पिछले सात दिनों से हमने लगातार बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में डॉ फिरोज खान की नियुक्ति का विरोध कर रहे छात्रों की बात आप तक पहुँचाई है। कल तक, ऑपइंडिया के अलावा एक भी संस्थान बच्चों का पक्ष रखने का तो छोड़िए, सुनने को भी तैयार नहीं थे। हमने अपने विस्तृत कवरेज में पूरी कोशिश की कि इसमें छात्रों की बातें, पूर्व छात्रों की बातें, शोध छात्रों की बातें आप तक लाने की। और इस मुद्दे पर मीडिया द्वारा फैलाए गए कई भ्रमों और झूठ का पर्दाफाश करते हुए आपके सामने सच्चाई प्रस्तुत की।
इसी शृंखला में हमने फैकल्टी के कई प्रोफेसरों से भी बात की। अभी हमने विशेष तौर पर बात की सौरभ द्विवेदी जी से जो कि इसी संकाय के साहित्य विभाग के पूर्व शोध छात्र रहे हैं और अभी सहायक प्रोफेसर के रूप में अपनी सेवा कविकुलगुरु कालिदास संस्कृत महाविद्यालय, रामटेक, नागपुर, महाराष्ट्र में कार्यरत हैं। सौरभ द्विवेदी के गाइड वहीं हैं जो इस मामले में अभी फोकस में हैं साहित्य विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर उमाकांत चतुर्वेदी। सौरभ जी ने पहले भी हमसें इस मुद्दे पर बात की है। लेकिन विशेष तौर पर एक बार फिर ऑपइंडिया संपादक अजीत भारती ने उनसे फिरोज काण्ड पर विस्तृत चर्चा की। पेश है उसी इंटरव्यू के मुख्य अंश जो इस पूरे मामले में आपकी ऑंखें खोलने के लिए ज़रूरी है।
ऑपइंडिया: लोग कह रहे हैं संस्कृत को जातिवादी बनाकर रखा है आप लोगों ने। ब्राह्मणों के सिवाय किसी को बोलने देना नहीं चाहते। क्या यह ब्राह्मणवादी भाषा है, इसलिए फ़िरोज खान का विरोध हो रहा है।
सौरभ द्विवेदी: पूरे BHU में एक दूसरे मजहब के टीचर की नियुक्ति का विरोध हो रहा है। ऐसा बिलकुल नहीं है। यह विरोध एक गैर-हिन्दू का ‘धर्म-विज्ञान संकाय’ में नियुक्ति का विरोध है। अगर यह नियुक्ति विश्वविद्यालय के ही किसी अन्य संकाय में संस्कृत अध्यापक के रूप में होती तो विरोध नहीं होता। विरोध का मूल इस विशेष संकाय में गैर-हिन्दू की नियुक्ति में निहित है और विरोध करने वाले छात्र परम्परावादी हिन्दू हैं जो सनातन हिन्दू परम्पराओं, वेद, वेदांग, कर्मकाण्ड, ज्योतिष के प्रति पूरी श्रद्धा और भाव से समर्पित हैं और अब इस प्रकरण के बाद अपने भविष्य को लेकर आशंकित भी।
फ़िरोज खान के मजहब से होने का उन्हें कोई नुकसान नहीं है, बल्कि फायदा ही है। कुछ लोग मानवीय मूल्यों, संविधान और मुस्लिम होने की बात को लेकर अधिक भ्रमित हैं। आपको बता दूँ कि किसी भी संस्था की स्थापना के पीछे उसके संस्थापक का एक उद्देश्य होता है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के ‘हिन्दू’ शब्द और संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के ‘धर्म’ शब्द में संस्थापक की बहुत सारी अवधारणाएँ निहित हैं। हमारी परम्परा नामकरण संस्कार करने की रही है, और हम सबसे सार्थक नाम चुनने की कोशिश करते हैं, यह सभी को समझना चाहिए।
देखिए अभी तो बस शुरुआत हो रही है। अगर हमने आज विरोध नहीं किया तो 15 साल बाद इस संकाय में एक दूसरे मजहब का प्रोफेसर होगा, विभागाध्यक्ष होगा, डीन होगा। जो उसी मजहब के कई अन्य लोगों की नियुक्ति करेगा, और एक ऐसा दौर भी आएगा जब हिन्दू विश्वविद्यालय के ‘हिन्दू धर्म संकाय’ का संचालन गैर-हिन्दू करेंगे। वे जिनका इन विषयों से, सनातन परंपरा से, यज्ञ और ज्योतिष से कोई आत्मीय लगाव नहीं होगा, बस यह उनकी जीविका का साधन होगा तो महामना मालवीय जी के इस बगिया में इस संकाय की स्थापना का मूल उद्देश्य ही छिन्न-भिन्न हो जाएगा।
सौरभ द्विवेदी का इंटरव्यू:
ऑपइंडिया: आपके हिसाब से ये मालवीय मूल्य क्या हैं जिनके लिये आप आवाज़ उठा रहे हैं। क्या मालवीय जी धर्म-निरपेक्ष नहीं थे!
