पश्चिम बंगाल में हाल ही में पंचायत चुनाव संपन्न हुए, जिसमें भाजपा ने 22.88% वोट शेयर हासिल किया और 10,000 से भी अधिक सीटें हासिल की। ये सब इसके बावजूद हुआ, जब चुनाव में राज्य भर में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। कहीं से बूथ लूटने की खबरें आईं तो कहीं-कहीं भाजपा प्रत्याशियों और कार्यकर्ताओं पर हमले किए गए। कहीं बैलेट बॉक्स को ही आग के हवाले कर दिया गया तो कहीं मतपेटी पर पानी उड़ेल दिया गया।
इन सबके बीच हमने स्वप्न दासगुप्ता से बात की, 2 बार राज्यसभा सांसद रह चुके हैं। शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में काम करने के लिए पद्म भूषण का पुरस्कार पा चुके 67 वर्षीय स्वप्न दासगुप्ता 1990 से ही भाजपा से जुड़े हुए हैं। वो ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी स्थित नफ़ील्ड कॉलेज में पोस्ट ग्रेजुएट फेलो भी रहे हैं। उन्होंने ‘द इंडियन एक्सप्रेस’, ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ और ‘इंडिया टुडे’ और ‘द स्टेट्समैन’ जैसे बड़े मीडिया संस्थानों में संपादकीय जिम्मेदारियाँ निभाई हैं।
सवाल: बंगाल में 40 से ज्यादा लोगों की हत्या पंचायत चुनाव में कर दी जाती है। तृणमूल से अलग जिन लोगों ने जीत दर्ज की, उनमें से कुछ डर के कारण असम चले गए। डर के इस माहौल में लोकतंत्र को आप कहाँ देखते हैं? क्या सिर्फ वोटिंग करवाना ही लोकतंत्र है?
जवाब: देखिए, इस बार जो पंचायत चुनाव हुआ है इसमें हिंसा सिर्फ मतदान के दौरान ही नहीं हुई है, बल्कि जिस दिन नामांकन की प्रक्रिया हुई उसी समय से ये शुरू हो गया और अब काउंटिंग के बाद तक भी ये चल रहा है। 50 लोगों की हत्या कर दी गई है। इनमें सभी पार्टियों के लोग हैं – TMC, भाजपा, लेफ्ट और ISF (इंडियन सेक्युलर फ्रंट)।
हिंसा अधिकतर मुस्लिमों के प्रभाव वाले इलाकों में हुई है। इसके पीछे कारण ये है कि 2021 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कॉन्ग्रेस ने मुस्लिमों के सारे वोटों पर कब्ज़ा कर लिया था, 90-95% वोट उन्हें गए थे। तब भाजपा की जो हार हुई, उसका एक प्रधान कारण था – शत-प्रतिशत मुस्लिम ध्रुवीकरण। लेकिन, इस बार मुस्लिम वोटों में एक विभाजन आ गया है, जिस कारण हिंसा की इतनी घटनाएँ हुई हैं।
मुर्शिदाबाद और मालदा जिलों में सबसे ज्यादा हिंसा हुई है। एक साइलेंट इंटिमीडेशन चल रहा है। ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ और ‘Winner Takes All’ वाला लोकतंत्र विरोधी कल्चर आ गया है, जिसे लेफ्ट ने शुरू किया था और TMC इसकी कार्बन कॉपी है।
मार्क्सवादियों और तृणमूल का संगठन अलग है, लेकिन दोनों समान हैं। बस एक फर्क है – CPM का भ्रष्टाचार सीमित था और ये पार्टी कंट्रोल्ड करप्शन था, लेकिन तृणमूल के मामले में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार है। ये राज्य सरकार से लेकर पंचायत स्तर तक, सब मिले हैं और सबका हिस्सा बँटा हुआ है।
असीमित भ्रष्टाटार के कारण केंद्र सरकार की जो योजनाएँ आती हैं और उनके फंड्स आते हैं (मनरेगा, आवास योजना, हर घर जल इत्यादि), इन सबमें चोरी हुई है। इस कारण पश्चिम बंगाल की अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गई है और भ्रष्टाचार को ही आय का स्रोत बना दिया गया है। इसी कारण ये जीत के लिए इतने बेचैन रहते हैं, ताकि 5 वर्षों के लिए सब सेट हो जाएँ। इसी कारण, वहाँ भारी सुधार की आवश्यकता है।
सवाल: 2014 में 34 और 2019 में 22 लोकसभा सीट पर तृणमूल की जीत। अब 2024 से पहले पंचायत स्तर पर ऐसी हिंसा भाजपा या किसी भी विपक्ष को बंगाल से साफ करने की रणनीति तो नहीं?
