हाल ही में एक खबर आई है जर्मनी से। जर्मनी की एक टीवी रिपोर्टर ने ऐसा कुछ किया है, जिससे एक बार फिर से पत्रकारिता के मानक पर सवाल उठने लगे हैं। 39 वर्षीय टीवी रिपोर्टर सुजाना ओहलेन ने बाढ़ग्रस्त इलाकों में लोगों की मदद करने का दिखावा करने के लिए झूठी कहानी रच डाली, लेकिन बदकिस्मती से पास से गुजर रहे एक व्यक्ति ने सच्चाई को कैमरे में कैद कर लिया। इसके बाद जब रिपोर्टर का झूठ दुनिया के सामने आया तो उसे नौकरी से निकाल दिया गया।
Das ist die @RTLde Moderatorin Ohlen, die “anpackt” – wie im nachfolgenden RTL-Artikel geschrieben wird.@Hadmut @argonerd pic.twitter.com/l1zFOd1pdc
— Eddie Graf (@Eddie_1412) July 22, 2021
अपनी झूठी कहानी को सच साबित करने के लिए पत्रकार ने पहले कीचड़ को अपने कपड़ों पर लगाया, इसके बाद उन्होंने थोड़ी मिट्टी चेहरे पर भी लगा ली। फिर वो कैमरे के सामने पहुँची और बाढ़ग्रस्त लोगों की मदद के दावे करना शुरू कर दिए। हालाँकि, जब सुजाना ओहलेन अपने कपड़ों पर कीचड़ लगा रही थीं, पास ही मौजूद एक शख्स ने उन्हें कैमरे में कैद कर लिया। शख्स ने वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड किया और कुछ ही देर में यह वायरल हो गया और पत्रकार की नौकरी चली गई।
ये तो बात हो गई जर्मनी की, लेकिन भारत में भी ऐसे पत्रकारों की कमी नहीं है जो नैतिकता को ताक पर रख कर शवों पर, चिताओं पर, शमशान घाटों से रिपोर्टिंग करते हैं। भारत में भी पत्रकारिता के ऐसे कई उदाहरण हैं, जब फैक्ट को अपने हिसाब से फिक्स किया गया। इन एजेंडा पत्रकारों का उद्देश्य है कि चाहे दुनिया भर में देश की बदनामी हो, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को नीचा दिखाने का यह अवसर हाथ से नहीं निकलना चाहिए।
इसके लिए श्मशानों से लाइव रिपोर्टिंग के साथ जलती चिताओं की तस्वीरें छापकर यह बताने की कोशिश की गई कि भारत में स्थिति काफी खराब है और सरकार इसको नियंत्रित करने में नाकाम रही है। हालात को ऐसे पेश किया गया मानो कोरोना से संक्रमित होने वाला हर मरीज मर रहा है, जबकि कोरोना से ठीक होकर घर लौटने वालों के आँकड़े और सरकार के प्रयास नदारद थे।
अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी Reuters के भारत में चीफ फोटोग्राफर दानिश सिद्दीकी ने हिन्दुओं के अंतिम संस्कार और चिताओं की तस्वीरें शेयर कर के पूरी दुनिया में भारत की ऐसी छवि बनाने की कोशिश की, जैसे कोरोना वायरस संक्रमण के लिए हिन्दू ही जिम्मेदार हैं और वही मर रहे हैं। यही नहीं, भावनाओं में बँधी इन तस्वीरों को उन्होंने अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचने के लिए भी रखा। यह हिंदुओं की संवेदनाओं का अनादर है, जो नहीं चाहते कि उनके परिजनों की जलती चिताएँ सार्वजनिक दृश्य बनें।
लेकिन, भारत और हिन्दुओं की भावनाओं का अनादर करते हुए उनकी जलती चिताओं को सरकार पर हमले का हथियार बना दिया गया। जब दानिश की मौत के बाद उनकी तस्वीरें शेयर की जाने लगीं तो लिबरल गिरोह का अनर्गल प्रलाप शुरू हो गया और इसे ‘असंवेदनशील’ बताया जाने लगा।
दानिश की मौत के बाद उन्हें निष्पक्ष और सेक्युलर पत्रकार मानने वालों से पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने कोरोना से मरने वाले मुस्लिम लाश की दफन होती कोई तस्वीर क्यों नहीं खींची थी और उस तस्वीर को वायरल क्यों नहीं किया था? अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में कोरोना से कोई एक या दो नहीं, बल्कि 50 से अधिक मुस्लिम प्रोफेसर मरे थे, पर उनकी तस्वीरें खींचकर दानिश ने वायरल क्यों नहीं किया था?
