जनवरी 2014 का महीना था। पूरा भारत आम चुनाव के लिए तैयार हो रहा था, नरेंद्र मोदी के उद्भव से उत्साहित जनता राजनीतिक चर्चों में मशगूल थी, राजनीतिक पार्टियाँ और उनके स्टार प्रचारक हवाई दौरे से लेकर ज़मीनी पदयात्रा तक- जनता तक पहुँचने के लिए सारे विकल्पों का प्रयोग कर रहे थे। 2G घोटाले की मार से अभी-अभी उबरे देश में 3D रैलियाँ की जा रही थी। लेकिन ठीक उसी समय पाकिस्तान में कुछ ऐसी घटनाएँ घट रही थी, जिन पर मीडिया या अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान नहीं गया। वो घटनाएँ, जिनके दूरगामी परिणाम हुए। उस दौरान भले ही ये घटनाएँ छोटी-मोटी प्रतीत हुई हो, लेकिन उसके दुष्प्रभावों ने भारत को कई बार झकझोरा।
खूंखार आतंकी की वापसी
जनवरी 2014 का महीना था। मौका था अफ़ज़ल गुरु द्वारा लिखी गई पुस्तक के विमोचन का। जी हाँ, वही अफ़ज़ल गुरु जो भारत के संसद भवन पर हुए हमले का मास्टरमाइंड था। उसे फाँसी दे दी गई थी। पाक अधिकृत कश्मीर की कथित राजधानी मुज़फ़्फ़राबाद में आयोजित इस रैली में एक ऐसे शख़्स ने एंट्री ली, जिस से पूरे पाकिस्तानी मीडिया में खलबली मच गई। भारतीय जाँच एजेंसियों तक के कान खड़े हो गए। रैली में आए 10,000 लोगों को आतंकी मसूद अज़हर ने फोन के द्वारा सम्बोधित किया।
उस दौरान पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भारत को आश्वासन दिया था कि मसूद अज़हर की वापसी से उसे डरने की ज़रुरत नहीं है। लेकिन, जिस आतंकी ने भारत को अगनित घाव दिए हों, उसकी वापसी से भारत भला कैसे चिंतित नहीं होता? मसूद अज़हर का नाम आते ही कंधार प्लेन हाईजैक से लेकर 6 विदेशियों के अपहरण तक- ख़ून और आतंक से सनी दास्तानें याद आ जाती है। कई दिनों से निष्क्रिय मसूद अज़हर का आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद कहने को तो पाकिस्तान में प्रतिबंधित था और यह भी मान लिया गया था कि संगठन पर मसूद की पकड़ ढ़ीली पड़ रही है। लेकिन, मसूद की वापसी के पीछे उसका कुछ और ही इरादा था।
अगर मसूद अज़हर की उस रैली में कही गई बातों पर हम आज ग़ौर करें, तो पता चलता है कि पठानकोट और पुलवामा की पटकथा उसी वक़्त लिखी जानी शुरू कर दी गई थी। मसूद अज़हर ने पाकिस्तान सरकार से जिहाद पर लगे कथित प्रतिबन्ध को हटाने की माँग की। मसूद के उस भाषण ने पाकिस्तानी आतंकियों को नए जोश से लबरेज कर दिया, वहाँ के अधिकतर आतंकियों को मसूद के भीतर एक मसीहा नज़र आने लगा। ख़ासकर जो कश्मीर की ‘आज़ादी’ के नाम पर आतंक फैलाने वाले समूह थे, उनमे नई ऊर्जा का संचार हुआ।
पाकिस्तान ने मसूद को फिर से स्थापित किया
मुज़फ़्फ़राबाद की वो रैली काफ़ी अच्छे तरीक़े से आयोजित की गई थी। अगर एक प्रतिबंधित आतंकी संगठन के नेता ने इतना बड़ा आयोजन करवा लिया तो कोई यह कैसे मान सकता है कि पाकिस्तानी प्रशासन, आईएसआई और पाकिस्तानी सेना आतंकवाद को बढ़ावा नहीं दे रही है। रैली इतने सुव्यवस्थित तरीक़े से आयोजित की गई थी और समर्थकों को आयोजन स्थल तक लाने के लिए ऐसे इंतजाम किए गए थे, जिस से पता चलता है कि इस रैली को आयोजित करवाने में पाकिस्तान सरकार का पूरा हाथ था।
रैली का स्थल और तारीख़ का चुनाव भी काफ़ी तैयारी के बाद किया गया था। आयोजन की तारीख़ थी- 26 जनवरी। यानी भारत का गणतंत्र दिवस। तिरंगे के रंग में रंगे भारत की जनता तक शायद इस रैली की ख़बर पहुँची ही नहीं, या फिर हमने इसे हलके में लिया। किसे पता था कि इस एक रैली की वजह से भारतीय सपूतों को मातृभूमि की बलि-बेदी पर क़ुर्बान होना पड़ेगा। जहाँ एक भी भारतीय नागरिक या सुरक्षा बल के जवान की मृत्यु दुःखद और त्रासद है, किसे पता था कि वहाँ 50 से भी अधिक (पठानकोट और पुलवामा) शहीद हो जाएँगे।
उस रैली को सम्बोधित करते हुए मसूद ने कहा था कि भारत में आतंक फैलाने के लिए उसके पास हज़ार से भी अधिक जिहादी तैयार बैठे हैं। उसके भाई असगर ने भी उस रैली में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था- वही असगर जो पुलवामा हमले का भी मास्टरमाइंड है। उस रैली में वो सारे किरदार जमा हुए थे, जो भारत के टुकड़े करने का दिवास्वप्न देखते हैं। पाकिस्तानी अख़बार डॉन ने पाकिस्तान सरकार के दोहरे रवैये पर सवाल खड़े करते हुए कहा था कि एक प्रतिबंधित संगठन के नेता ने कैसे इतना बड़ा आयोजन कर लिया।
यह कैसा प्रतिबन्ध? यह कैसा रवैया?