जवाब: इस पंचायत चुनाव का जो परिणाम है, उसके साथ पब्लिक ओपिनियन का क्या संपर्क है – ये चिंतन का विषय है। इतनी लूट हुई है, इतना फ्रॉड हुआ है। ये चुनाव बैलेट बॉक्स से कराया गया था राज्य चुनाव आयोग के जरिए, इतने फर्जी वोट पड़े, हमले हुए हैं और लोग तनाव में थे। इसीलिए, अनुमान लगाना मुश्किल है। फिर भी, लोकसभा के चुनाव में इसका असर जरूर देखने को मिलने वाला है।
उस समय (लोकसभा के चुनाव में) TMC के भ्रष्टाचार का असर नहीं पड़ता, क्योंकि राज्य में सांसद की उतनी शक्ति नहीं होती और दिल्ली के लिए वोट दिए जाते हैं। ये फ्लेक्सिबल होता है, इसीलिए विधानसभा चुनाव में तृणमूल कॉन्ग्रेस वोट देने वाले भी लोकसभा चुनाव में भाजपा को देते हैं।
राज्य स्तर पर भाजपा की एक कमजोरी ये है कि अब तक संगठन मजबूत नहीं है। संगठन में बहुत कमजोरियाँ हैं। 3 महीने पहले अगर कॉन्फिडेंस बनाने के लिए केंद्रीय बलों को लाया जा सकता है और चुनाव आयोग 8-10 से लेकर जितने भी चरण में चुनाव कराए, हर पोलिंग बूथ पर सुरक्षाबल सुनिश्चित हो, तब आप देखेंगे कि पंचायत चुनाव से लोकसभा का चुनाव एकदम अलग होगा।
सवाल: ममता बनर्जी की राजनीति से अलग बंगाल के समाज पर आपकी राय क्या है? लंबे समय तक वामपंथी सत्ता के कारण हिंसा की राजनीति या “सत्ता बंदूक की नाल से निकलती है” जैसी बात आम समाज में भी घर कर गई है?
जवाब: 2 चीजें हैं। पहला, राजनीतिक प्रभाव। वामपंथियों के संघर्ष में हिंसा की संस्कृति रही है। ये समाज में भी घुस जाता है। वामपंथी तकनीक से ही TMC ने वामपंथियों को हराया। ये प्रभाव समाज में रह गया।
पश्चिम बंगाल स्वाधीनता के समय नंबर एक या दो राज्य था, अब समय बीतते-बीतते 17-18 नंबर पर पहुँच गया और ओडिशा भी आगे निकल गया। असम भी कुछ दिनों में आगे निकल जाएगा। यहाँ कोई विकास नहीं हो रहा है, कोई रोजगार नहीं पैदा हो रहा। व्यवसायी लोग टोलबाजी से परेशान हैं, जिसे ‘Illegal Extraction’ कह लीजिए। पश्चिम बंगाल में भ्रष्टाचार का जो आलम है, नेताओं के बिस्तर से रुपए निकलने की घटनाएँ सामने आईं।
कहने का मतलब है कि अर्थव्यवस्था के बर्बाद हो जाने के कारण भ्रष्टाचार हावी है और जिसे जहाँ से मिल रहा है, वो लूट रहा है। इसके साथ हिंसा भी जुड़ गई है, इसका हिस्सा बन गई है। सामाजिक व्यवस्था ऐसी हो गई है कि जो पढ़े-लिखे और प्रतिभावान लोग हैं, वो वन-वे टिकट लेकर देश के महानगरों या विदेश में चले जाते हैं, यहाँ नहीं रुकते।
पलायन की समस्या के कारण कोलकाता में औसत उम्र बाकी नगरों से ज्यादा है। इसका कारण है कि जिनकी रियायरमेंट की उम्र हो गई है या जो रिटायर हो गए हैं, वहीं बंगाल में बचे हैं। जो प्रोडक्टिव जनरेशन है, युवा है, वो यहाँ नहीं ठहरते हैं। इसीलिए, पश्चिम बंगाल माइग्रेंट लेबर में आजकल नंबर वन हो गया है।
सवाल: बिहार ने कभी चुनावी हिंसा झेला, बहुत भयावह और बड़े स्तर पर। वहाँ जाति का समीकरण था, अगड़ा-पिछड़ा था, जमींदार-मजदूर था। फिर सब खत्म हो गया। बंगाल में चुनावी हिंसा के सामाजिक कारण क्या हैं? और यह खत्म क्यों नहीं हो रहे?
