उत्तराखंड और गुजरात सरकार ने ‘समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code)’ लागू करने के लिए समिति का गठन किया था। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट (Supreme court) में जनहित याचिका दायर हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया है। साथ ही, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि राज्य सरकार को समिति बनाने का अधिकार है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, सोमवार (9 जनवरी, 2023) को देश के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की खंडपीठ ने याचिकाकर्ता के वकील से पूछा है कि समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए समिति बनाने में गलत क्या है?
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 162 के तहत राज्यों को समिति बनाने का अधिकार है। इसे चुनौती नहीं दी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने इस टिप्पणी के साथ उत्तराखंड और गुजरात में समान नागरिक संहिता को लागू करने के हर पहलू पर विचार करने के लिए गठित की गई समिति के खिलाफ दायर याचिका को खारिज कर दिया।
उत्तराखंड सरकार ने मई 2022 में बनाई थी समिति
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अपने चुनावी वादे के अनुसार, राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए मई 2022 में समिति बनाई थी। इसके लिए मुख्यमंत्री ने सुप्रीम कोर्ट की सेवानिवृत न्यायाधीश रंजना देसाई को समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया था। समिति में कुल 5 सदस्य हैं।
यह समिति राज्य में जगह-जगह जाकर सभी धर्मों, वर्गों और जातियों के प्रतिष्ठित लोगों से संपर्क और उनसे संवाद के आधार पर ड्राफ्ट तैयार करेगी। इसके लिए सरकार ने सदस्य सचिव की नियुक्ति भी कर दी है। इससे समय-समय पर कमिटी की बैठकें आयोजित की जा सकेंगी और प्रोग्रेस एवं प्रोसेस पर चर्चा हो सकेगी।
गुजरात सरकार ने भी बनाई है समिति …
उत्तराखंड सरकार की तरह पर गुजरात सरकार ने भी समान नागरिक संहिता की ओर कदम बढ़ाते हुए अक्टूबर 2022 में समिति बनाने का ऐलान किया था। इस कमेटी की अध्यक्षता हाईकोर्ट के रिटायर जज करेंगे। हालाँकि फिलहाल, इस समिति के अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं हुई है। इसके अलावा, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कमेटी बनाने का ऐलान कर चुके हैं।
क्या है समान नागरिक संहिता और क्यों मुस्लिम करते हैं विरोध
‘समान नागरिक संहिता’ को सरल अर्थों में समझा जाए तो यह एक ऐसा कानून है, जो देश के हर समुदाय पर लागू होता है। व्यक्ति चाहे किसी भी धर्म का हो, जाति का हो या समुदाय का हो, उसके लिए एक ही कानून होगा। अंग्रेजों ने आपराधिक और राजस्व से जुड़े कानूनों को भारतीय दंड संहिता 1860 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872, भारतीय अनुबंध अधिनियम 1872, विशिष्ट राहत अधिनियम 1877 आदि के माध्यम से सब पर लागू किया, लेकिन शादी, विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, संपत्ति आदि से जुड़े मसलों को सभी धार्मिक समूहों के लिए उनकी मान्यताओं के आधार पर छोड़ दिया।
इन्हीं सिविल कानूनों को में से हिंदुओं वाले पर्सनल कानूनों को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने खत्म किया और मुस्लिमों को इससे अलग रखा। हिंदुओं की धार्मिक प्रथाओं के तहत जारी कानूनों को निरस्त कर हिंदू कोड बिल के जरिए हिंदू विवाह अधिनियम 1955, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, हिंदू नाबालिग एवं अभिभावक अधिनियम 1956, हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम 1956 लागू कर दिया गया। वहीं, मुस्लिमों के लिए उनके पर्सनल लॉ को बना रखा, जिसको लेकर विवाद जारी है।
इसकी वजह से न्यायालयों में मुस्लिम आरोपितों या अभियोजकों के मामले में कुरान और इस्लामिक रीति-रिवाजों का हवाला सुनवाई के दौरान देना पड़ता है।
इन्हीं कानूनों को सभी धर्मों के लिए एक समान बनाने की जब माँग होती है तो मुस्लिम इसका विरोध करते हैं। मुस्लिमों का कहना है कि उनका कानून कुरान और हदीसों पर आधारित है, इसलिए वे इसकी को मानेंगे और उसमें किसी तरह के बदलाव का विरोध करेंगे। इन कानूनों में मुस्लिमों द्वारा चार शादियाँ करने की छूट सबसे बड़ा विवाद की वजह है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी समान नागरिक संहिता का खुलकर विरोध करता रहा है।