गर्व से अपने अल्पसंख्यक दर्जे का बखान करने वाला अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) शैक्षणिक गतिविधियों के अलावा बाक़ी सभी कारणों से सुर्ख़ियों में रहता है। यहाँ बात-बात में साम्प्रदायिक हिंसा भड़क जाती है। देश-विरोधी नारे और राष्ट्र विरोधी गतिविधियाँ तो जैसे यहाँ एक सामान्य बात हो चुकी है। अभी हाल ही में भड़की हिंसा और छात्रों के उग्र प्रदर्शन के बाद इस सवाल का उठना लाज़िमी है कि आख़िर AMU राष्ट्र-निर्माण में क्या योगदान दे रहा है? देश में हज़ारों समस्याएँ हैं। उन्हें सुलझाने के लिए अलग-अलग यूनिवर्सिटीज और लैब्स में रिसर्च चल रहे हैं। छात्र अक्सर ऐसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण इत्यादि बनाते रहते हैं जो देश के काम आए। क्या AMU इन सब के लिए कार्य कर रहा है?
अगर AMU में हाल के दिनों में हुई घटनाओं पर नज़र डाली जाए, तो इस से पता चलता है कि संस्थान अपनी विश्वसनीयता खो चुका है। ऐसा नहीं है कि यूनिवर्सिटी का पुराना इतिहास (आज़ादी के बाद से) बहुत ही चमकदार रहा है, ऐसी घटनाएँ पहले भी हुईं हैं। लेकिन, हाल के कुछ महीनों में जिस तरह के विषाक्त वातावरण ने कैंपस के शैक्षणिक परिवेश को अपने पैरों तले कुचल कर रख दिया है, उस से लगता है कि संस्थान अब ग़लत दिशा में बढ़ रहा है। सबसे पहले ताज़ा घटना को समझते हैं। इसके बाद पिछली कुछ घटनाओं को समझ कर हम इस बात का विश्लेषण करेंगे की आख़िर ऐसी गतिविधियों के पीछे कौन सी मानसिकता है।
मीडियाकर्मियों और अन्य गुट के छात्रों की पिटाई
मामला कुछ यूँ शुरू हुआ। यूनिवर्सिटी कैंपस में मुस्लिम फ्रंट बनाने के लिए बैठक चल रही थी। इस बैठक में हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी भी शामिल होने वाले थे। ओवैसी तो बैठक में नहीं पहुँच सके लेकिन उनके आने और छात्रों द्वारा मुस्लिम फ्रंट बनाने की ख़बर सुन कर कुछ छात्र नाराज़ हो गए। जब दो महिला पत्रकार कैंपस में पहुँची, तब छात्रों ने उसके साथ बदतमीज़ी की और कैमरे को भी तोड़ दिया। एक अन्य पत्रकार को दौड़ा-दौड़ा कर बेल्ट से पीटा गया। इतना ही नहीं, जब कुछ हिन्दू छात्र हॉस्टल में खाना खाने पहुँचे, तब उनके साथ मारपीट की गई। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक कार्यकर्ता की बाइक को आग के हवाले कर दिया।
बहुत सारे ऐसे शैक्षणिक संस्थान हैं, जो राजनैतिक वजहों से सुर्ख़ियों में रहते हैं। छात्रों की अलग-अलग विचारधाराएँ होती है, अलग-अलग समझ होती है। अल्पसंख्यक दर्जे का ढ़ोल पीटने वाले AMU ने कभी यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत नहीं समझी कि यहाँ पढ़ रहे अन्य छात्रों को सुरक्षित माहौल मुहैया कराने के लिए क्या कोशिशें की जाए। जब यूनिवर्सिटी में अधिकतर छात्र एक ख़ास समुदाय से आते हैं, तब यह यूनिवर्सिटी प्रशासन की ज़िम्मेदारी बनती है कि उन्हें सुरक्षित महसूस कराया जाए।
