फरवरी 2020 के अंतिम सप्ताह में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में भयंकर हिन्दू-विरोधी दंगे हुए, जिनमें कई लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी। मीडिया ने कपिल मिश्रा को इसके लिए दोष दे दिया, क्योंकि उन्होंने उपद्रवियों से सड़कें खाली कराने को कहा था। लेकिन, जो असली दोषी सामने आए, उन्हें बचाने के लिए मीडिया का एक बड़ा वर्ग खड़ा हो गया। आप के निलंबित निगम पार्षद ताहिर हुसैन का इन दंगों में बड़ा रोल सामने आया है। फैसल फ़ारूक़ की राजधानी स्कूल से हिन्दुओं पर हमले किए गए। मोहम्मद शाहरुख़ नामक व्यक्ति पुलिस पर फायरिंग करता हुआ सड़कों पर बेख़ौफ़ घूमता रहा। फ़िलहाल ये तीनों ही पुलिस के शिकंजे में हैं। इस्लामी भीड़ की क्रूरता की एक से बढ़ कर एक दरिंदगी सामने आई है। मसलन, अंकित शर्मा को 400 से अधिक बार चाकुओं से गोदना। दिलबर नेगी के हाथ-पैर काट कर जिंदा आग में झोंक देना।
क्या आपको पता है, आज से एक दशक पहले हमारे देश में एक ऐसा क़ानून बनने जा रहा था, जिससे इन दंगाइयों को सज़ा मिलना मुश्किल हो जाता और उन पर कार्रवाई नहीं हो पाती। जैसा कि सर्वविदित है, यूपीए सरकार के दौरान कॉन्ग्रेस अध्यक्ष गाँधी राष्ट्रीय सलाहकार समिति की मुखिया होती थीं और परदे के पीछे रह कर मनमोहन सरकार चलाया करती थीं। जो भी क़ानून बनते थे, क़ानूनी संशोधन पारित होते थे या बिल तैयार होते थे, उन सब पर सोनिया की छाप रहती थी।
ऐसा ही एक बिल 2011 में तैयार किया गया था। इसका मसौदा राष्ट्रीय सलाहकार समिति ने बनाया था। इसका नाम था- सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक। अगर ये क़ानून बन गया होता तो बहुसंख्यक हिन्दू पीड़ित होकर भी अपराधी की श्रेणी में आते और कथित अल्पसंख्यक दंगे कर के भी पीड़ित कहे जाते। हिन्दुओं को बिना कुछ किए ही सज़ा मिलती। इस क़ानून के 2 मुख्य उद्देश्य थे। पहला उद्देश्य था, हिंदूवादी संगठनों का दमन करना और दूसरा लक्ष्य था अल्पसंख्यक वोटरों को रिझाना। संघीय ढाँचे को ध्वस्त करने की पूरी तैयारी थी, क्योंकि क़ानून-व्यवस्था का मसला राज्य के जिम्मे आता है।
आपको बताते हैं कि इस क़ानून के ड्राफ्ट को तैयार करने वालों में कौन लोग शामिल थे। हर्ष मंदर, जो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर भी विश्वास नहीं करता है और कहता है कि फैसला सड़कों पर होगा। इसके अलावा जॉन दयाल और तीस्ता सीतलवाड़ जैसे नक्सली भी इस कमिटी में शामिल थे। तीस्ता आज विदेशी फंडिंग के मामले में कार्रवाई का सामना कर रही हैं। जॉन दयाल ‘ऑल इंडिया कैथोलिक यूनियन’ का अध्यक्ष रहा है। सैयद शहाबुद्दीन भी इस कमिटी में शामिल था। नियाज फारुखी, शबनम हाश्मी और फराह नकवी जैसे हिन्दू-विरोधी तो थे ही। आप सोचिए, उस कमिटी ने दंगों के मामले में कैसा क़ानून बनाया होगा?
