कॉन्ग्रेस पार्टी ने प्रियंका गाँधी को नई ज़िम्मेदारियाँ देते हुए उनकी राजनीतिक एंट्री का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। उन्हें उत्तर प्रदेश में पार्टी का प्रभारी बनाया गया है और साथ ही महासचिव भी बनाया गया है।ऐसा माना जाता रहा है कि प्रियंका पहले भी परदे के पीछे से कॉन्ग्रेस पार्टी के प्रमुख फ़ैसलों में हस्तक्षेप करती रहीं हैं, लेकिन यह पहला मौका है जब आधिकारिक तौर पर उन्होंने राजनीति का रुख़ किया है। उत्तर प्रदेश में प्रियंका पूर्वांचल की कमान सँभालेंगी।
प्रियंका की राजनीतिक एंट्री के साथ ही ये क़यास लगने शुरू हो गए हैं कि आख़िरकार ऐसा क्या हुआ कि अचानक से उन्हें पार्टी में प्रमुख भूमिका दे दी गई। सालों से ऐसी चर्चा चल रही है कि प्रियंका गाँधी राजनीति में कूद सकती हैं लेकिन किसी को ये नहीं पता था कि ऐसा कब होगा? अब जब पार्टी ने ऐलान कर दिया है, हमें उन कारणों पर ग़ौर करना चाहिए जो प्रियंका की राजनीतिक एंट्री की वजह हो सकती है।
1. पूर्वांचल साधे, सब सधे
प्रियंका को यूपी में पूर्वांचल की कमान दी गई है। पूर्वांचल के बारे में कहा जाता है कि अगर यूपी साधना हो तो पहले पूर्वांचल से शुरू करना चाहिए। गाँधी परिवार और योगी आदित्यनाथ के प्रभाव वाला क्षेत्र होने के कारण राजनीतिक रूप से पूर्वांचल काफ़ी महत्वपूर्ण है।
2009 के आम चुनावों में कॉन्ग्रेस को इस क्षेत्र में 21 में से सिर्फ 6 सीटें मिली थी। 2014 में पार्टी एक तरह से पूरी यूपी से ही साफ़ हो गई थी। प्रियंका के कमान सँभालने से पार्टी को अपने खोए वोटर्स फिर से वापस लाने की उम्मीद है।
यूपी के साथ-साथ पूर्वांचल के क्षेत्रों में कॉन्ग्रेस की ढीली होती पकड़, गाँधी परिवारके हाथों से फिसलते गढ़ और नरेंद्र मोदी की वाराणसी में एंट्री ने पार्टी की परेशानियों को बढ़ाने का काम किया है। ऐसे में एक नए चेहरे की एंट्री से कॉन्ग्रेस को यहाँ के समीकरण में बदलाव की उम्मीद है। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कर्मभूमि गोरखपुर और प्रधानमंत्री मोदी का नया गढ़ काशी- ये सब पूर्वांचल में ही आते हैं। राजनीतिक रूप से संवेदनशील अयोध्या भी इसी क्षेत्र का हिस्सा है। ऐसे में कॉन्ग्रेस ने एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश की है।
2. जाति और जेंडर का भी है अहम रोल
उत्तर प्रदेश का इतिहास रहा है कि ब्राह्मणों के समर्थन के बिना यहाँ कोई पार्टी चुनाव नहीं जीत सकी है। मायावती जैसे बड़े नेता को भी सतीश मिश्रा जैसे ब्राह्मण चेहरे की जरूरत पड़ी थी जिसका उपयोग कर उन्होंने ब्राह्मणों को साधा था। बसपा अक्सर ‘हाथी चलता जाएगा, ब्राह्मण शंख बजाएगा’ जैसे नारे देती रही है और ‘पैर छुओ अभियान’ चलाती रही है। ब्राह्मणों के इसी दबदबे को देखते हुए प्रियंका गाँधी को लाया गया है।
अमेठी में पिछले चार सालों में स्मृति को ईरानी के बढ़ते प्रभाव ने भी कॉन्ग्रेस को ये कदम उठाने के लिए मज़बूर कर दिया। गाँधी के गढ़ में स्मृति और गठबंधन के बाद और शक्तिशाली बन कर उभरी मायावती के मुक़ाबले पार्टी ने एक महिला चेहरे को कमान दे कर एक अलग छवि बनाने की कोशिश की है।
3. कार्यकर्ताओं में ऊर्जा का संचार
प्रियंका गाँधी को फ़ोरफ़्रंट पर लाकर कॉन्ग्रेस ने मुरझाए कार्यकर्ताओं में जान फूँकने की एक नई कोशिश की है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव हो या फिर लोकसभा चुनाव- राज्य में पार्टी तीसरे-चौथे स्थान के लिए भी संघर्ष करती दिख रही है। ऐसे में कॉन्ग्रेस कार्यकर्तागण में ऊर्जा के संचार के लिए पार्टी ने ये अंतिम ब्रह्मास्त्र चलाया है।
उत्तर प्रदेश इंदिरा गाँधी की भी कर्मभूमि रही है और प्रियंका पहले भी रायबरेली और अमेठी में चुनाव प्रचार की कमान सँभालती रही हैं। कार्यकर्ताओं में यह धारणा है कि 2014 आम चुनावों में पूरे प्रदेश में कॉन्ग्रेस की करारी हार के बावजूद अमेठी-रायबरेली में पार्टी को जीत मिली थी, इसका कारण प्रियंका गाँधी ही हैं।