जवाब: पहले हिंसा होती थी तो लोग कहते थे कि बिहार की तरफ हो रहा है। बिहार देश की हर सड़ी हुई समस्या का प्रतीक बन गया था। यह हाल लगभग 15 साल पहले तक था। लेकिन आजकल बिहार में थोड़ी-बहुत हिंसा होती है, बड़े स्तर पर वैसा कुछ नहीं होता। पहले MCC और रणवीर सेना जैसे संगठनों की हिंसा की खबरें आती थीं।
बिहार में बदलाव हुआ है। बिहार आर्थिक रिकवरी की ओर बढ़ रहा है। बहुत बाकी है वहाँ करना-होना लेकिन थोड़ा-थोड़ा कर रहा है, जबकि पश्चिम बंगाल पीछे जा रहा है। शिक्षा व्यवस्था बर्बाद हो गई है, जिसकी शुरुआत लेफ्ट ने ही की थी।
बंगाल के सामाजिक पतन के लिए एक और बड़ी वजह है। यहाँ प्रादेशिकता की मानसिकता आ गई है, जो बंगाल को बाकी देश से अलग समझते हैं। यानी, एक इमोशनल अलगाववाद की भावना घर कर गई है। इसी कारण अन्य राज्यों से आने वालों को ‘बाहरी’ कहा जाता है। पहले तो कई जगहों से लोग बंगाल में आते थे, यूपी-बिहार के लोग यहाँ जीवन का हिस्सा बन गए और इनमें से कई बंगाली बोलते हैं तो कई नहीं भी बोलते हैं।
बिहार से यहाँ हजारों मजदूर, काम करने वाले, छोटे-बड़े व्यवसायी आए थे। अब सब खत्म हो रहा है। पुराने संपर्क हैं, लेकिन बंगाल का एक प्रभाव जो झारखंड वगैरह में पूरा था, मधुपुर, देवघर या भागलपुर तक उसका असर था। अब कुछ है ही नहीं।
पश्चिम बंगाल के लोगों को इस वास्तविकता को स्वीकार करना पड़ेगा, जो पूरी तरह नीचे जा रहे हैं – सांस्कृतिक रूप से, राजनीतिक रूप से और आर्थिक रूप से। राजनातिक प्रभाव पश्चिम बंगाल का कुछ है ही नहीं। प्रणब मुखर्जी थे लेकिन उनकी बंगाल से ज्यादा दिल्ली में चलती थी। पश्चिम बंगाल ने खुद को लंबे समय से मुख्यधारा से अलग कर रखा है, जिसका अब असर दिख रहा है।
सवाल: समाज से अलग अब बात सिस्टम की, सरकारी तंत्र की, पुलिस की। बंगाल से लगभग हर हफ्ते, 2 हफ्ते पर – बम बनाते समय विस्फोट, झोले में मिला क्रूड बम – जैसी खबरें हम देखते हैं। अगर यह इतना आम हो गया है तो क्या वहाँ पुलिस रिफॉर्म्स की जरूरत नहीं?