सौरभ द्विवेदी: बार-बार डॉ. फिरोज खान के इस नियुक्ति के विरोध में ‘मालवीय मूल्यों’ का हवाला दिया जा रहा है तो समझिए हिन्दू धर्म के सन्दर्भ में मालवीय मूल्य क्या हैं इसकी बानगी बस इससे समझ लीजिए कि 1906 में ‘मुस्लिम लीग’ की स्थापना और उनकी अनावश्यक माँगों को देखकर 1915 में महामना मालवीय कॉन्ग्रेस में अपनी ऊँची साख होने के बावजूद कॉन्ग्रेस से अलग हुए और हिन्दू-हित की बात के लिए 1915 में ‘अखिल भारतीय हिन्दू महासभा’ की स्थापना की। अपने जीवनकाल में 4 बार कॉन्ग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष रहे, जिसमें से दो अधिवेशनों के समय महामना जेल में भी रहे। जब ब्रिटिश हुकूमत में कॉन्ग्रेस और मुस्लिम लीग ने 1916 के ‘लखनऊ पैक्ट’ के तहत मजहब विशेष के लिए अतिरिक्त एवं पृथक प्रतिनिधित्व की बात की, तब मालवीय जी ने कॉन्ग्रेस के इस प्रस्ताव का तीखा प्रतिरोध किया। आज वही प्रतिरोध कहीं न कहीं ‘धर्म संकाय’ के छात्र कर रहे हैं।
ऑपइंडिया: यह संस्कृत विभाग और संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में क्या अंतर है। इस संकाय में क्या ऐसी विशेषता है कि आप लोग एक ख़ास मजहब वाले को नहीं आने देना चाहते। इससे धर्म को क्या नुकसान हो सकता है!
सौरभ द्विवेदी: डॉ. फिरोज खान की नियुक्ति संस्कृत विभाग में हुई, स्पष्ट कर दूँ कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग कला संकाय के अंतर्गत आता है और फिरोज खान की नियुक्ति ‘संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय’ में हुई है। हम यहाँ अपनी परम्पराओं और मालवीय मूल्यों की रक्षा हेतु विरोध कर रहे हैं। हमारा विरोध सिर्फ किसी मजहब का विरोध नहीं है। यहाँ हुई नियुक्ति सिर्फ संस्कृत भाषा से नहीं जुड़ी इस संकाय का मूल ‘धर्म विज्ञान’ में छिपा है।
ऑपइंडिया: कोई दूसरे मजहब वाला कर्मकांड की शिक्षा क्यों नहीं दे सकता? कुछ लोग यही पूछ रहे हैं कि क्या बुराई है इसमें?
सौरभ द्विवेदी: आज मीडिया के वो तमाम लोग जो इस मुद्दे को हिन्दू-मुस्लिम में समेटते हुए इसे ब्राह्मणवाद से जोड़ कर ध्वस्त करने में जी-जान से लगे हुए हैं। आज उदारवाद के नाम पर वामपंथी और उनका गिरोह जो जहर हर जगह बोने का काम कर रहे हैं वस्तुतः उनकी उदारवादिता एक ढोंग है, अदूरदर्शिता है। बनारस में आप कहीं भी निकल जाइए संस्कृत के श्लोक बच्चा-बच्चा पढ़ता और बोलता नजर आ जाएगा है, वैदिक मन्त्रों और ऋचाओं से घाट गुंजायमान मिलेंगे लेकिन उन्हें कभी इसे किसी दूसरे मजहब वाले से पढ़ने की जरूरत नहीं पड़ी। या उनसे जिनकी उन श्लोकों और मंत्रो के प्रति न भाव हो, न श्रद्धा हो, वह उनके लिए शब्दों संयोजन भले हो सकता है लेकिन उसके प्राण को वो कभी महसूस नहीं कर सकते। क्योंकि उनके अंदर इन मन्त्रों, श्लोकों के प्रति समर्पण और भक्ति का भाव कभी नहीं आएगा।
ऑपइंडिया: इस पूरे मुद्दे को जान बूझकर या अनजाने में ही, लोगों ने संस्कृत भाषा और इस्लाम तक उतार दिया है। ऐसे में लोग यह कहते नजर आ रहे हैं कि कोई हिन्दू धर्म को जानता-समझता है, तो उसे हमें वसुधैव कुटुम्बकम के नाम पर स्वाकारना चाहिए न कि बवाल कर के सनातन धर्म की परंपरा का अपमान करना चाहिए। इस पर आप क्या कहेंगे?