एक छात्र ने प्रधानमंत्री मोदी को ख़ून से पत्र लिख कर मदद की गुहार लगाई है। उसने कहा है कि अगर समय रहते कैंपस में पल रहे राष्ट्र विरोधी मानसिकता को ख़त्म करने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की गई, तो यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे हिन्दू छात्रों का हाल भी कश्मीरी पंडितों की तरह ही होगा। छात्र अब भी धरने कर रहे हैं। प्रॉक्टर के कार्यालय में ताला जड़ दिया गया है। भाजपा-संघ के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी हो रही है। मोदी-योगी को जी भर गालियाँ दी जा रही है। उनके पुतला-दहन की धमकी दी जा रही है। यह सब देख कर लगता नहीं कि हम किसी बड़े शैक्षणिक संस्थान की बात कर रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे यह कोई राजनीतिक अखाड़ा हो।
ग़ौर करने वाली बात यह है कि AMU प्रशासन भी पीड़ितों के ख़िलाफ़ ही खड़ा दिख रहा है। छात्र नेता अजय, जिनकी पिटाई की गई- अस्पताल में भर्ती हैं। महिला पत्रकारों ने छात्रों के ख़िलाफ़ थाने में मामला दर्ज कराया है। लेकिन यूनिवर्सिटी प्रशासन ने पुलिस को जो दलीलें दी है, उसमे पीड़ितों के ही विरोध किया गया है। यूनिवर्सिटी पुलिस छावनी बन चुकी है। ज़िले के डीएम एवं एसपी वहाँ कैम्प कर रहे हैं। यह कैसी शिक्षा व्यवस्था है? यह कैसा शैक्षणिक संस्थान है जहाँ छात्रों के झगड़े सुलझाने के लिए ज़िले के सबसे बड़े अधिकारियों को कैम्प करना पड़ रहा है?
तिरंगा यात्रा मना, ‘वन्दे मातरम्’ पर रोक
जनवरी 2019 में जब कुछ छात्रों ने तिरंगा यात्रा निकाली और ‘वन्दे मातरम्’ के नारे लगाए तो यूनिवर्सिटी प्रशासन ने उन पर गंभीर आरोप लगा कर नोटिस थमा दिया। उन छात्रों पर यूनिवर्सिटी को बदनाम करने, कैंपस में भय का माहौल पैदा करने और अन्य छात्रों को बहकाने सहित कई गंभीर आरोप लगाए गए। क्या अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी भारत के अंदर नहीं आता है? क्या AMU कैम्पस में भारतीय संविधान, भारतीय प्रतीक चिह्नों व राष्ट्रगीत के लिए कोई इज्ज़त नहीं? संस्थान चलता है नागरिकों के भरोसे से। अगर देश के नागरिकों का किसी संस्थान से भरोसा ही उठ जाए तो फिर उसे अस्तित्व का कोई औचित्य नहीं बनता है।
छात्रों की ग़लती बस इतनी थी कि वो वीर ऐप के जरिए शहीदों के लिए धन जुटा रहे थे। AMU में इसे भी अपराध माना गया। तिरंगा यात्रा निकालने पर न सिर्फ़ छात्रों को नोटिस थमाई गई, बल्कि मुस्लिम छात्रों ने उन्हें मारा-पीटा भी। ये ख़बरें जल्दी कैंपस से बाहर नहीं आ पाती। अगर बाहर आती भी है, तो दबा दी जाती है। जब इसे लेकर आवाज़ें उठतीं हैं, तब दोनों गुटों के छात्रों पर कार्रवाई कर इतिश्री कर ली जाती है। तिरंगा यात्रा निकालने वाले छात्रों को हादी हसन हॉल में देर रात पीटा गया। पीटने वाले कौन लोग थे और वह किस समुदाय से थे- यह साफ़ है। आप बिना लिखे समझ सकते हैं।
आतंकियों के प्रति इतना प्रेम कहाँ से लाता है AMU?
