशत बेरोजगारी दर भले देखने में कम लगे, लेकिन जीवकोपार्जन के लिए आस लगाए नाराज-हताश युवकों की यह बहुत बड़ी जनसंख्या है। अगर ये सड़कों पर उतर आएँ तो क्या हो सकता है, इसका असर बांग्लादेश में दिख रहा है।
अब इससे भारत को सीख क्यों लेनी चाहिए, ये एक महत्वपूर्ण प्रश्न हो सकता है। इससे भारत को इस संदर्भ में सीख लेनी चाहिए कि युवकों के आक्रोश को शांत रखने के लिए शिक्षा एवं रोजगार के व्यापक प्रबंध किए जाने चाहिए। इसके साथ ही उन्हें मिलने वाले अवसरों की सीमितता को भी समय के साथ समीक्षा के दायरे में लाना जाना चाहिए, ताकि युवाओं में असंतोष ना उपजे।
भारत बहुत बड़ा देश है। यहाँ किसी तरह का असंतोष देश के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है। केंद्र में कुल आरक्षण 63.5 प्रतिशत है। इसका बँटवारा कुछ इस तरह है- अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5%, अनुसूचित जाति के लिए 15%, पिछड़ा वर्ग के लिए 27%, आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग 10% और दिव्यांगता के लिए 4 प्रतिशत। कुछ-कुछ राज्यों में तो आरक्षण की सीमा और अधिक है।
ऐसे में भारत में 36.5 प्रतिशत सीटें ही ऐसी हैं, जिस पर योग्यता के आधार पर विद्यार्थी फाइट कर सकते हैं। भारत में लगभग हर साल 10 लाख नए स्नातक निकलते हैं और वे विभिन्न परीक्षाओं की तैयारी करते हैं। इनमें कुछ को सफलता मिलती है और अधिकांश को नहीं है। इस तरह साल-दर-साल बेरोजगारों की एक नई फौज खड़ी होती जा रही है।
देश में जिन वर्गों को आरक्षण दिया जाता है, उनकी कुछ जातियाँ ही उसका फायदा उठा पाती हैं। निचले स्तर तक इसका फायदा नहीं पहुँच पाता है। जैसे कि ओबीसी वर्ग में अहीर, कोइर, कुर्मी आदि कुछ ऐसी जातियाँ हैं जो शिक्षा और नौकरी में आरक्षण का सीधा फायदा ले लेती हैं। इस वर्ग के अन्य लोगों को इसका फायदा नहीं मिल पाता और वे गरीबी रेखा से खुद को बाहर नहीं निकाल पाते।
इसी तरह अनुसूचित जनजाति में मीणा जैसी कुछ जाति है, जो बेहद संपन्न एवं समृद्ध हैं। इनमें शिक्षा और नौकरी का स्तर काफी ऊँचा है। उसी आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (EWS) वर्ग में सभी जातियों को इसका समान रूप लाभ नहीं मिल पा रहा है। इसी तरह अनुसूचित जाति (SC) में भी इस वर्ग का लाभ कुछ वर्गों तक सिमटकर रह गया है।
ऐसे हर वर्ग में जिन जाति समुदाय को लोगों को इसका कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है, उनके युवाओं के मन में देर-सबेर असंतोष पनपेगा। इस असंतोष को पनपने से पहले ही इसका समाधान आवश्यक है। भारत में लगभग 3,000 जातियाँ और 25,000 उपजातियाँ हैं। ऐसे में किसी वर्ग का फायदा सिर्फ दो-तीन जातियों तक सीमित रहना असंतोष को बढ़ावा देना ही है।
सरकार को चाहिए कि जिन जातियों में शिक्षा, नौकरी और आय में वृद्धि होने के साथ-साथ सामाजिक चेतना आ गई है, उन्हें सामान्य वर्ग में डाल दिया जाए। इससे हर वर्ग को देर सबेर लाभ मिलेगा और आखिरकार आरक्षण के लागू करने के उद्देश्यों की पूर्ति होगी, अन्यथा भारत में आरक्षण राजनीतिक ब्लैकमेल का हथियार बनकर रह जाएगा और इसके लाभार्थी सीमित रह जाएँगे।
इसका सबसे अनोखा मामला महाराष्ट्र की ट्रेनी IAS अधिकारी पूजा खेडकर हैं। पूजा खेडकर ओबीसी कोटा का इस्तेमाल करते हुए UPSC परीक्षा पास की हैं। महत्वपूर्ण बात ये है कि उनके पिता भी IAS अधिकारी रहे हैं। इसके बावजूद उन्होंने ओबीसी कोटा का फायदा लिया। ऐसा ही मामला IAS अधिकारी टीना डाबी और उनकी बहन रिया डाबी हैं। दोनों अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखती हैं।
उनके पिता भारतीय दूरसंचार सेवा और माँ भारतीय इंजनीयरिंग सेवा से ताल्लुक से संबद्ध हैं। ऐसे में सवाल उठेगा कि अगर रिया और टीना डाबी की जगह यह आरक्षण किसी और को मिलता तो दो अन्य परिवारों का कल्याण हो सकता था। माता-पिता के इतने उच्च पदस्थ अधिकारी होने के बावजूद उनकी अगली पीढ़ी द्वारा आरक्षण का लाभ लेना उस वर्ग के वंचित जाति/लोगों के प्रति अन्याय है।
भारत में बांग्लादेश जैसी स्थिति कभी ना पैदा हो, इससे सरकार को सीख लेने की जरूरत है। असंतोष का पनपना किसी राज्य के लिए सबसे दुष्कर होता है। राजनीतिक दलों के चाहिए कि वे मिलकर बैठकर इसका कुछ इस तरह समाधान निकालें कि जारी आरक्षण के अस्तित्व को चुनौती निकट भविष्य में चुनौती ना मिल सके और यह समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े परिवार को भी इसका लाभ मिल सके।