कोरोना काल में तबलीगी जमात के हजारों लोग पुलिस और डॉक्टर-नर्सों पर सरेआम थूक रहे थे और कोरोना फैला रहे थे। सरेआम थूकने वाले मुस्लिमों की कोई तस्वीर उन्होंने वायरल क्यों नहीं किया था? लॉकडाउन को लागू कराते समय उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान सहित अन्य प्रदेशों में मुस्लिम भीड़ ने सरेआम पुलिस को पीटा, तब मुस्लिम भीड़ की कोई तस्वीर उन्होंने क्यों नहीं वायरल किया था?
सीएए कानून के खिलाफ प्रदर्शनों की तो उन्होंने खूब तस्वीरें खींची थी, लेकिन विरोध प्रदर्शनों के दौरान मुसलमानों द्वारा पत्रकारों और आम लोगों की हुई पिटाई की तस्वीरें दानिश ने क्यों नहीं वायरल किया था? मॉब लिंचिंग में हिंदुओं की हुई बर्बर हत्या की कोई तस्वीर उन्होंने क्यों नहीं वायरल किया था?
फोटो जर्नलिस्ट दानिश ने दिल्ली दंगा से लेकर कुंभ मेला तक, हिन्दुओं को बदनाम करने के लिए कई तस्वीरें क्लिक की थीं। कुंभ की तस्वीरों में कोरोना का जिक्र किया गया था, लेकिन ‘किसान आंदोलन’ की तस्वीरों में भीड़ होने के बावजूद उसका महिमामंडन किया गया था।
वहीं, भारत के एजेंडा पत्रकारों ने जलती चिताओं में अपने निजी हितों की लकड़ी डालकर चिंगारी को और भड़काने का काम किया है। जलती चिताओं की तपिश को विदेशों तक फैलाकर मोदी सरकार की छवि झुलसाने की कोशिश की। कुछ पत्रकारों ने ऐसी टिप्पणियाँ कीं, जो पूरी तरह से देश के हित के खिलाफ है।
बरखा दत्त ने कहा कि भारत एक ‘टूटा हुआ राष्ट्र’ है, जहाँ ‘असंवेदनशीलता और अयोग्यता हमें मार रही’ है। कुछ ही दिनों पहले हमने बरखा दत्त को कैमरे और लैपटॉप सहित सभी साजोसामान के साथ ऐसे ही एक श्मशान में देखा था। गौर करने वाली बात यह है कि सभी पत्रकार हिन्दुओं के ही अंतिम संस्कार स्थलों पर घूमते रहे। एक-एक मौत दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन इसका इस्तेमाल भी ब्रांडिंग और प्रोपेगंडा के लिए हो रहा। बरखा दत्त द्वारा एक श्मशान के बाहर अड्डा जमाकर पूछना कि ‘क्या कोई मुर्दों की गिनती कर रहा है?’, इससे अधिक अनैतिक और क्या हो सकता है।
अब राना अयूब को ही ले लीजिए। राना अयूब खुद को पत्रकार बताती हैं और कई अंतरराष्ट्रीय प्रकाशनों के लिए लिखती भी हैं। उनके अधिकतर लेख भारत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बदनाम करने के इरादे से लिखे गए होते हैं। फिलहाल ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ ने उन्हें ग्लोबल एडिटर बना रखा है। Time, NYT, गार्डियन, FP और ‘द न्यूयॉर्कर’ जैसे मीडिया संस्थानों ने उन्हें लिखने के लिए जगह दी है। हाल ही में उन्होंने गंगा में लाशें बहने और कोरोना को लेकर दुनिया भर में भारत को बदनाम करने का प्रयास किया था।