अभी जब AMU के कट्टर छात्रों ने पत्रकारों को अपने लपेटे में लिया तब ये एक बड़ी ख़बर बनी। लेकिन एक बार और ऐसा हुआ था, जब छात्रों ने पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार किया था। अक्टूबर 2018 में जब सुरक्षा बलों ने जम्मू-कश्मीर के हंदवाड़ा में हिज़्बुल मुज़ाहिद्दीन के आतंकी बशीर मन्नान वानी को मार गिराया था, तब AMU में उसके लिए नमाज पढ़ी गई थी। उस दौरान भी छात्रों ने प्रॉक्टोरियल बोर्ड के साथ नोंक-झोंक की। घटना की सूचना पर पहुँचे एक पत्रकार को पीटा गया और उसके फोन छीन लिए गए।
आतंकवाद से भी ज़्यादा ज़हरीला है आतंकवाद का समर्थन। एक आतंकी को जब समाज या क्षेत्र के किसी हिस्से में समर्थन और सहानुभूति मिलती है, तब 10 अन्य आतंकी भी पैदा हो जाते हैं। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय इसमें अव्वल दिख रहा है। बशीर वानी भी उसी यूनिवर्सिटी का छात्र था। यह कैसी फक्ट्री है जहाँ एक योग्य नागरिक के बदले आतंकी निकलते हैं? ऐसे संस्थान का क्या तात्पर्य जहाँ आतंकियों के मरने पर मातम मनाया जाता हो। यह न सिर्फ़ आतंकियों का आत्मविश्वास बढ़ाने वाला है, बल्कि सुरक्षा बलों के मनोबल को चोट पहुँचाने वाला कृत्य भी है।
जिस यूनिवर्सिटी में सुरक्षा बलों के लिए सम्मान होना चाहिए वहाँ आतंकियों के लिए नमाज़ पढ़ी जाती है। जहाँ से स्कॉलर निकलने चाहिए, वहाँ से आतंकी निकलने की ख़बर आती है। जहाँ शहीदों को सम्मान के भाव से देखा जाना चाहिए, वहाँ उनके लिए धन एकत्रित करने वालों पर ही कार्रवाई की जाती है। जहाँ राष्ट्रीय प्रतीक चिह्नों को सर-आँखों से लगाया जाना चाहिए, वहाँ उन्हें घृणाभाव से देखा जाता है।
शाकाहारियों को परोसा माँस वाले तेल में बना खाना
शैक्षणिक संस्थानों के छात्रावासों में हर प्रकार के विद्यार्थी रहते हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक विशाल भारतवर्ष के कोने-कोने से छात्र देश के किसी भी विद्यालय, महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में अपनी योग्यतानुसार दाख़िला पाते हैं। ऐसे में, किसी ख़ास गुट के छात्रों की भावनाओं का ख़्याल रखना और हिन्दू (चूँकि AMU अपने-आप को अल्पसंख्यक संस्थान मानता है) समूह के छात्रों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना- क्या यह अनुचित नहीं है?
दिसंबर 2018 में जिस तेल में मुर्गे का माँस तला गया, उसी तेल में भोजन बना कर शाकाहारी छात्रों को भी परोस दिया गया। छात्रों ने उस वक़्त कहा था कि वे यूनिवर्सिटी कैम्पस में हो रहे ऐसे व्यवहार के कारण मानसिक तनाव से गुज़र रहे हैं। मना करने का बावजूद उसी तेल में पूरी-सब्जी तल कर छात्रों को खाने दे दिया गया।
अव्वल तो यह कि यूनिवर्सिटी प्रशासन ने इस मामले को भी गम्भीरतापूर्वक नहीं लिया। कुलपति को मेल द्वारा शिक़ायत भेजी गई, प्रॉक्टर को इस बात की जानकारी दी गई, लेकिन कार्रवाई शून्य। शिक़ायत मिलने के कई दिनों बाद तक यूनिवर्सिटी ने इन छात्रों की कोई सुध नहीं ली। क्या अपने-आप को अल्पसंख्यक संस्थान कहने का अर्थ है कि बहुसंख्यकों को मानसिक प्रताड़ना दे कर उन्हें तनाव दिया जाए?
भारत का विभाजन कराने वाले जिन्ना का पोस्टर
जब यूनिवर्सिटी में भारत का विभाजन कराने वाले मोहम्मद अली जिन्ना के पोस्टर को लेकर सरकार से शिक़ायत की गई, तब यूनिवर्सिटी पोस्टर के समर्थन में खड़ा हो गया। जिसने देश के टुकड़े कर दिए, उसी देश के एक बड़े शैक्षिक संस्थान में उसके पोस्टर लगे हैं। कितना अजीब है न? यूनिवर्सिटी के प्रवक्ता ने जिन्ना के पोस्टर को हटाने से मना कर दिया और उसके समर्थन में दलीलों की झड़ी लगा दी।
जिस यूनिवर्सिटी में देश बाँटने वालों से प्यार करना सिखाया जाता हो, वहाँ के छात्र एक अच्छे नागरिक कैसे बन पाएँगे? AMU को जिन्ना प्रिय हैं, वह उन्हें अपने सीने से लगाए रखना चाहता है।
भारत के पोस्टर से जम्मू एवं कश्मीर ग़ायब
पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर को भारत का हिस्सा नहीं मानता। जिस भी विदेशी राष्ट्र या संस्थान ने भारत के नक़्शे से खिलवाड़ किया है, भारत सरकार ने उस से कड़ी आपत्ति दर्ज कराई है। लेकिन, देश के ही एक बड़े शैक्षिक संस्थान में भारत के नक़्शे से उसके एक अभिन्न अंग को ग़ायब कर दिया गया। नवम्बर 2018 में AMU में लगे एक पोस्टर में भारत के नक़्शे से जम्मू-कश्मीर को ग़ायब कर दिया गया। ऐसा यूनिवर्सिटी के कल्चरल एजुकेशन सोसाइटी की तरफ से मंचन किए जाने वाले एक नाटक के पोस्टर में किया गया था।
जब मामला राष्ट्रीय मीडिया में पहुँचा, तब यूनिवर्सिटी ने एक्शन लेते हुए उन पोस्टर्स को हटवाया। यह सिर्फ़ एक छोटी सी घटना ही नहीं है, बल्कि यूनिवर्सिटी के अधिकतर कर्मचारियों, अधिकारियों और छात्रों की मानसिकता का परिचायक है। वह मानसिकता, जो दिन प्रतिदिन और गहरी होती जा रही है, जिसकी जड़ें लगातार फैलती जा रही है। क्या AMU ने कुछ बाक़ी भी रखा है? आतंकियों का समर्थन, सुरक्षा बलों का विरोध, राष्ट्रीय प्रतीक चिह्नों का अपमान, भारत के नक़्शे से छेड़छाड़…..कुछ बाक़ी नहीं रहा।
कैसे सुधरेंगे हालात? कैसे बदलेगी तस्वीर?
आज स्थिति यह हो गई है कि सरकार भी AMU कैम्पस में पल रही ऐसी मानसिकता और उसके प्रभाव में आकर किए जा रहे राष्ट्रविरोधी कार्यों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में ख़ुद को असहाय महसूस कर रही है। अंध-विरोध के इस दौर में इसका एक हल यही है कि यूनिवर्सिटी कैम्पस के भीतर राष्ट्र प्रेम भी सिखाया जाए। यूनिवर्सिटी के प्रशासक ऐसे लोग हों- जिनका देश सेवा में योगदान रहा हो, जिनकी राष्ट्र निर्माण में भागीदारी रही हो।
यह अच्छा नहीं है कि पुलिस और सुरक्षा बल आतंकियों और अपराधियों की धड़-पकड़ के बजाय छात्रों के झगड़े सुलझाते फिरें। ज़िले के डीएम विकास कार्यों पर ध्यान देने के बजाय छात्रों के राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को रोकने में व्यस्त रहें। अगर यूनिवर्सिटी से देश को फ़ायदा नहीं हो रहा, तो इसमें आमूलचूल बदलाव कर इसे एक नया रूप देना चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कैंपस के अंदर वातावरण स्वच्छ हों, विषैला नहीं। ऐसा तभी संभव है जब प्रशासक और छात्र- दोनों ही की काउंसलिंग की व्यवस्था की जाए। अच्छे लोगों को आमंत्रित कर सेमिनार आयोजित किए जाएँ।