सौरभ द्विवेदी: यहाँ सिर्फ संस्कृत पढ़ने-पढ़ाने का मसला है ही नहीं, उन्हें आज की चिन्ता भी नहीं है। लेकिन जब 20 साल बाद ‘संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय’ में वैदिक मंगलाचरण की जगह कुरान और हदीस की आयतें गूँजेगी, विश्व हिन्दू पंचांग की जगह कुरान और बाइबिल का प्रकाशन होगा, तो बुढ़ापे में आप इस कुण्ठा से जरूर गुजरेंगे कि जब मालवीय मूल्यों और हिन्दू सनातन धर्म और संस्कृति के रक्षार्थ कुछ छात्र लड़ रहे थे, जब संविधान की कोई एक पंक्ति उनके पक्ष में नहीं थी, शायद एक ढंग का तर्क भी उनके पास नहीं था, और महामना के नाम पर जीवनयापन करने वाले अधमर्ण मौन थे, तब भावनाओं के बल पर, अन्तरात्मा की आवाज पर, महामना के आदर्शों और मूल्यों की रक्षा के लिए पुलिस की लाठी खाने और खून का कतरा गिरने तक कुछ निहत्थे एक धर्मयुद्ध लड़ते रहे थे। और हम मौन थे तो आज की अपनी दुर्गति के लिए जिम्मेदार कोई और नहीं हम खुद हैं।
ऑपइंडिया: आप वहीं से पढ़ कर निकले हैं और अध्यापन का कार्य कर रहे हैं, क्या आपके कुछ मित्र हैं जो वहाँ से पढ़ने के बाद जीवनयापन हेतु पुरोहित आदि का काम कर रहे हों? क्या आपसे उनकी कोई बातचीत हुई है? वो इसे कैसे देखते हैं?
सौरभ द्विवेदी: विश्वविद्यालय के दीवारों और पत्थरों पर मालवीय जी के संदेश पढ़ते हुए हम जवान हुए हैं। हिन्दू विश्वविद्यालय के हम जैसे छात्र उन विचारों को आत्मसात् करने की कोशिश करते हैं। विश्वविद्यालय की दीवारों पर वेदों उपनिषदों के मन्त्र पढ़े हैं हमने। विश्वनाथ मंदिर में खुदे 18 अध्याय गीता को देखकर नतमस्तक हुए हैं। हिन्दू मूल्यों के संरक्षण में मालवीय जी जैसा बनने का सपना देखा है। हमेशा आदर्श माना है। जो बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में नहीं पढ़ा है, या पढ़कर भी श्रद्धाविहीन हैं, हम उनसे इस आस्था की उम्मीद बिल्कुल नहीं करते। उनकी धर्म-निरपेक्षता ईमानदार है। लेकिन जो लोग इस आस्था से जुड़े हैं, उनका चुप रहना आज जरूर अखर रहा है।
ऑपइंडिया: डॉ फिरोज की नियुक्ति प्रक्रिया पर भी कुछ सवाल आपने उठाए हैं। उन बातों का आधार क्या है?
सौरभ द्विवेदी: SVDV में फिरोज खान की यह नियुक्ति पैसों और नेक्सस के सिवाय और किसी आधार पर नहीं हुई है। पैसों के लालची साहित्य विभागाध्यक्ष ने अपने 5 साल पुराने विश्वसनीय स्टूडेंट को पैसे लेकर नियुक्त किया है, बस इतनी सी बात है। समझिए, साहित्य विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर उमाकान्त चतुर्वेदी हैं। मेरे शोध-निर्देशक हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में 5 साल पहले एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में आए। इसके पहले राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के जयपुर कैम्पस में कार्यरत थे। पूर्व संस्था से इनका लगाव भी है और इनके विश्वस्त लोग आज भी वहीं हैं। इनका व्यक्तित्व धनलोलुपता की पराकाष्ठा है। इनकी धनलोलुपता को समझने के लिए इनसे किसी भी विषय पर 15 मिनट बात करना ही पर्याप्त है। अगर इनका वश चले तो BHU के शोधार्थियों के JRF के पैसों में भी अपना हिस्सा निश्चित कर लें।
