उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी (बसपा/BSP) की स्थिति से आज सब अच्छे से वाकिफ हैं। प्रचार में दिन पर दिन तेजी तो छोड़िए बसपा के नाम पर होने वाली किसी रैली की खबर भी मुश्किल से खबरों में आ रही है। पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने ही दो दिन पहले इन चुनावों के मद्देनजर आगरा रैली की तो लगा चुनावी पार्टी होने के नाते कोई औपचारिकता है जिसे प्रचार के दौरान पूरा किया जा रहा है, वरना उनका इससे भी मन उठ गया है…।
इन चुनावों में बसपा के जो हाल हैं उन्हें देखना देश के लिए इसलिए भी अचंभित करने वाला है क्योंकि इस पार्टी का गठन एक सपने के साथ दलित नेता कांशीराम द्वारा किया गया था। उनके प्रयासों का ही नतीजा था कि एक समय तक बहुजन समाज पार्टी ने अन्य सभी पार्टियों को पछाड़कर अपनी जगह कायम की थी। लेकिन आज उनकी विचारधारा से भटकने के बाद पार्टी के हाल ऐसे हैं कि कोई न उन्हें पूछ रहा है और न कोई उनका साथ दे रहा है। हर जगह पार्टी के हाल खस्ता हैं और कुर्सी की लड़ाई में उनका दूर-दूर तक नाम नहीं है।
आइए यूपी चुनावों से पहले आज एक बार फिर उस दौर को याद करें जब सत्ता के लिए संघर्ष करने वाली बहुजन समाज पार्टी का गठन हुआ था और दलितों के सबसे बड़े नेता कांशीराम ने मायावती को राजनीति में एंट्री दिलाकर उन्हें दलितों का चेहरा बनाया था।
कांशीराम द्वारा बहुजन समाज पार्टी का गठन और मायावती की एंट्री
वो समय 1984 का था जब डॉ भीम राव अंबेडकर के बाद सबसे बड़े दलित नेता कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की शुरुआत की थी। कांशीराम ही वह शख्सियत थे जिन्होंने विभिन्न पार्टियों में मौजूद दलित नेताओं को छांटकर उन्हें महसूस कराया कि एक पार्टी ऐसी होनी चाहिए जो दलितों के लिए समर्पित हो। अपने जमीनी कार्यों की बदौलत 14 अप्रैल 1984 को उन्होंने बहुजन समाज पार्टी को राजनीति अखाड़े में उतारा और तमाम दलित हितैषियों को अपने साथ जोड़ते गए। इसी क्रम में उन्हें आईएएस बनने का सपना देखने वाली मायावती भी मिलीं, जहाँ कांशीराम ने मायावती की क्षमता देख उनसे कहा कि अगर वो उनके साथ जुड़ती हैं तो वो उस मुकाम तक जाएँगी जहाँ सैंकड़ों आईएएस उनके आदेशों का पालन करेंगें।
बताया जाता है कि आपातकाल के बाद राजनीति के चर्चित नाम राजनारायण ने दिल्ली की उस सभा को संबोधित करते हुए बार-बार ‘हरिजन’ शब्द का प्रयोग किया था, जहाँ मायावती भी मौजूद थीं और जिन्होंने राजनारायण को टोंकते हुए उन्हें हरिजन शब्द इस्तेमाल करने पर जमकर कोसा था। इसके बाद मायावती की जगह-जगह तारीफें हुईं और कांशीराम को भी इस संबंध में पता चला। मायावती की बेबाकी देख कांशीराम उनसे मिलने उनके घर गए और उन्हें अपने साथ जुड़ने को कहा। हालाँकि मायावती ने उन्हें बताया कि वो IAS बनना चाहती हैं, जिस पर कांशीराम ने उन्हें समझाया कि अगर वह उनके साथ जुड़ती हैं तो कई आईएएस उनके आदेशों को मानेंगे।
मायावती का चुनावी सफर