जस्टिस मुरलीधर की पत्नी उषा रामनाथन भी इस क़ानून का ड्राफ्ट तैयार करने वालों में शामिल थीं। वो आधार के ख़िलाफ़ एक्टिविज्म करती रही हैं। इस क़ानून में दावा किया गया था कि ये एक समूह की सुरक्षा के लिए लाया गया है। आप समझ गए होंगे, उस समूह से क्या आशय रहा होगा। अल्पसंख्यकों के विरुद्ध घृणा का आरोप लगा कर हिन्दुओं को प्रताड़ित करना। अगर कोई हिन्दू किसी समुदाय विशेष वाले को अपना मकान बेचने से मना कर दे, फिर भी घृणा जैसे आरोप लग जाते। विश्व हिन्दू परिषद् के प्रवक्ता विनोद बंसल ने तब इन क़ानून का अध्ययन करने के बाद इसकी आलोचना करते हुए लिखा था:
“भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुसार किसी आरोपी को तब तक निरपराध माना जाएगा जब तक वह दोषी सिद्ध न हो जाए; परन्तु, इस विधेयक में आरोपी तब तक दोषी माना जाएगा जब तक वह अपने-आपको निर्दोष सिद्ध न कर दे। इसका मतलब होगा कि किसी भी गैर हिन्दू के लिए अब किसी हिन्दू को जेल भेजना आसान हो जाएगा। वह केवल आरोप लगाएगा और पुलिस अधिकारी आरोपी हिन्दू को जेल में डाल देगा। यदि किसी संगठन के कार्यकर्ता पर साम्प्रदायिक घृणा का कोई आरोप है तो उस संगठन के मुखिया पर भी शिकंजा कसा जा सकता है।“
अब आप समझ जाइए, इस क़ानून के लागू होते ही हिन्दुओं का क्या हाल हो जाता? अब थोड़ी सी बात इस बिल के तकनीकी पहलुओं पर करते हैं। यह क़ानून दलित विरोधी भी था, क्योंकि यदि कोई हिंसा समुदाय विशेष और अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजातियों के मध्य होती तो उस स्थिति में यह विधेयक समुदाय विशेष का साथ देता और इस प्रकार दलितों की रक्षा के लिए बना हुआ दलित एक्ट भी निष्प्रभावी हो जाता। अगर किसी हिन्दू महिला के साथ बलात्कार की घटना होती तो इस क़ानून के अंतर्गत कार्रवाई नहीं होती। सोचिए, इतना जघन्य अपराध कर के भी दंगाई बच निकलते तो पत्थरबाजी, गोलीबारी और बमबारी करने वालों के लिए ये क़ानून कितने बड़े ढाल का काम करता!
ताहिर हुसैन आज पुलिस के शिकंजे में नहीं होता, उलटा दिवंगत आईबी ऑफिसर अंकित शर्मा के परिवार पर ही कार्रवाई हो रही होती। फ़ारूक़ फैसल गिरफ़्तार नहीं होता, उलटा प्राचीन हनुमान मंदिर की रक्षा के लिए जान हथेली पर रखने वाले हिन्दू ही जेल में होते। दिलचस्प बात ये है कि हिन्दुओं के ख़िलाफ़ घृणा फैलाने वालों को लेकर इस बिल में कुछ नहीं लिखा था, जबकि ‘समूह’ वाले मामले में कड़ी सज़ा मिलती। अपराध अगर ‘समूह’ के ख़िलाफ़ हो तो पुलिस अधिकारी तक पर कार्रवाई का प्रावधान था।
सबसे बड़ी बात तो ये कि अगर किसी हिंदूवादी संगठन के किसी साधारण कार्यकर्ता तक पर कोई झूठे आरोप भी लगते तो न सिर्फ़ वो संगठन बल्कि उसके मुखिया व वरिष्ठ पदाधिकारियों तक पर कार्रवाई का रास्ता साफ़ हो जाता। उससे पूछा जाता कि उसने अपने कार्यकर्ता को नियंत्रण में क्यों नहीं रखा? इस बिल के दस्तावेज में बार-बार ‘ग्रुप’ यानी ‘समूह’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका स्पष्ट अर्थ अल्पसंख्यकों से था। क्या इस क़ानून से वहाँ हिन्दुओं को फायदा मिलता, जहाँ वो अल्पसंख्यक हैं? उत्तर है- नहीं। अगर ये आँकड़ा हिन्दुओं के पक्ष में न्यूनतम 60:40 का न हो तो भी उन्हें ही सज़ा मिलती।
