12 मार्च 2021: कॉन्ग्रेस शासित राजस्थान का जोधपुर। जोधपुर के भोपालगढ़ उपखंड के खारिया खंगार में एक स्वयंभू किसान नेता ट्रैक्टर चलाते दिखे। ट्रैक्टर पर वरिष्ठ कॉन्ग्रेसी और पूर्व सांसद बद्रीराम जाखड़ का बैनर लगा था।
13 मार्च 2021: चुनावी राज्य पश्चिम बंगाल का नंदीग्राम। वहीं स्वयंभू किसान नेता अपने साथियों के साथ ‘महापंचायत’ कर बीजेपी को चेता रहा था।
यह स्वयंभू नेता कोई और नहीं, बल्कि भारतीय किसान यूनियन (BKU) के राकेश टिकैत हैं। कथित किसान आंदोलन के अगुआ में से एक राकेश टिकैत की चुनावी सक्रियता से भले बीजेपी की संभावनाओं को फर्क न पड़े, लेकिन किसान आंदोलन की फसल काटने को लेकर विवाद शुरू हो चुका है। कारण वह बंगाल में उस तृणमूल कॉन्ग्रेस के लिए बिगुल फूँक रहे हैं, जिससे कॉन्ग्रेस और वामपंथियों का गठबंधन मुकाबिल है। यह सब तब हो रहा है कि जब किसान प्रदर्शनकारी दिल्ली की सीमाओं पर पक्के आशियाने बना रहे हैं।
अब जरा केंद्र सरकार के नए कृषि कानूनों के विरोध के नाम पर शुरू किए हुए बखेड़े की पृष्ठभूमि में चलते हैं। राकेश टिकैत और योगेंद्र यादव के अलावा दो नाम इसमें काफी प्रमुख रहे हैं। ये हैं – हन्नान मोल्लाह और दर्शन पाल। दर्शन पाल को आपने कई प्रेस कॉन्फ्रेंस में देखा होगा, वहीं मोल्लाह आंदोलन में लोगों को मोबिलाइज करते और नेटवर्क बनाते पाए गए थे। दोनों के बीच समानता ये है कि ये वामपंथी दलों से ताल्लुक रखते हैं। एक कट्टरवादी तो एक चुनावी से।
हन्नान मोल्लाह ‘ऑल इंडिया किसान सभा’ के महासचिव हैं। साथ ही वो उस CPI (M) की पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं, जिसका मुकाबला पश्चिम बंगाल में तृणमूल कॉन्ग्रेस के साथ हो रहा है। वे हावड़ा के उलूबेरिया से 8 बार सांसद रहे हैं, वो भी लगातार। दर्शन पाल की बात करें तो वो PDFI नामक संस्था के संस्थापकों में से एक रहे हैं, जो हिंसक नक्सली आंदोलन से निकल कर सामने आया। नक्सलियों की हिंसा के अतीत के बारे में विवरण देने की ज़रूरत नहीं है।
आप देख सकते हैं कि किस तरह वामपंथियों ने न सिर्फ इन आंदोलन को सींचा, बल्कि इसमें खाद भी डालते रहे। 5 राज्यों में चुनाव आने थे, ऐसे में इस तरह के नाटक काम देते हैं। 2019 लोकसभा चुनाव से पहले राफेल का रट्टा लगाया गया था। दिल्ली चुनाव से पहले शाहीन बाग़ हुआ। उसी तरह 2015 में बिहार चुनावों से पहले अवॉर्ड वापसी हुई थी।
सभी जानते हैं कि गणतंत्र दिवस के दिन जो हिंसा हुई, उसके बाद इन किसान नेताओं की आंदोलन की रही-सही विश्वसनीयता भी खत्म हो गई थी। खालिस्तानियों ने इसे हाइजैक कर लिया और किसी तरह राकेश टिकैत ने रो-धो कर किसी तरह बॉर्डर से डेरा उखड़ने से बचाया। फिर ऐलान किया कि अब वो सभी चुनावी राज्यों में भाजपा के खिलाफ प्रचार करेंगे। अब यही विवाद की वजह बन गया है।
इसी क्रम में किसान नेता नंदीग्राम पहुँचे, जहाँ से खुद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी मैदान में हैं और उनका मुकाबला दिग्गज भाजपा नेता शुभेंदु अधिकारी से है। लेकिन, राकेश टिकैत और योगेंद्र यादव जैसों की इस ‘महापंचायत’ में हन्नान मोल्लाह नहीं पहुँचे। वामपंथी इस बात से नाराज़ हैं कि किसान नेताओं के इन करतूतों का फायदा सीधा TMC को हो सकता है। मोल्लाह अब कह रहे हैं कि ये तो गुरुद्वारा कमिटी का कार्यक्रम था, जिसके बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं।
वो कहते हैं कि पश्चिम बंगाल में सभी किसान संगठनों का समर्थन तो CPI (M) को ही है। लेफ्ट के किसान संगठन ‘कृषक सभा’ ने भी इस कार्यक्रम में उपस्थिति दर्ज नहीं कराई। इसके नेता अमल हलदर ने कहा कि किसान नेताओं के भाजपा के खिलाफ अभियान चलाने से उन्हें कोई दिक्कत नहीं, लेकिन उनकी पार्टी ने उम्मीदवारों के नाम घोषित कर दिए हैं और प्रचार में व्यस्त होने के कारण वे कार्यक्रम में नहीं गए।
एक CPM नेता का तो यहाँ तक कहना है कि ये किसान नेता TMC के साथ संपर्क में हैं। याद कीजिए, ममता बनर्जी ने भी डेरेक ओब्रायन को अपने प्रतिनिधि के रूप में दिल्ली की सीमा पर चल रहे आंदोलन में भेजा था और फोन कॉल पर नेताओं से बात कर उन्हें समर्थन दिया था। मेधा पाटेकर ने जिस तरह से अस्पताल में जाकर ममता बनर्जी से मुलाकात की, उससे भी लेफ्ट छला हुआ महसूस कर रहा है।
किसान आंदोलन दिल्ली के बॉर्डर से कोलकाता की सड़कों तक पहुंच गया है pic.twitter.com/8C7mXXUn2z
— Ajeet Singh (@geoajeet) March 13, 2021
लिहाजा अब आपस में मारामारी हो रही है। राजस्थान में कॉन्ग्रेस के ट्रैक्टर पर घूमने वाले टिकैत बंगाल में ममता के लिए अप्रत्यक्ष रूप से बंगाल में वोट माँग रहे हैं। अब लोगों को भी एहसास हो रहा कि इस सारे फसाद का किसानों से कुछ लेना-देना नहीं है। 5 राज्यों के चुनाव में बीजेपी की संभावनाओं को प्रभावित करने के मकसद से ये पूरा बखेड़ा खड़ा किया गया था।
वैसे चुनाव को प्रभावित करने राकेश टिकैत की क्षमताएँ भी सवालों के घेरे में है। राजनीति की पिच पर वे घर में ही बुरी तरह ढेर रहे हैं। उनकी एकमात्र जमा पूँजी महेंद्र टिकैत का पुत्र होना है, जिसके दम पर वे किसानों के रहनुमा होने का दंभ भरते रहते हैं। उनकी अति सक्रियता से भले भाजपा की चुनावी उम्मीदों को झटका न लगे, लेकिन जिस तरह उनके चुनावी दौरों को लेकर वामपंथियों और अन्य विपक्षी दलों के बीच मतभेद उभरे हैं, उससे इन चुनावों के बाद किसान आंदोलन का तंबू उखड़ना तय ही लगता है।