Sunday, December 22, 2024
Homeराजनीतिजिनसे अपनी पार्टी नहीं संभल रही, वो नीतीश चले BJP को 100 पर समेटने:...

जिनसे अपनी पार्टी नहीं संभल रही, वो नीतीश चले BJP को 100 पर समेटने: यहाँ जितनी पार्टी उतने PM उम्मीदवार, कुछ खामोश खिलाड़ी भी राह में रोड़ा

नीतीश कुमार का बिहार में कितना प्रभुत्व है इसका पता इससे भी चल जाता है कि नरेंद्र मोदी के उदय के बाद साल 2013 में उन्होंने भाजपा से नाता तोड़ लिया और साल 2014 के लोकसभा चुनाव में अकेले उतरे। बिहार की कुल 40 सीटों में वे सिर्फ दो सीटें जीतने में कामयाब रहे।

भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने कहा कि नीतीश कुमार पूर्व प्रधानमंत्री एडडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल की तरह बनना चाहते हैं। दरअसल बिहार में लगभग 18 सालों से मुख्यमंत्री रहने वाले नीतीश कुमार अब प्रधानमंत्री के सपने देख रहे हैं। ये सपने वे अपने जदयू के भरोसे पूरा नहीं कर सकते तो वे गठबंधन बनाने की बात कर रहे हैं।

दरअसल 1990 का दशक गठबंधन का दशक था। इस दौरान जनता फ्रंट में कई दलों के साथ एचजी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने, लेकिन दोनों एक साल का कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाए। आपसी खींचातान में दोनों को इस्तीफा देना पड़ा था। रविशंकर भी नीतीश कुमार को वही याद याद दिला रहे हैं।

नीतीश कुमार आजकल भाजपा के खिलाफ गठबंधन बनाने के लिए देश भर में घूम रहे हैं और विपक्षी दलों के नेताओं से मिल रहे हैं। अपने महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए वे उस पार्टी के साथ भी हाथ मिला लिए, जिसका विरोध करके वे पिछले 10 सालों तक भाजपा से साथ रहे। लेकिन, दूसरी बार भाजपा से नाता तोड़कर वे लालू प्रसाद यादव के खेमे में जा पहुँचे हैं।

नीतीश कुमार के इस कदम को मौकापरस्ती का नाम दिया गया। हालाँकि, राजनीति में मौकापरस्ती या विरोधी जैसा कोई शब्द नहीं होता। वहाँ होता है सिर्फ सत्ता। बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की JDU और तेजस्वी यादव की RJD का गठबंधन इसी सत्ता के बँटवारे पर आधारित है। बिहार में जब वे दूसरी बार राजद के साथ मिले थे, कहा जाता है कि अंदरखाने में डील हुई थी कि नीतीश कुमार 2024 के पहले बिहार की बागडोर तेजस्वी को सौंप देंगे और वे केंद्र की राजनीति की ओर बढ़ेंगे।

ये बात कुछ सच भी लगती है कि क्योंकि समय-समय उनके मुखर विरोधी राजद उन्हें पीएम मैटेरियल बताते रहता है। राजद-जदयू के पहली बार के गठबंधन में ये सामंजस्य नहीं दिखता था और नीतीश कुमार के खिलाफ उनके सहयोग राजद की तरफ से आते रहते थे। नीतीश कुमार प्रधानमंत्री के सपने अब सिर्फ देख नहीं रहे हैं, बल्कि अब उसे जी रहे हैं। इसके लिए वे विपक्ष के नेताओं से लगातार मिल भी रहे हैं।

कुछ दिन पहले नीतीश कुमार सीपीआई एमएल के राष्ट्रीय अधिवेशन में भी शामिल हुए। यहाँ से उन्होंने यह कहकर कॉन्ग्रेस को संदेश भेजा कि अगर सभी विपक्षी दल साथ आ गए तो भाजपा को 100 सीटें लानी भी मुश्किल हो जाएँगी। उन्होंने कॉन्ग्रेस को आने के लिए भी कहा। हालाँकि, कॉन्ग्रेस ने उनके बयान को महत्व दिया और कहा कि कॉन्ग्रेस भी यही चाहती है। सवाल ये था पहले ‘आई लव यू’ कौन कहे?

