1974 में इंदिरा गाँधी द्वारा श्रीलंका को सौंपे गए कच्चातिवु द्वीप का मुद्दा अब केंद्र सरकार मुखर होकर उठा रही है। तमिलनाडु में भाजपा अध्यक्ष अन्नामलाई की आरटीआई के बाद पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कॉन्ग्रेस को इस मामले पर घेरा और अब विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी बयान दिया है। उन्होंने कहा कि हम जानते हैं कि ये द्वीप श्रीलंका को देने का काम किसने किया, लेकिन हमें ये जानने का भी अधिकार है कि इसे छिपाने का प्रयास किसने किया।
विदेश मंत्री जयशंकर ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “1974 में साल भारत और श्रीलंका के बीच एक समझौता हुआ था। दोनों देशों ने उसपर हस्ताक्षर किए थे। उसके बाद कॉन्ग्रेस की तब की सरकार ने एक समुद्री सीमा खींची और समुद्री सीमा खींचने में कच्चातिवु को सीमा के श्रीलंकाई पक्ष पर रखा गया।”
जयशंकर कहते हैं, “हम जानते हैं कि यह किसने किया, यह नहीं पता कि इसे किसने छुपाया। हमारा मानना है कि जनता को यह जानने का अधिकार है कि यह स्थिति कैसे उत्पन्न हुई।”
#WATCH दिल्ली: कच्चातिवु मुद्दे पर विदेश मंत्री और भाजपा नेता डॉ. एस जयशंकर ने कहा, "हम जानते हैं कि यह किसने किया, यह नहीं पता कि इसे किसने छुपाया… हमारा मानना है कि जनता को यह जानने का अधिकार है कि यह स्थिति कैसे उत्पन्न हुई।" pic.twitter.com/47Cyu84ngp
— ANI_HindiNews (@AHindinews) April 1, 2024
उन्होंने जानकारी दी कि 20 सालों में 6184 भारतीय मछुआरों को श्रीलंका में हिरासत लिया गया है और इसी समयकाल में 1175 भारतीय मछली पकड़ने वाली नौकाओं को भी श्रीलंका ने जब्त किया है। उन्होंने बताया कि पिछले 5 सालों में कच्चातिवु मुद्दा और मछुआरे का मुद्दा संसद में विभिन्न दलों द्वारा बार-बार उठाया गया है। यह संसद के सवालों, बहसों और सलाहकार समिति में सामने आया है।
इससे पहले पीएम मोदी ने भी कच्चातिवु पर होलते हुए कॉन्ग्रेस और डीएमके पर हमला बोला था। उन्होंने कहा था कि बयानबाजी के अलावा, द्रमुक ने तमिलनाडु के हितों की रक्षा के लिए कुछ नहीं किया है। कच्चातिवु पर उभरते नए विवरणों ने डीएमके के दोहरे मानकों को पूरी तरह से खारिज कर दिया है कॉन्ग्रेस और डीएमके पारिवारिक इकाइयाँ हैं। वे केवल इस बात की परवाह करते हैं कि उनके अपने बेटे और बेटियाँ बढ़ें। उन्हें किसी और की परवाह नहीं है। कच्चातीवु पर उनकी कठोरता ने हमारे गरीब मछुआरों और विशेष रूप से मछुआरों के हितों को नुकसान पहुँचाया है।
बता दें कि 1974 में इंदिरा गाँधी ने श्रीलंका के साथ एक समझौता करते हुए उनको कच्चातिवु द्वीप गिफ्ट में सौंप दिया था। वहीं 1961 में नेहरू इस द्वीप के मुद्दे पर पहले ही कह चुके थे कि उन्हें ये मामला संसद में नहीं उठाना। अगर जरूरत पड़ेगी तो वह इस द्वीप पर दावा छोड़ने से पहले विचार नहीं करेंगे।
इसी तरह न्यूज 18 पर प्रकाशित रिपोर्ट और उसमें दिए गए दस्तावेज बताते हैं कि जब ये द्वीप श्रीलंका के पास गया उसके बाद ये मुद्दा डीएमके द्वारा उठाया गया। पार्टी के नेता इसके विरोध में उतरे, लेकिन तब पार्टी के चीफ करुणानिधी ने इस केंद्र का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
दस्तावेज यह भी बताते हैं कि मुख्यमंत्री ने विदेश सचिव को आश्वासन दिया था कि वह इस मुद्दे को ज्यादा उठने नहीं देंगे और न इसे बढ़ा-चढ़ाकर बताएँगे। इसके बाद विदेश सचिव ने उनकी तारीफ भी की थी। हालाँकि करुणानिधि ने यह भी कहा था कि उनके सामने विपक्ष को समझाना एक कठिनाई होगी। इसमें लिखा है कि करुणानिधि ने कहा था कि तेल स्ट्राइक की जानकारी दिए बिन विपक्ष को वो इस कॉन्फिडेंस में नहीं ले सकते कि उन्हें समझौता करना क्यों जरूरी था।
करुणानिधि चाहते थे इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री सबको समझाएँ, लेकिन तब विदेश सचिव ने यह कहा था कि उनकी जानकारी के अनुसार, प्रस्ताव केवल एक या दो वरिष्ठ कैबिनेट मंत्रियों को ही पता था और उन्होंने कहा कि शायद प्रधानमंत्री विपक्ष के साथ इस पर चर्चा करने से पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के विचार इस पर जानना चाहेंगी।