कांशीराम के कहने पर मायावती की जब राजनीति में एंट्री हुई तो धीरे-धीरे दलितों के बीच वह बड़ा चेहरा बनतीं गई। 1984 में बसपा ने उन्हें कैराना से चुनाव लड़ाया। 1985 में वो बिजनौर से उतारी गईं और 1987 में उन्होंने हरिद्वार में अपनी किस्मत आजमाई। हालाँकि राजनीति में उन्हें पहली सफलता 1989 को मिली जब वो बिजनौर से जीतीं। इसके बाद 1994 में भी वो राज्यसभा के लिए चुनीं गई। लेकिन असली किस्मत उनकी तब पलटी जब बसपा ने 3 जून 1995 को मायावती को यूपी का मुख्यमंत्री बना दिया।
देश के सबसे बड़े राज्यों में शुमार यूपी की मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती की लोकप्रियता अलग स्तर पर पहुँच गई थी। उधर गेस्ट हाउस कांड के कारण भी उनकी चर्चा जगह-जगह थी। साल 1997 में मायावती ने दोबारा सीएम पद की शपथ ली। फिर 15 दिसंबर 2001 को वो दिन भी आया जब कांशीराम ने मायावती को इस पार्टी का प्रमुख बना दिया और कुछ सालों में धीरे-धीरे राजनीति से गायब होते गए। पार्टी में उनकी सक्रियता खत्म होते ही पार्टी के दिन भी ढलने लगे। मायावती के नेतृत्व में न केवल बसपा पर कांशीराम की विचारधारा से भटकने के आरोप लगे बल्कि 2006 में दलितों के दिग्गज नेता की मृत्यु के बाद उसके इल्जाम से भी मायावती अछूती नहीं रहीं।
कांशीराम की मौत के लिए मायावती जिम्मेदार?
स्वयं दलित नेता के परिजनों ने उनकी मृत्यु के लिए मायावती को जिम्मेवार माना। साल 2014 की एक रिपोर्ट के अनुसार, कांशीराम के परिजनों ने मायावती पर आरोप लगाया था कि पार्टी में रहते हुए मायावती ने कांशीराम पर पार्टी अध्यक्ष बनने के लिए दबाव बनाया था। इसके साथ ही उन्हें तड़पाकर मारने, उन्हें उनकी माँ से अलग रखने, उनकी जुबान बंद करने की जिम्मेदार भी मायावती को कहा जाता है। साल 2014 में कांशीराम के परिवार ने मायावती को तानाशाह बताते हुए दावा किया कि वो मायावती हीं थीं जिन्होंने कांशीराम को उनकी माँ से अलग किया था और बाद में उनकी माँ उनके गम में चल बसीं थीं।
बसपा का UP में गिरता ग्राफ
कांशीराम की मौत के अगले ही साल 2007 में मायावती ने राज्य में 206 सीटों के साथ एक बड़ी जीत हासिल की थी, मगर उसके बाद के सालों में बसपा का ग्राफ राज्य में लगातार गिरता गया। 2012 में समाजवादी पार्टी ने मोर्चा मारा और 2017 में भारतीय जनता पार्टी ने राज्य में प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाई। वहीं, कांशीराम की वो बसपा डूबती गई जिसे लेकर कभी अनुमान थे कि वो बहुजनों की राजनीति कर नई ऊँचाई हासिल करेगी।
आज साल 2022 के यूपी चुनावों में भी बहुजन समाज पार्टी की हालत एकदम खस्ता है। मायावती की बसपा से तमाम नेता अलविदा कह रहे हैं। रिपोर्ट्स के अनुसार साल 2017 के चुनावों में बहुजन समाज पार्टी के 19 विधायक चुने गए थे लेकिन आज इन पार्टी विधायकों की संख्या केवल और केवल 4 ही बाकी बची है। लोग हैरान है कि जो मायावती राज्य में 4 बार शासन कर चुकी हैं। पार्टी को उभारने के लिए 4 बार प्रदेश अध्यक्षों को बदल चुकी हैं। उनकी पार्टी की हालत इतनी खस्ता कैसे है कि अब उसमें केवल 4 विधायक ही शेष हैं, जिनके कारण वह न केवल कॉन्ग्रेस बल्कि भाजपा की सहयोगी पार्टी अपना दल तक से पीछे हैं।