कॉन्ग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने कहा ने नीतीश कुमार का जवाब देते हुे कहा था कि जो उनकी मंशा है, वही कॉन्ग्रेसे की है। उन्होंने कहा, हालाँकि, स्थिति उन दो प्रेमियों की तरह है जो अपना समय यह तय करने में लगा रहे हैं कि पहले आई लव यू किसको बोलना चाहिए। कभी-कभी ऐसा होता है, जब अनुभवहीन प्रेमी पहले कदम उठाने से हिचकता है।”

अब यहाँ सबसे बड़ा सवाल ये ही कि अनुभवहीन प्रेमी कौन है। कौन अनुभवी है। जदयू या कॉन्ग्रेस? यहाँ कॉन्ग्रेस ही खुद को अनुभवी कहेगी। ऐसे में नीतीश के नेतृत्व को स्वीकार करने की संभावना बेहद कम है। राहुल गाँधी पिछले कुछ महीनों की कन्याकुमारी से कश्मीर तक की अपनी 3500 किलोमीटर तक की यात्रा पूरी किए हैं। ऐसे में कॉन्ग्रेस राहुल गाँधी के सिवाय किसी और को स्वीकार नहीं करेगी। 24 फरवरी 2023 को रायपुर में होने वाली कॉन्ग्रेस के 85वें अधिवेशन में यह साफ भी हो जाएगा।

पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भी तृणमूल कॉन्ग्रेस की मुखिया और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कुछ ऐसा ही पहल किया था। उस समय भी नेतृत्व को लेकर सवाल उठा था और कॉन्ग्रेस ने स्पष्ट कर दिया कर दिया था कि वह किसी नेतृत्व में काम नहीं करेगी, बल्कि विपक्ष को कॉन्ग्रेस के नेतृत्व में काम करना चाहिए।

बात सिर्फ नीतीश कुमार और राहुल गाँधी की होती तो संभवत: समाधान निकल भी आता है, लेकिन यहाँ तो जितनी पार्टी उतने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। एनसीपी प्रमुख शरद पवार, टीएमसी की मुखिया ममता बनर्जी, बसापा की मुखिया मायावती से लेकर तेलंगाना के मुखिया केसीआर खुद ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। ऐसे में किसी एक छत्र के नेता इन नेताओं का इकट्ठा होना टेढ़ी खीर नजर आ रहा है।

ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी बिल्कुल खामोश हैं। उनके विपक्षी चंद्रबाबू नायडू पहले कह दिया है कि इस बार का चुनाव उनका आखिरी होगा। यानी वे अब सक्रिया राजनीति में नहीं रहेंगे। ऐसे में उनके लिए साथ या विरोध बेमानी बन जाता है। केसीआर अलग ही चौथा मौर्चा बना रहे हैं। ऐसे में पूरे विपक्ष को एकछत्र के नीचे आने की आशा कम ही है।

इतने सब कद्दावर नेताओं के बीच नीतीश कुमार की प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी कितनी ताकतवर है, उसका अंदाजा इस बात से भी से लगा सकता है कि उपर कहे गए नेताओं में अधिकांश नेता ना सिर्फ अपनी-अपनी पार्टी सर्वेसर्वा और निर्विवाद नेता हैं, बल्कि अपने-अपने राज्यों में बहुमत की सरकार भी चला रहे हैं। इधर नीतीश कुमार के नेतृत्व उनकी ही पार्टी के नेता स्वीकार नहीं कर रहे तो दूसरे दलों की संभावना और भी कम हो जाती है। नीतीश कुमार के लिए जीतनराम माँझी, आरसीपी सिंह के बाद अब उपेंद्र कुशवाहा समस्या बन गए हैं।

