महाराष्ट्र में सरकार गठन को लेकर इतना बड़ा उलटफेर हो जाएगा, इस बात का अंदाज़ा भी किसी को नहीं था। कयास तो यही लगाए जा रहे थे कि राज्य में शिवसेना-कॉन्ग्रेस और NCP मिलकर सरकार बनाएँगे। लेकिन, शनिवार की सुबह देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार ने मुख्यमंत्री व उप-मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। इस गठबंधन को लेकर किसी को कानों-कान कोई ख़बर नहीं थी।
फ़िलहाल, अब दोनों को आगामी 30 नवंबर तक बहुमत साबित करना होगा। बहुमत के इस गणित को सटीक आँकड़ों के ज़रिए विस्तार से समझते हैं।
NCP के पास कुल 54 सीटें हैं, लेकिन बीजेपी को इस सभी सीटों का समर्थन नहीं मिला है। कहा जा रहा है कि इनमें से 35 विधायक NCP नेता अजित पवार के साथ हैं। वहीं, बीजेपी ने दावा किया है कि 13 निर्दलीय विधायकों का समर्थन उन्हें पहले से ही प्राप्त है। लेकिन अजित पवार को 35 नहीं बल्कि 36 विधायकों के समर्थन की जरूरत है। ऐसा इसलिए क्योंकि दल-बदल कानून से बचने के लिए छोटे पवार के पास यही 36 का आँकड़ा होना जरूरी है। अगर अजित पवार को 36 विधायकों का समर्थन मिल गया तो उन्हें नई पार्टी बनाने में किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन अगर वो ऐसा करने में क़ामयाब नहीं हो सके तो बागी विधायकों की सदस्यता तक ख़त्म हो सकती है।
NCP प्रमुख शरद पवार ने महाराष्ट्र में भाजपा नीत सरकार में शामिल होने के अपने भतीजे अजित पवार के फ़ैसले का समर्थन नहीं किया। साथ ही अपने विधायकों को बागी नेता को समर्थन देने की चेतावनी भी दे डाली। शिवसेना के साथ एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेन्स में, शरद पवार ने NCP विधायकों को दल-बदल विरोधी क़ानून की याद दिलाई और कहा कि वे अपनी सदस्यता खो सकते हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें पता चला है कि 10-11 विधायक अजित पवार के साथ गए थे।
प्रेस कॉन्फ्रेन्स में मौजूद NCP विधायकों ने कहा कि उन्हें नहीं पता था कि उन्हें शपथ ग्रहण समारोह के लिए राजभवन ले जाया जा रहा है। बाद में, शिवसेना नेता संजय राउत ने कहा कि अजित पवार ‘अकेले’ रहेंगे। इंडिया टुडे ने सूत्रों के हवाले से लिखा कि NCP अजित पवार को पार्टी से निष्कासित भी कर सकती है।
क्या होता है दल-बदल विरोधी क़ानून
संविधान के दल-बदल विरोधी क़ानून के संशोधित अनुच्छेद 101, 102, 190 और 191 का संबंध संसद तथा राज्य विधान सभाओं में दल परिवर्तन के आधार पर सांसदी-विधायकी से छुट्टी और अयोग्यता के कुछ प्रावधानों के बारे में है। दल-बदल विरोधी क़ानून भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची जोड़ा गया है, जिसे संविधान के 52वें संशोधन के माध्यम से वर्ष 1985 में पारित किया गया था। इस क़ानून में विभिन्न संवैधानिक प्रावधान थे और इसकी विभिन्न आधारों पर आलोचना भी हुई थी।
दल-बदल का सीधा सा मतलब एक दल से दूसरे दल में शामिल होना है। संविधान के अनुसार इसमें निम्नलिखित स्थितियाँ सम्मिलित हैं-
- किसी विधायक का किसी दल के टिकट पर निर्वाचित होकर उसे छोड़ देना और अन्य किसी दल में शामिल हो जाना।
- मौलिक सिद्धान्तों पर विधायक का अपनी पार्टी की नीति के विरुद्ध योगदान करना।
- किसी दल को छोड़ने के बाद विधायक का निर्दलीय रहना।
- लेकिन, पार्टी से निष्कासित किए जाने पर यह नियम लागू नहीं होगा।
- सारी स्थितियों पर यदि विचार करें तो दल बदल की स्थिति तब होती है जब किसी भी दल के सांसद या विधायक अपनी मर्जी से पार्टी छोड़ते हैं या पार्टी व्हिप की अवहेलना करते हैं। इस स्थिति में उनकी सदस्यता को समाप्त किया जा सकता है और उन पर दल-बदल निरोधक क़ानून लागू होगा।
- पर यदि किसी पार्टी के एक साथ दो तिहाई सांसद या विधायक (पहले ये संख्या एक तिहाई थी) पार्टी छोड़ते हैं तो उन पर ये क़ानून लागू नहीं होगा पर उन्हें अपना स्वतन्त्र दल बनाने की अनुमति नहीं है वो किसी दूसरे दल में शामिल हो सकते हैं।
दरअसल, महाराष्ट्र में 288 विधानसभा सीटों के लिए 21 अक्टूबर को मतदान हुआ था और 24 अक्टूबर को चुनाव नतीजे घोषित हो गए थे। नतीजों के अनुसार, बीजेपी को 105, शिवसेना को 56, NCP को 54 और कॉन्ग्रेस को 44 सीटें मिली थी। इसमें, सरकार बनाने के लिए बहुमत का ज़रूरी आँकड़ा 145 है। शुरूआत में बीजेपी और शिवसेना साथ थीं, लेकिन ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री पद की शर्त पर दोनों के बीच कुछ तय नहीं हो सका और गठबंधन टूट गया। इसके बाद बीजेपी को सरकार बनाने के लिए 40 सीटों की ज़रूरत पड़ गई।
ग़ौरतलब है कि महाराष्ट्र में किसकी सरकार बनेगी और किसके साथ सरकार बनेगी, इस पर लंबे समय से सियासी दाँव-पेंच का खेल चल रहा था। लेकिन, आज सुबह एकाएक बदलते राजनीतिक समीकरणों के चलते इस पर विराम लग गया। अंतत: देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार ने क्रमश: मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हुए राज्य को नई सरकार दी।