हुक्मरानों का यह दावा रहा है कि जैश पर प्रतिबन्ध पाक अधिकृत कश्मीर में लागू नहीं होता। डॉन अख़बार ने इस पर भी कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह हास्यास्पद है क्योंकि मसूद अज़हर पाकिस्तान के पंजाब में स्थित बहावलपुर से ही संगठन के सारे कामकाज देख रहा था। मसूद के उस भाषण को रिकॉर्ड कर के पाकिस्तान में सर्कुलेट किया गया। लोगों को और जिहादियों को उसके भाषण के अंश सुनाए गए। कुल मिला कर देखा जाए तो उस एक रैली से खूंखार मसूद अज़हर पाकिस्तान की व्यवस्था में सक्रिय होकर अपना आतंकी किरदार निभाने के लिए फिर से जी उठा था।
मसूद अज़हर को बचाने में चीन का भी अहम रोल रहा है। भारत ने जब-जब भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मसूद पर प्रतिबन्ध लगाने की बात की, तब-तब चीन ने भारत के इस क़दम पर वीटो लगा दिया। पाकिस्तान की बची-खुची प्राकृतिक सम्पदाओं पर नज़र गड़ाए बैठे चीन ‘बेल्ट एन्ड रोड’ में उसका साथ पाने के लिए भी पाकिस्तान की तरफ़दारी करता रहा है। साम्राज्यवाद की मानसिकता के मारे चीन ने तो यहाँ तक भी कह दिया था कि पाकिस्तानी सरज़मीं पर भारत द्वारा की गई कोई भी कार्रवाई सीधा चीन पर आघात माना जाएगा।
पाकिस्तान और आतंकवाद: यह रिश्ता क्या कहलाता है…
जब पठानकोट पर आतंकी हमला हुआ था, तब भारत और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के दबावों के कारण चीन ने मसूद अज़हर को कस्टडी में लेने का दावा किया था। 2008 मुंबई हमले के बाद अंडरग्राउंड हुआ मसूद जब 2014 में निकला, तभी पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों को उसे गिरफ़्तार करना चाहिए था। लेकिन, ऐसा नहीं किया गया। मसूद और असगर- दोनों भाइयों के ख़िलाफ़ मई 2016 में ही इंटरपोल द्वारा रेड कॉर्नर नोटिस जारी किया जा चुका है, लेकिन फिर भी पाकिस्तान में उन्हें खुले में रैली करने की छूट है।
2008 मुंबई हमलों का मास्टरमाइंड हाफ़िज़ सईद वहाँ के चुनावों में भाग लेता है, मसूद को जिहादी रैली आयोजित करने की पूरी छूट दी जाती है, इंटरपोल की नोटिस के बावजूद इन्हें गिरफ़्तार नहीं किया जाता- यह सब दिखाता है कि पाकिस्तान जान-बूझ कर आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है, आतंकियों को पोषित कर रहा है। सबूत पर सबूत देने के बावजूद पाकिस्तान आतंकियों पर कार्रवाई करने में विफल रहा है। आपको बता दें कि इंटरपोल किसी भी आतंकी के ख़िलाफ़ तभी नोटिस जारी करता है, जब उसे सबूत दिया जाए कि फलाँ अपराधी ने फलाँ अपराध किया है। वही सबूत अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के लिए विश्वसनीय हैं लेकिन पाकिस्तान के लिए बस एक काग़ज़ का टुकड़ा है।
असल में राजनीति, सेना और आतंकवादी- ये सभी पाकिस्तान में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। ये तीनों एक-दूसरे के हितैशी हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को ही तालिबान ख़ान के नाम से जाना जाता है क्योंकि तालिबान व आतंकी संगठनों के प्रति उनका रवैया बहुत ही सॉफ्ट रहा है। वो उनकी वकालत करते रहे हैं। इमरान तो बस एक मुखौटा है, सत्ता अभी भी पाकिस्तानी सेना के हाथों में ही है।