सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को ‘अल्पसंख्यक’ की परिभाषा तय करने के निर्देश दिए। भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट का ऐसा निर्देश आया। याचिका में कहा गया है कि आँकड़ों के अनुसार हिंदू एक बहुसंख्यक समुदाय है, जबकि पूर्वोत्तर के कई राज्यों और जम्मू-कश्मीर में यही हिंदू अल्पसंख्यक है। याचिका में इस बात का तर्क़ दिया गया है कि हिंदू समुदाय उन लाभों से वंचित है, जो कि इन राज्यों में अल्पसंख्यक समुदायों के लिए मौजूद है।
संविधान में नहीं है परिभाषित
सबसे पहले इस पर विचार करना ज़रूरी है कि जो ‘अल्पससंख्यक’ शब्द हम दशकों से सुनते आ रहे हैं, जिनके हितों की रक्षा की बात होती आ रही है और जिन अल्पसंख्यकों को उनके धर्म व अन्य परम्पराओं के स्वतंत्र पालन की बात कही गई है- वो हैं कौन, कहाँ से आते हैं और उनकी पहचान क्या है। आपको यह जान कर आश्चर्य हो सकता है कि भारतीय संविधान में कहीं भी ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। इसे विडम्बना कहें या अदूरदर्शिता, कई सरकारों ने अल्पसंख्यकों को केंद्र में रख कर हज़ारों योजनाएँ तैयार कीं लेकिन इनके लाभार्थियों की परिभाषा तय करने की ज़रूरत ही नहीं महसूस की।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को सुप्रीम कोर्ट ने दिया आदेश – तीन महीने में अल्पसंख्यक की परिभाषा और पहचान करने का नियम बनाएं pic.twitter.com/lFAMVKWwBS
— Ashwini Upadhyay (@AshwiniBJP) February 12, 2019
संविधान में सिर्फ़ दो जगह अल्पसंख्यकों की चर्चा की गई है- आर्टिकल 29-30 और आर्टिकल 350A-350B में। सबसे पहले तो संविधान में अल्पसंख्यकों की बात की गई लेकिन उन्हें परिभाषित नहीं किया गया। इसके बाद 1993 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया और ‘नेशनल कमीशन फॉर माइनॉरिटीज एक्ट, 1992’ अस्तित्व में आया लेकिन विडम्बना देखिए कि जिनके लिए यह सब किया गया- फिर से उनकी परिभाषा तय करने की ज़रूरत नहीं समझी गई। इस एक्ट के मुताबिक़ मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसियों को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा दिया गया।
बिना परिभाषा तय किए बना आयोग
2006 में अल्पसंख्यकों के लिए एक अलग मंत्रालय बनाया गया। अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के गठन के वक़्त भी अल्पसंख्यकों की परिभाषा तय करने की ज़रूरत नहीं समझी गई। इसे भी उनकी पाँच धार्मिक समुदायों तक सीमित रखा गया। नीति नियंताओं ने एक आयोग के बाद पूरा का पूरा मंत्रालय ही उन लोगों के नाम कर दिया, जिनकी परिभाषा ही तय नहीं है। यह ऐसा ही है जैसे सरकार ने किसी ‘ABC’ के लिए आयोग का गठन किया, मंत्रालय बनाया, हज़ारों योजनाएँ तैयार की- लेकिन वो ‘ABC’ कौन लोग हैं, यह परिभाषित ही नहीं है।
भारत में अल्पसंख्यकों की परिभाषा तय किए बिना इतना सब कुछ किया गया, उसके दुष्परिणाम को समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं। क़तर, पश्चिम एशिया का एक अमीर राष्ट्र है, जो अपने तेल संसाधनों के लिए प्रसिद्ध है। अपने छोटे आकार के बावजूद से वैश्विक पटल पर अच्छी-खासी धाक रखने वाले क़तर की जनसँख्या है- 26 लाख। क़तर में 67.7% लोग मुस्लिम है। अगर आपसे कोई पूछे कि क़तर की क़रीब 68% जनता जिस समुदाय से आती है, वह माइनॉरिटी (अल्पसंख्यक) है या मेजॉरिटी (बहुसंख्यक), तो आप आपका क्या जवाब होगा?
क्या है भारतीय राज्यों की स्थिति?