यानी, सोनिया गाँधी का सीधा मानना था कि हिन्दू कभी पीड़ित हो ही नहीं सकते और कथित अल्पसंख्यक कभी कोई अपराध कर ही नहीं सकते। तब राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे अरुण जेटली ने भी इस बिल पर हमला करते हुए यही बात कही थी। उन्होंने इसे ‘बहुत ज्यादा भेदभाव करने वाला बिल’ करार दिया था। उन्होंने कहा था कि बिना इससे प्रभावित होने वाले लोगों से बातचीत किए हुए इस बिल का प्रारूप तैयार किया गया है, जिसका एकमात्र उद्देश्य देश में ध्रुवीकरण का माहौल तैयार करना है।
तभी संघीय ढाँचे, सेकुलरिज्म, बराबरी का अधिकार और दलितों को मिले अधिकारों को ताक पर रख कर न सिर्फ़ इस क़ानून का मसौदा तैयार किया गया, बल्कि इसे पास कराने के लिए जोर भी लगाया गया। तब इसे लेकर हुई बैठक का गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहिष्कार किया था। बिहार के सीएम नीतीश कुमार और ओडिशा के उनके समकक्ष नवीन पटनायक भी नहीं पहुँचे थे। जेटली ने ये बातें 2013 में कही थी और याद दिलाया था कि 2011 में भी इसका विरोध हुआ था।
Harsh Mander was member of Sonia Gandhi National Advisory Council which drafted nauseatingly anti-Hindu Communal Violence Bill. He has also been very active in filing petition in Court n has found himself in heart of violent protest against #CAA @INCIndia https://t.co/8U5woiU3VR
— Hemir Desai (@hemirdesai) March 6, 2020
इस बिल की की धारा-8 के अनुसार, ‘हेट प्रोपेगेंडा’ अथवा ‘घृणा या दुष्प्रचार’ सिर्फ़ ‘समूह’ के ख़िलाफ़ ही होता है और इसके अंतर्गत सज़ा भी उन्हें ही मिलती जो ‘समूह’ के ख़िलाफ़ कुछ भी लिखित में या बोल कर उसे ठेस पहुँचाते। ठेस पहुँचाने की तो छोड़िए, आरोप भी लग जाते तो कार्रवाई होती। यानी, इस क़ानून के अंतर्गत भारतीय न्याय-व्यवस्था का भी अपमान होता, क्योंकि व्यक्ति तब तक एक तरह से दोषी माना जाता, जब तक वो ख़ुद को निर्दोष न सिद्ध कर दे।
घृणा फैलाने में कोई कार्टून, चित्र या फिर सिंबल भी आ जाता। लेकिन इससे ‘फक हिंदुत्व’ का पोस्टर लहराने वाले, देश के नक़्शे के साथ छेड़छाड़ करने वाले और माँ काली का अपमान करने वाले दंगाई बच निकलते, क्योंकि हिन्दू तो उस ‘समूह’ के अंतर्गत आता ही नहीं। ‘संगठित अपराध’ की परिभाषा को भी इस बिल ने छिन्न-भिन्न कर के रख दिया था। अगर कोई व्यक्ति किसी संगठन का सदस्य है और उसके लिए सक्रिय न भी हो, तब भी उस पर लगे आरोपों के लिए ‘संगठित अपराध’ का मुक़दमा चलता। इतना ही नहीं, उस संगठन या व्यक्ति को वित्तीय रूप से मदद करने वाली संस्थाएँ या लोग भी कार्रवाई की जद में आ जाते।
सोचिए, यूपीए सरकार को अगर एक और कार्यकाल मिल जाता और उसके पास पूर्ण बहुमत होता तो इस देश में हिन्दुओं पर कितना बड़ा अत्याचार हो रहा होता! किसी मजहबी द्वारा आरोप लगाने भर से संगठन, व्यक्ति, अधिकारी या संस्था पर कार्रवाई हो जाती और अदालतों के चक्कर काटने पड़ते। ताहिर हुसैन और फ़ारूक़ फैसल जैसे दंगाई आज कार्रवाई का सामना कर रहे हैं, क्योंकि ये क़ानून अस्तित्व में नहीं है। इसका तब घोर विरोध हुआ था।
(इस बिल का प्रारूप पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें)