नागरिकता संशोधन विधेयक कानून बन गया है। इसकी वजह से तीन देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान बहस के केंद्र में हैं। कभी सांस्कृतिक और वैचारिक तौर पर खुला मुल्क रहा अफगानिस्तान जब तालिबानी कठमुल्लों के शिकंजे में आया तो दड़बे में बदल गया। अल्पसंख्यकों की तो छोड़िए, बहुसंख्यकों पर भी तमाम तरह की बंदिशें थी। लेकिन, तालिबान के पतन के साथ ही अफगानिस्तान में बदलाव की हल्की-हल्की बयार बहने लगी है।
जिस देश में कुछ साल पहले तक संगीत हराम था, महिलाओं का बेपर्दा होना गुनाह था, आज वहॉं महिलाओं का एक पूरा ऑर्केस्ट्रा खड़ा हो गया है। लंदन से लेकर सिडनी तक उसकी धुनें सुनी जा रही है। यह ग्रुप है जोहरा।अफगानिस्तान नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ म्यूजिक ने 2015 में इसकी शुरुआत की थी। एक ऐसे देश में जहाँ औरतों को तालिबानी नियमों से हटकर कुछ भी करने पर पत्थर मार-मार कर खत्म करने का कानून रहा हो, ‘जोहरा’ की नींव बदलाव की बासंती बयार जैसी है।
1996 से 2001 के बीच तालिबान के शासन में संगीत और लड़कियों को पढ़ाने, दोनों पर ही प्रतिबंध था। लेकिन, फिर भी अहमद सरमस्त ने लीक से परे हिम्मत जुटाई और अफगानिस्तान राष्ट्रीय संगीत संस्थान की स्थापना 2010 में की। इसकी सबसे पहली खासियत ये रही कि कट्टरता में जकड़े अफ्गानिस्तान में ये इकलौता संस्थान ऐसा है जहाँ लड़के और लड़कियाँ एक साथ पढ़ते हैं। इसी ने बाद में पहले महिला ऑर्केस्टा ‘जोहरा’ को जन्म दिया। इस समूह ने दावोस में विश्व आर्थिक मंच की बैठक के दौरान परफॉर्म कर अपने देश के कई मिथ्यों को तोड़ा। ग्रुप की 30 लड़कियों ने लंदन जाकर परफॉर्म किया।
अफगानिस्तान जैसे मुल्क में हुई ये बदलाव की हवा निश्चित ही आवश्यक थी। लेकिन कहा जाता है न कुरीतियों के प्रभाव से निकलने में बहुत कुछ झेलना पड़ता है, तो इस ऑर्केस्टा के शुरुआती समय में कुछ ऐसा ही हुआ। ग्रुप की कुछ लड़कियों को अपने ही परिवार का बहिष्कार झेलना पड़ा। इस सिम्फनी की दो कंडक्टरों में से एक नेगिन के पिता तो उनका साथ देते हैं। लेकिन उनके अलावा पूरा परिवार संगीत सीखने और ऑर्केस्ट्रा में शामिल होने के खिलाफ था। वह बताती हैं कि उनके कई रिश्तेदारों ने इसी वजह से उनके पिता से अपने संबंध तक तोड़ लिए।
इन महिलाओं के मजबूत इरादों का प्रतिबिंब बन खड़ा हुआ ये ऑर्केस्टा टूटा नहीं। जैसा कि ऊपर जिक्र किया कि ‘जोहरा’ ने अपनी पहली विदेशी परफॉर्मेंस स्विट्जरलैंड के दावोस में विश्व आर्थिक फोरम के दौरान दी। इसके बाद स्विट्जरलैंड और जर्मनी के चार अन्य शहरों में भी उन्होंने अपने संगीत का जादू बिखेरा। धीरे-धीरे पारंपरिक परिधानों में सजी इन लड़कियों के संगीत की महक पूरी दुनिया में फैल गई। ये ऑर्केस्टा पारंपरिक अफगान और पश्चिमी शास्त्रीय संगीत बजाता और लोग मुग्ध होकर इन्हें सुनते!
इस ऑर्केस्टा में 12 साल से 20 साल तक उम्र की 30 से ज्यादा लड़कियाँ हैं। इसका नाम “फारसी साहित्य में संगीत की देवी कही जाने वाले जोहरा के नाम पर रखा है।”
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सरमस्त ने इस ऑर्केस्टा को खड़े करने के लिए बहुत जोखिम उठाए। प्रतिबंधों के बीच उम्मीद की लौ जलाने की लड़ाई बेहद मुश्किल थी। एक बार तालिबान के हमले में मरते-मरते बचे। दरअसल, 2014 में एक कंसर्ट के दौरान तालिबान के आत्मघाती हमलावर ने खुद को उड़ा लिया था। इस घटना में सरमस्त घायल हो गए थे, जबकि दर्शकों में शामिल एक जर्मन व्यक्ति की जान चली गई थी ।
इस ग्रुप की संयोजक जरीफा अबीदा भी यहाँ तक पहुँचने के बाद संघर्षों को याद करती हैं तो मन सिहर जाता है। जरीफा ने आपबीती बयां करते हुएबताया, “अफगानिस्तान एक ऐसा देश जहाँ औरतें जो संगीतकार, आर्टिस्ट या कंडक्टर हैं, उन्हें तालिबानी सड़कों पर जिंदा जला देते हैं या फिर पत्थरों से मार-मार कर हत्या कर देते हैं। मुझे हर रोज यह डर सताता था कि घर वाले मेरा स्कूल जाना बंद करवाकर मेरी शादी न करवा दें। 2014 में मैंने संगीत स्कूल एएनआईएम में दाखिला लिया। इस बारे में परिवार को भी नहीं बताया। हमारे यहाँ म्यूजिक सीखने वाली लड़कियों से लोग बेहतर सुलूक नहीं करते हैं।”
अफगानिस्तान की संगीत की विरासत 1000 साल पुरानी है। 1979 के सोवियत से लेकर 2001 तक के तालिबानी पहरे ने इस विरासत को जमींदोज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस दौरान इस मुल्क की महिलाओं ने, कलाकारों ने, संगीतकारों ने कई बार तालिबानी बर्बरता झेली। लेकिन आज अहमद, जरीफा और नेगिन के हौसले से इस विरासत की गूँज फिर से सुनाई पड़ रही है।
यकीनन, अफगानिस्तान में तालिबान का प्रभाव पूरी तरह खत्म अब भी नहीं हो पाया है। लेकिन उसके जख्मों पर ‘जोहरा’ का संगीत मरहम जैसा ही है। दुआ करिए बदलाव की बयार बनी जोहरा की बेटियों को फिर से कठमुल्लों की नजर न लगे।