पटना हाई कोर्ट ने बिहार सरकार के राज्य में आरक्षण सीमा को 50% से बढ़ा कर 65% करने के फैसले पर रोक लगा दी है। पटना हाई कोर्ट ने आरक्षण सीमा को 50% पर ही रखने का फैसला दिया है। बिहार ने आरक्षण सीमा को 50% से 65% करने का यह निर्णय 2023 में लिया था। इसे कोर्ट में चुनौती दी गई थी। जहाँ बिहार के 65% आरक्षण को कोर्ट ने समाप्त कर दिया है, वहीं तमिलनाडु में पिछले तीन दशकों से लगातार 69% आरक्षण दिया जा रहा है और यह कोर्ट के फैसले से भी प्रभावित नहीं होता है।
बिहार ही नहीं इससे पहले महाराष्ट्र और हरियाणा के भी आरक्षण सीमा को 50% से अधिक करने के निर्णयों को कानूनी रूप से चुनौती मिल चुकी है। इनमें से किसी भी राज्य को आरक्षण सीमा को 50% से अधिक नहीं करने दिया गया है। इसके पीछे सुप्रीम कोर्ट का एक निर्णय है जो सरकारों को यह करने से रोकता है। यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में दिया था और इसे अब इंदिरा साहनी मामले के नाम से जाना जाता है। हालाँकि, तमिलनाडु के मामले में यह इंदिरा साहनी मामला लागू नहीं हो रहा।
ऐसा तमिलनाडु में आरक्षण को लेकर बनाए गए कानूनों और कोर्ट के निर्णयों के कारण है। तमिलनाडु में वर्ष 1971 तक कुल 41% आरक्षण लागू था। लेकिन जब 1969 के में DMK के पूर्व मुखिया एम करूणानिधि पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने आरक्षण का ढाँचा बदलने का निर्णय लिया। उन्होंने इसके लिए सत्तानाथान आयोग बनाया। यह राज्य के सभी वर्गों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को देख कर आरक्षण की सलाह देने के लिए बनाया गया था।
इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर ही करूणानिधि की सरकार ने राज्य में पिछड़े वर्ग का आरक्षण 25% से 31%, अनुसूचित जातियों और जनजातियों का आरक्षण 16% से 18% कर दिया। इसी के साथ राज्य में दिया जाने वाला आरक्षण 49% पहुँच गया। इसने 50% का आँकड़ा 1980 में पार किया जब तत्कालीन AIADMK सरकार के मुखिया एमजी रामचन्द्रन ने राज्य में पिछड़े वर्ग का आरक्षण 31% से बढ़ा कर 50% कर दिया। ऐसे में यह आरक्षण 68% पहुँच गया।
यह आरक्षण लगातार ऐसे ही चलता रहा और इसमें मद्रास हाई कोर्ट के एक फैसले के बाद अनुसूचित जनजातियों के 1% आरक्षण और जोड़ दिया गया और उन्हें अनुसूचित जातियों से अलग कर दिया गया। इस प्रकार राज्य का आरक्षण 69% हो गया। इसमें दिक्कत इंदिरा साहनी निर्णय के बाद आना चालू हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों के 50% आरक्षण सीमा तोड़ने पर रोक लगा दी। तमिलनाडु ने इसके खिलाफ कानूनी लड़ाई भी लड़ी। हालाँकि, अदालतों ने उन्हें राहत देने इनकार कर दिया।
इसके बाद तमिलनाडु ने अपने 69% आरक्षण के निर्णय को बचाने के लिए अपनी विधायी शक्तियों का सहारा लिया। 1993 में तत्कालीन AIADMK सरकार ने इसके लिए एक कानून पास करने का निर्णय लिया। तब जयललिता राज्य की मुख्यमंत्री थीं। उन्होंने 1993 में तमिलनाडु विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर इस आरक्षण को 69% कर दिया और फिर इस पर तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा की मंजूरी भी ले ली। इस 69% आरक्षण को आगे कोर्ट में चुनौती ना दी जा सके, इसका भी उन्होंने प्रबंध कर दिया।
जयललिता ने इस 69% आरक्षण वाले कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में डाल दिया। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा संविधान की नौवीं अनुसूची में डाले जाने वाले कानूनों को तब कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती जब तक इससे संविधान के मूल ढाँचे में बदलाव ना हो रहा हो। ऐसे में तमिलनाडु का 69% आरक्षण लगातार चल रहा है।