कोविड-19 के लिए फंड्स इकट्ठा करने का दावा करने वाली राना अयूब को लेकर विवाद भी हुआ था। आशंका जताई गई थी कि इस कैम्पेन में वह देश के FCRA कानूनों का उल्लंघन कर रही हैं। बाद में उन्होंने इस फंड्स कैम्पेन को समाप्त कर दिया। कोरोना के दौरान उन्होंने ये फेक न्यूज़ भी फैलाया था कि साढ़े चार वर्ष का एक प्रवासी बच्चा दूध न मिलने के कारण श्रमिक ट्रेन से रेलवे स्टेशन तक पहुँचने से पहले ही मर गया।
NDTV के प्रोपेगेंडा पत्रकार रवीश कुमार अक्सर फेक न्यूज़ फैलाते पाए जाते हैं। पिछले दिनों उन्होंने बड़ी चालाकी से अपनी धूर्तता को छोटी-सी गलती की तरह दिखाते हुए माफी माँगने का ढोंग भी रचा। ‘किसान आंदोलन’ की आग में घी डालने के लिए रवीश ने कृषि उत्पाद खरीद मामले में सरकार पर ही गलत आँकड़े पेश करने का आरोप मढ़ दिया था। जिसके बाद उन्होंने फेसबुक पर इसे ‘गलती’ बताते हुए ‘सार्वजनिक सूचना’ दिया।
अब आप जरा स्थिति को उलटा कर के देखिए। मान लीजिए कि सरकार की जगह किसान संगठनों ने कोई आँकड़ा दिया होता और सुधीर चौधरी या अर्णब गोस्वामी ने उसे गलत रूप में पेश कर दिया होता तो फिर यही वामपंथी मीडिया उन दोनों पर किसान विरोधी होने का तमगा लगा कर हल्ला मचा रहा होता और सोशल मीडिया में भी मजाक बनाया जाता। लेकिन, चूँकि मामला रवीश कुमार का था, इसीलिए सब जान-बूझ कर गहरी नींद में सोते रहे।
गुलाम भारत में पत्रकारिता एक जोखिम भरा काम था, एक मिशन थी पत्रकारिता। आज पत्रकारिता बीच बाजार खड़ी है बिकने को तत्पर, खुद को और खुद की गढ़ी खबरों को बेचने की जुगत में। मिशन की डगर से चली पत्रकारिता विभिन्न पड़ावों से चलती आज बीच बाजार में खड़ी है। तल्ख हकीकत ये है कि आज गलाकाट व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा ने मूल्यों, मानकों को हाशिये पर धकेल दिया है। तकनीकी दृष्टि से पत्रकारिता समृद्ध होती नजर आती है, पर नैतिकता व मूल्यों की कसौटी पर हम पत्रकारिता के पतनकाल से रूबरू हैं।
रेटिंग की होड़, एक्सक्लूसिव की मृग मरीचिका में फँसी पत्रकारिता अब अपुष्ट खबरों को परोसने से भी परहेज नहीं करती। आलम यह है कि रेटिंग की भूख और एक्सक्लूसिव की मृग मरीचिका के शिकार मीडिया हाउस खबरें पैदा करने लगे हैं। बाजारीकरण का घुन मीडिया की विश्वसनीयता को चाट रहा है। पेड खबरों के बाद अब मीडिया का एक नया चेहरा हमारे सामने है। छवि बनाने, छवि बिगाड़ने की सुपारी ली जाने लगी है। इन सबको देख कर तो यही लगता है कि पत्रकार और कुछ नहीं, पिपली लाइव ही है।