यक़ीनन आप आँख बंद कर के कह सकते हैं कि क़तर के 68 प्रतिशत मुस्लमान बहुसंख्यक हैं और ये सही भी है। लेकिन, कुछ भारतीय राज्यों में ऐसे आँकड़ों का कुछ और अर्थ निकलता है। उत्तर-पूर्वी भारतीय राज्य नागालैंड की बात करें तो क़तर और इसकी जनसंख्या में बस 3 लाख का अंतर है। नागालैंड में 88% लोग ईसाई धर्म से आते हैं, लेकिन वो अल्पसंख्यक भी हैं। है न आश्चर्य वाली बात? बस इसी विरोधाभाष को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाख़िल की गई थी। नागालैंड के अलावा मिज़ोरम में भी क़रीब 88% लोग ईसाई समुदाय से आते हैं, लेकिन वह भी अल्पसंख्यक हैं।
इसी तरह भारतीय राज्य मेघालय और पूर्वी एशिया में स्थित मंगोलिया की जनसंख्या लगभग समान ही है। मंगोलिया में 53% बौद्ध मेजॉरिटी है, जबकि मेघालय में 75% ईसाई अल्पसंख्यक हैं। इसी तरह मणिपुर में 41% और अरुणाचल प्रदेश में 30% ईसाई जनसँख्या है लेकिन उन्हें सारी अल्पसंख्यक केंद्रित योजनाओं का लाभ मिलता है। मुद्दा सिर्फ़ यह नहीं है कि बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यक वाले लाभ दिए जा रहे हैं। मुद्दा इस से कहीं ज़्यादा गंभीर और विचारणीय है। असली मुद्दा यह है कि उन राज्यों में जो वास्तविक रूप से अल्पसंख्यक हैं, जिन्हें इन योजनाओं के लाभ मिलने चाहिए- वो इस से वंचित हैं। यह अन्याय है। लक्षद्वीप के 2% हिन्दू बहुसंख्यक नहीं हो सकते।
इसी तरह लक्षद्वीप में 96%, जम्मू एवं कश्मीर में 68%, असम में 34% और पश्चिम बंगाल में 27% लोग मुस्लिम हैं, लेकिन वो अल्पसंख्यक हैं। पश्चिम बंगाल में मुस्लिमों की जनसंख्या उतनी ही है, जितनी यमन और उज़्बेकिस्तान में। सऊदी अरब में उस से कुछ ही ज्यादा मुस्लिमों की जनसंख्या है। इन सभी देशों में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं, जबकि बंगाल में अल्पसंख्यक। इसी तरह उत्तर प्रदेश में इराक़ से भी ज्यादा मुस्लिम रहते हैं। अगर इराक़ में मुस्लिम अल्पसंख्यक का दर्जा माँगने लगे तो यह हास्यास्पद लगे, लेकिन यूपी में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं।
संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा
अगर संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा की बात करें तो UN ने माइनॉरिटी की परिभाषा को समझाते हुए उन्हें ऐसा समुदाय बताया है जिनके रीति-रिवाज़ बाकी की जनसंख्या से भिन्न हो और जिनकी जनसंख्या काफ़ी कम हो। यूनाइटेड नेशन ने साफ़-साफ़ कहा है कि एक समूह जो किसी देश में एक पूरे के रूप में बहुमत का गठन करता है, वह राज्य के किसी विशेष क्षेत्र में गैर-प्रमुख (Non-Dominant) स्थिति में हो सकता है। अगर संयुक्त राष्ट्र के इस कथन को भी ध्यान में रखा जाए तो भारत के कई राज्यों में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना ही मिलना चाहिए। ऐसा इसीलिए, क्योंकि उन राज्यों में बाकी समुदायों के मुक़ाबले उनकी उपस्थिति या जनसंख्या काफ़ी कम है।
क्या अल्पसंख्यक आयोग उचित न्याय कर पाएगा?
अब सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा आदेश पर आते हैं। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को माइनॉरिटी की परिभाषा राज्यों की आबादी के हिसाब से तय करने को कहा है। ऊपर हमने बताया कि 1993 में अस्तित्व में आया राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (National Minority Commission) एक संस्था है, जो माइनॉरिटीज के हितों के लिए कार्य करता है। आयोग में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और पाँच धार्मिक समुदायों (अल्पसंख्यकों) के प्रतिनिधि के तौर पर पाँच सदस्य होते हैं। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने जिस विषय को उठाया है, उसे सिर्फ़ माइनॉरिटी आयोग तय नहीं कर सकता।
अगर हज़ कमेटी को यह तय करने को कहा जाए कि हिन्दुओं को चारधाम यात्रा के दौरान फलां सुविधाएँ मिलनी चाहिए या नहीं, तो यह काफ़ी अज़ीब लगेगा? है न? राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग द्वारा अल्पसंख्यक की परिभाषा तय करने का अर्थ है सिर्फ़ मुस्लिम सदस्यों वाली हज़ कमिटी को अमरनाथ यात्रा के लिए श्रद्धालुओं का चयन करने का अधिकार देना। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग में पाँच धार्मिक समुदायों के प्रतिनिधि तो हैं, लेकिन जो लोग या समुदाय अल्पसंख्यक दर्जे की माँग कर रहे हैं, उनका यहाँ कोई प्रतिनिधित्व नहीं है।
इसे यूँ समझिए। लक्षद्वीप के 2% हिन्दू को अल्पसंख्यक दर्जा दिया जाए या नहीं, यह निर्णय लेने वाली कमेटी में उनके बीच से (हिन्दू समुदाय से) कोई हो ही नहीं, तो वो न्याय की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को वर्तमान व्यवस्था के हिसाब से नियुक्त सदस्य हैं। हो सकता है कि राज्यों की जनसंख्या के आधार पर अल्पसंख्यकों का निर्धारण किया जाए तो दूसरे कई समुदाय के प्रतिनिधि भी इसमें होने चाहिए- क्योंकि इसके गठन का आधार ही यही रहा है।
भारत सरकार को अल्पसंख्यकों की नई परिभाषा तय करने की ज़िम्मेदारी किसी स्वतंत्र कमेटी को देनी चाहिए जिसमे सरकार द्वारा नियुक्त किए गए लोग हों। अगर नहीं, तो राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग में राज्यों आधार पर अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो कई राज्यों में बहुसंख्यक कहलाने को मजबूर अल्पसंख्यकों को शायद ही उचित न्याय मिले।