जवाब: पुलिस रिफॉर्म्स से पहले पुलिस रिक्रूटमेंट को सुधारना होगा। असली पुलिस से ज्यादा वहाँ सिविक पुलिस की भर्ती कर ली गई है। जिस तरह के प्रोफेशनल पुलिस की भर्ती की जानी थी, वो नहीं की गई। वो फंड्स की कमी को इसकी वजह बता रहे। हकीकत में पुलिस व्यवस्था का पूरा का पूरा राजनीतिकरण कर दिया गया है।
इस बार पंचायत चुनाव में जो बूथ लूटे गए हैं, इसमें पुलिस ने मदद की है। अदालतों में अधिकतर शिकायतें पुलिस के खिलाफ हैं। पुलिस ने हिंसा में हिस्सा लिया है। पुलिस रिफॉर्म से ज्यादा पश्चिम बंगाल में इन्हें (पूरे पुलिस विभाग को) रीकंस्ट्रक्ट करने की जरूरत है।
पहले अच्छी पुलिस फ़ोर्स थी, लेकिन पूरा बर्बाद कर दिया गया। आज भी कोलकाता की पुलिस बाकी बंगाल की पुलिस से अच्छी है। पश्चिम बंगाल की शासन व्यवस्था ध्वस्त हो गई है, शासन प्रणाली की संस्कृति बर्बाद हो गई है।
मुझे लगता है कि बंगाल को बचाने के लिए एक अलग प्रकार की क्रांति की ज़रूरत है – रेड रेवोलुशन या तृणमूल रेवोलुशन नहीं, राष्ट्रवादी क्रांति की जरूरत है। बंगाली संस्कृति का सभी सम्मान करते हैं, लेकिन वो भारत से अलग नहीं है बल्कि भारत को समृद्ध करता है। आप हर जगह जाकर ‘हमारा है, हमारा है’ कहेंगे तो कुछ नहीं होगा।
सवाल: आखिरी सवाल पार्टी के कार्यकर्ताओं को लेकर, चाहे वो किसी भी पार्टी के हों। क्योंकि चुनावी हिंसा का सबसे पहला और मारक असर इन्हीं पर पड़ता है। लंबे समय तक वामपंथी सत्ता और विचार का यह प्रभाव कि – “पार्टी ही सब कुछ, पार्टी के लिए मारना या मरना” – क्या यह दूसरी राजनीतिक पार्टियों में भी घर कर गई है? क्योंकि सत्ता परिवर्तन से बंगाल में चुनावी हिंसा के पैटर्न में कोई बदलाव नहीं दिख रहा।
जवाब: आप हिंदी बेल्ट में जाएँगे तो किसी पॉलिटिकल वर्कर के बारे में कहा जाता है कि वो ‘राजनीति’ करता है। जबकि, पश्चिम बंगाल में कहा जाता है कि ‘पार्टी कोर छी (वो पार्टी करता है)।’ पार्टी कौन सी? कोई सी भी लेकिन वहाँ महत्व पार्टी का ही है।
‘राजनीति’ से अलग ‘पार्टी’ वाले ट्रेंड को CPM ने शुरू किया था और TMC ने भी यही किया। हालत यह है कि आप जो भी करो, आपको पार्टी में आना पड़ेगा। हाल के दिनों में तृणमूल ने इस पार्टी कल्चर को भी बढ़ा दिया है।
पहले तृणमूल में सेंट्रलाइज्ड सिस्टम था, सिंगल विंडो क्लियरेंस था, लेकिन अब अलग-अलग स्तरों पर तृणमूल के भीतर कई समूह बन गए हैं। सब कुछ पार्टी ही बन गई है, पार्टी ही माई-बाप है। ये जो मानसिकता है, ये सभी पार्टियों में घर कर गई है।
स्वप्न दासगुप्ता के बारे में बता दें कि उन्होंने सन् 1975 में दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी। लंदन स्थित SOAS यूनिवर्सिटी से उन्होंने Ph.D की। उस जमाने में उन्होंने पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले में विभाजन और भेदभाव वाली राजनीति पर गहरा अध्ययन कर के थीसिस लिखी थी। वो JNU में विजिटिंग ऑनररी प्रोफेसर भी रहे हैं। उन्होंने ‘Awakening Bharat Mata: The Political Beliefs of the Indian Right’ नामक पुस्तक भी लिखी है।