अगर पार्टी के अंदरूनी विरोध को छोड़ भी दें तो उनकी पार्टी जदयू का ऐसा कोई परफॉरमेंस नहीं है, जिससे विपक्षी नेता उन्हें राजनीति का चाणक्य मानकर उन्हें नेतृत्व को स्वीकार कर लें। नीतीश कुमार खुद भाजपा की नैया में बैठकर चुनाव की नदी पार करते रहे हैं और अहसान की कुर्सी संभालते रहे हैं। भाजपा के अलग होने के बाद यह काम राजद कर रही है, लेकिन बिना सहारे के जदयू अपंग जैसी है।

नीतीश कुमार का बिहार में कितना प्रभुत्व है इसका पता इससे भी चल जाता है कि नरेंद्र मोदी के उदय के बाद साल 2013 में उन्होंने भाजपा से नाता तोड़ लिया और साल 2014 के लोकसभा चुनाव में अकेले उतरे। बिहार की कुल 40 सीटों में वे सिर्फ दो सीटें जीतने में कामयाब रहे।

साल 2015 का बिहार विधानसभा चुनाव महागठबंधन के नाम से वे राजद, कॉन्ग्रेस और कम्युनिष्ट पार्टी के साथ लड़े। इसमें सबसे अधिक राजद को हुआ। यह चुनाव राजद के मृतसंजीवनी की तरह था। इसमें राजद 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। इसके बाद जदयू को 71 सीटें मिली। इसके बाद वे 2017 में गठबंधन से अलग होकर साल 2019 का चुनाव फिर भाजपा के साथ लड़े। इसमें उन्हें 16 सीटें मिलीं।

इस तरह नीतीश कुमार उस राज्य में ही कोई प्रभाव नहीं है, जहाँ वे पिछले 18 सालों से वे मुख्यमंत्री हैं। दूसरे राज्यों में तो उनका ना ही नाम है और ना ही जनाधार। ऐसे में कोई नेता उनका नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं होगा। हालाँकि, पिछले कुछ दिनों यह कहकर कि वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं, सिर्फ भाजपा को हटाने के लिए विपक्षी दलों को एकजुट कर रहे हैं, अपनी छवि सबसे बड़ी भाजपा विरोधी के तौर पर बनाना चाह रहे हैं।

इसके साथ ही खुद को एक ऐसे नेता के तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं तो ईमानदार है और उसे किसी पद की चाहत नहीं है, ताकि किसी भी रूकावट की स्थिति में अंतिम विकल्प के तौर पर उनके नाम पर विचार किया जा सके। हालाँकि, इसकी भी संभावना नगण्य है, लेकिन राजनीति चौसर की बिसात है जहाँ नींद में सोते हुए व्यक्ति को जगाकर कह दिया जाता है कि वे प्रधानमंत्री पद का शपथ ग्रहण करे। रविशंकर इन्हीं इंद्र कुमार गुजराल की स्थिति का हवाला नीतीश कुमार को दे रहे हैं कि देखो गठबंधन का क्या हश्र होता कि सरकार 1 साल भी नहीं चल पाती।

Join OpIndia's official WhatsApp channel

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

सुधीर गहलोत
सुधीर गहलोत
प्रकृति प्रेमी

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

किसी का पूरा शरीर खाक, किसी की हड्डियों से हुई पहचान: जयपुर LPG टैंकर ब्लास्ट देख चश्मदीदों की रूह काँपी, जली चमड़ी के साथ...

संजेश यादव के अंतिम संस्कार के लिए उनके भाई को पोटली में बँधी कुछ हड्डियाँ मिल पाईं। उनके शरीर की चमड़ी पूरी तरह जलकर खाक हो गई थी।

PM मोदी को मिला कुवैत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘द ऑर्डर ऑफ मुबारक अल कबीर’ : जानें अब तक और कितने देश प्रधानमंत्री को...

'ऑर्डर ऑफ मुबारक अल कबीर' कुवैत का प्रतिष्ठित नाइटहुड पुरस्कार है, जो राष्ट्राध्यक्षों और विदेशी शाही परिवारों के सदस्यों को दिया जाता है।
- विज्ञापन -