4. कॉन्ग्रेस नेताओं को एक रखने के लिए
कॉन्ग्रेस पार्टी का यह पुराना इतिहास रहा है कि जब-जब नेहरू-गाँधी परिवार के अलावे किसी अन्य नेता का उदय हुआ है- तब-तब पार्टी के बिखरने का संकट बढ़ा है। नरसिम्हा राव के पराभव के बाद अगर सोनिया गाँधी पार्टी की कमान नहीं सँभालती तो शायद पार्टी के कई फाड़ हो चुके होते। परिवार हमेशा से कॉन्ग्रेस नेताओं को एक सूत्र में पिरोने का जरिया रहा है। गठबंधन साथी भी कॉन्ग्रेस के अन्य बड़े नेताओं के ज़्यादा गाँधी परिवार पर भरोसा करते हैं। ऐसे में, पार्टी के प्रथम परिवार के एक और व्यक्ति का राजनीति में आना इस ट्रेंड को और मज़बूत करता है।
राहुल गाँधी की छवि बहुत हद तक नकारात्मक या मज़ाकिया किस्म की हो गई है। उन्हें उनके विरोधी या अपने लोग भी सीरियसली नहीं लेते। सोनिया गाँधी अब राजनीतिक रूप से पहले जितनी सक्रिय नहीं हैं। कॉन्ग्रेस के हाईकमान में नेतृत्व के अभाव को देखते हुए ये दाव खेला गया है। प्रियंका गाँधी पहले भी पार्टी से जुड़े निर्णय लेने वाली मण्डली का अप्रत्यक्ष रूप से हिस्सा रही हैं। परिवार के वफ़ादारों और कॉन्ग्रेस के संकटमोचकों को एक रखने के लिए पार्टी ने प्रियंका को आगे कर दिया है। पार्टी इस से यह सन्देश देने की कोशिश कर रही है कि उसके पास नेतृत्व का अभाव नहीं है।
5. योगी-मोदी के मुक़ाबले नया चेहरा
उत्तर प्रदेश हमेशा से चेहरों के खेल से चला है। वाजपेई, कल्याण सिंह से लेकर मुलायम-माया तक- जनता ने बड़े चेहरों पर भरोसा जताया है और उनके नाम पर वोट करती रही है। ताज़ा उदाहरण नरेंद्र मोदी का है। मोदी को पूर्वांचल में एंट्री देकर भाजपा ने लगभग पूरे यूपी को क्लीन स्वीप कर लिया था। कार्यकर्ताओं के पास जनता को बताने के लिए कोई चेहरा नहीं था। अब नेता प्रियंका के नाम पर वोट माँग सकते हैं।
कार्यकर्ताओं की लम्बे समय से माँग थी कि उन्हें प्रियंका के रूप में एक ऐसे चेहरे की ज़रूरत है जिसके नाम पर जनता से वोट बटोरा जा सके। लम्बे समय से चल रही इस बहस को देखते हुए पार्टी ने आख़िरकार इस बारे में निर्णय लिया और प्रियंका के रूप में जनता के सामने एक ऐसा चेहरा पेश किया है जो माया-अखिलेश और मोदी-योगी जैसे शक्तिशाली चेहरों से मुक़ाबला कर सके।।
अब देखना यह है कि पार्टी को इस से क्या फ़ायदा मिलता है। 2019 के आम चुनाव आने वाले हैं। माहौल गरम है और राजनीतिक रूप से यह काफ़ी संवेदनशील समय है। अब समय ही बताएगा कि इस बदलाव का क्या असर होता है।
6. इंदिरा गाँधी की छवि
2014 आम चुनावों से पहले कॉन्ग्रेस के शिकायत प्रकोष्ठ की अध्यक्ष अर्चना डालमिया ने इंडिया टुडे में एक लेख लिख कर बताया था कि कैसे प्रियंका गाँधी में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की छवि दिखती है। ये कॉन्ग्रेस कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों की प्रियंका के प्रति राय को दिखता है।
उस लेख में उन्होंने बताया था कि कैसे अगर शक्लो-सूरत की बात करें तो प्रियंका गाँधी का हेयरस्टाइल भी इंदिरा गाँधी से मिलता-जुलता है। इतना ही नहीं, उनके अनुसार प्रियंका की नाक की बनावट भी अनायास इंदिरा की याद दिलाती है। वो इंदिरा की तरह ही लम्बी है और लम्बे-लम्बे डग भर कर चलती है। इंदिरा गाँधी की तरह वह भी गाँधी परिवार के संसदीय क्षेत्रों में आम लोगों से मिलती-जुलती रहीं हैं।
कॉन्ग्रेस के अधिकतर पदाधिकारियों की प्रियंका के बारे में यही राय है जो अर्चना की है। ऐसे में समझा जा सकता है कि कॉन्ग्रेस के लोग उनमें इंदिरा को देखते हैं। ये एक बड़ा कारण है कि कार्यकर्ताओं में उन्हें कॉन्ग्रेस के सुनहरे काल की याद दिखती है।