इस नियुक्ति की सारी फिल्डिंग इन्होंने ही सेट की है। 6 महीने पहले से, मेरा मानना है कि अगर निष्पक्ष जाँच हो जाए तो ये रंगे हाथ पकड़े भी जा सकते हैं। इस नियुक्ति का सबसे बड़ा कारण है पैसा। सुरक्षित और गोपनीय ढंग से पैसे लेने के लिए प्रोफेसर उमाकान्त चतुर्वेदी के लिए सबसे उपयुक्त अभ्यर्थी हैं डॉ फ़िरोज खान, जो कि संस्थान के जयपुर कैंपस के छात्र हैं, OBC केटेगरी से हैं। 10 अभ्यर्थियों का साक्षात्कार हुआ उनमें से कई हिन्दू विश्वविद्यालय के भी पूर्व शोधछात्र थे। लेकिन इन 5 वर्षों में विभागाध्यक्ष को किसी पर इतना विश्वास न था कि पैसे की बात चला सकें। विभागाध्यक्ष को इस बात का भी अंदेशा नहीं था कि बस चयनित अभ्यर्थी के मजहब विशेस से होने की वजह से भी विवाद हो सकता है।
इन्होंने इंटरव्यू एक्सपर्ट के रूप में जयपुर के ही एक प्रोफेसर ताराशंकर शर्मा पाण्डेय को बुलाया, जो संभवतः इनके सबसे विश्वस्त और हाँ में हाँ मिलाने वाले मित्र हैं। इनके बारे में मैं अधिक नहीं जानता। दूसरे एक्सपर्ट एक्स प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी को बुलाया गया। विचारधारा के संदर्भ में अवसरवादी रूप से कभी ‘वामपंथी-कॉन्ग्रेसी’ कभी ‘पारंपरिक विद्वान’ कभी संस्कृत साहित्य के ‘आधुनिक समालोचक’ हैं। कॉन्ग्रेस के शासनकाल में ये राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के कुलपति रहे हैं। बहुत सारे पदों को अलंकृत कर चुके हैं। इनका वैदुष्य निर्विवाद है। इन्होंने संस्कृत साहित्य को समृद्ध करने के लिए बहुत परिश्रम भी किया है। लेकिन स्याह पक्ष यह है कि इन्होंने अपने सम्पूर्ण विद्वत्ता और पद-प्रतिष्ठा का दुरुपयोग विश्वविद्यालयों में ‘अपने’ लोगों की नियुक्तियों में किया है।
लगभग 20 वर्षों से विश्वविद्यालय स्तर की सभी नियुक्तियों पर इनके ‘गैंग’ का एकाधिपत्य है। संस्कृत के हर संस्थान में इनके नियुक्त किए हुए लोगों का एक नेक्सस है। यह नेक्सस अपने झुण्ड से इतर किसी अन्य को संस्कृत प्रोफेसर बनने की मान्यता नहीं देता। इनकी तुलना एक समय के जाने माने हिन्दी समालोचक से कुछ अंश तक की जा सकती है।
इसी नेक्सस के ये तीनों लोग विद्वान हैं, योग्य हैं। इसलिए इनके द्वारा नियुक्त अभ्यर्थी की योग्यता पर प्रश्नचिह्न लगाना तार्किक रूप से सामान्य व्यक्ति की दृष्टि में गलत है। और इनका पूरा गैंग किसी भी अपने गुट के व्यक्ति को प्रोफेसर बनने के लिए सर्वाधिक योग्य मानता है, साबित भी करता है। प्रोफेसर उमाकान्त चतुर्वेदी के अध्यक्ष रहते यह नियुक्ति बिना पैसे के नहीं हो सकती थी, लेकिन यह अभ्यर्थी एक ‘हिन्दू OBC’ होता तो विरोध नहीं होता, यह बात भी सच है। दिलचस्प यह भी है कि सरकार किसी की भी हो विश्वविद्यालय की नियुक्तियाँ एक विशिष्ट विचारधारा (वामपंथी) के लोग ही करते हैं।
इस नियुक्ति का विश्वविद्यालय प्रशासन से इतर किसी स्वतंत्र संस्था से जाँच होनी चाहिए, फिर अपने आप सारा कच्चा चिट्ठा खुल जाएगा। देखिए, संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के साहित्य विभाग के एक OBC पद हेतु 27 अभ्यर्थियों ने आवेदन किया। 26 हिन्दू OBC थे – यादव, पटेल, चौधरी आदि आदि। एक मुस्लिम OBC था – खान और हिन्दू विश्वविद्यालय के नास्तिक कुलपति राकेश भटनागर और भ्रष्ट साहित्य विभागाध्यक्ष और उनके गैंग ने मुस्लिम OBC को ज़्यादा योग्य माना। 26 OBC हिन्दू मूर्ख साबित किए गए। और OBC-SC/ST के हक़ के लिए लड़ने वाले प्रोपोगंडावादी झुण्ड ने एक स्वर में उसका धर्म देखकर 26 हिन्दू OBC को लात मार दिया।