10 मार्च 2021 को नंदीग्राम में हुए ‘हमले’ को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने किसी साजिश का नतीजा बताया था। उन्होंने कहा था कि वह चोट लगने से काफी दर्द में हैं और उनको बुखार भी हो गया है। हालाँकि, घटना के बाद वह पूरे 300 किलोमीटर का फासला तय करके SSKM अस्पताल में भर्ती हुईं।
उनके कार्यकर्ता इस बीच लगातार इल्जाम लगाते रहे कि ये चुनाव प्रचार से उन्हें दूर रखने की साजिश हैं। यहाँ उन्होंने किसी का नाम लिए बिना भाजपा पर निशाना साधना चाहा। वहीं चश्मदीदों ने पूर्ण रूप से ममता के हर दावे को खारिज किया। सबने बताया कि किसी ने ममता बनर्जी को धक्का नहीं दिया, जो हुआ वो दुर्घटना थी।
चश्मदीद, ममता के इस दावे को भी नकारते हैं कि घटना के समय पुलिस वाले उनके साथ नहीं थे। लोगों का कहना है कि उस समय ममता बनर्जी पुलिस वालों से घिरी थीं।
घटना को विस्तार से बताते हुए चश्मदीदों ने कहा कि उस समय ममता बनर्जी की कार चल रही थी। कार के दरवाजे खुले थे और वह बाहर इंतजार कर रहे लोगों का हाथ जोड़कर अभिवादन कर रही थीं। नंदीग्राम के बिरुलिया बाजार में कार एक खंभे से टकराई और दरवाजा उनके पैर में जा लगा। इसी से उन्हें चोट भी आई। घटना के समय मौजूद लोगों का कहना है कि 4-5 लोगों द्वारा धक्का देने की बात सरासर गलत है।
अब ममता और प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों में ऐसी विसंगति ये सवाल उठाती है कि आखिर इस घटना के बाद बंगाल के मतदाता क्या सोचेंगे? बीजेपी ने तो इसे नौटंकी कहा है और ममता के दावों को मानने से इनकार किया है, जिसके कारण पार्टी को निष्ठुर व क्रूर तक कहा जा रहा है। ऐसे में यह जानना वाकई दिलचस्प है कि वोटरों का इस पर क्या असर होगा।
जैसी स्थिति है किसी को भी मानना ही होगा कि राजनेत्री की यह तस्वीर, जिसमें वह बिस्तर पर पड़ी हैं, चेहरे पर ऐसे एक्सप्रेशन हैं, पैरों में पट्टी बँधी है, वह बेहद ताकतवर है। भारत के पुरुषवादी समाज को ऐसी तस्वीरें पसंद आती हैं। ये आदर्श फिल्म के लिए बिलकुल सटीक है।
जैसा कि हम जानते हैं कि चुनाव भावनाओं पर जीते जाते हैं, लेकिन संभव है कि कुछ इस बात को मानने से मना करें और खुद को उस तार्किक व्यक्ति की तरह दिखाने की कोशिश करें, जो नेताओं को उनके ट्रैक रिकॉर्ड और निर्णयों के आधार पर आँकता है, लेकिन हकीकत में सच ये नहीं होता।
लोग उन्हें वोट करते हैं जो उनके दिल में उतरें। राजनीति आसान काम नहीं है, चाहे कोई कितना भी तर्क दे। आपको वाकई समझना होता है कि लोग क्या चाहते हैं। फिर उन वादों को पूरा करना पड़ता है जो आपने उनके किए। और केवल वादे ही नहीं, आपको उन्हें मनाने वाला, उन्हें प्रेरित करने वाला और सबसे महत्वपूर्ण उनसे सहानुभूति रखने वाला बनना पड़ता है। यही सब आपको अच्छा राजनेता बनाता है कि लोग आप पर यकीन करें। इसी के बाद वो आपको अपना जवाब वोट के रूप में देते हैं, इस आशा से कि सिर्फ और सिर्फ़ आप उनके लिए लड़ेंगे।
अच्छे नेता की पहचान वास्तव में ईमानदारी के आधार पर होती है कि एक नेता अपने किए गए वादों में से कितनों को वोट पाने के बाद पूरा करता है।
हालाँकि, टीएमसी का इन सब गुणों से सरोकार नहीं है।
2011 में ममता बनर्जी जब सत्ता में आई तो उसका आधार माँ, माटी, मानुष था। उन्होंने कहा था कि माटी की बेटी हैं, जो इस माटी से संबंध रखने वालों के लिए अपनी आखिरी साँस तक काम करेंगी।
ममता ने उस बयान से सत्ता पाने तक एक कठिन यात्रा तय की। वह दंगों में बंगाली हिंदुओं की हत्या पर चुप रहीं। एनआरसी के लिए प्रदर्शन किया, पहले बांग्लादेशियों को वापस भेजने की बात कही, बाद में ये कह दिया कि वह भी बंगाल के नागरिक हैं।
जाहिर है टीएमसी ने सत्ता पाने के लिए हमेशा ही लोगों की भावनाओं के साथ खेला है। लेकिन इस बार उन्हें ऐसा क्यों लग रहा है कि बंगाल में बयानबाजी से काम चलेगा। क्यों ऐसा माना जा रहा है कि इस घटना से लोगों पर प्रभाव पड़ेगा?
Prashant Kishore in overconfidence shared his special strategy of winning election even before using it for own party in current election. pic.twitter.com/adR6COoOTq
— Political Kida (@PoliticalKida) March 11, 2021
नए लोगों के लिए ये अच्छी राजनीति है। यकीन नहीं होता! प्रशांत किशोर ने इसे लेकर एक इंटरव्यू में कहा भी था। किशोर ने बाकायदा ये कहा था कि अगर पैरामिलिट्री फोर्स पर कोई हमला हुआ तभी भाजपा 100 से ज्यादा सीट जीत पाएगी। वरना ये असंभव है।
अब किशोर का ये बयान साफ तौर पर बताता है कि बंगाल में भावनाओं के दम पर चुनाव के फैसले होते हैं। तो क्या जो नंदीग्राम में ममता बनर्जी के साथ हुआ उसे इस लिस्ट का हिस्सा नहीं माना जाएगा।
ध्यान रहे कि आज पूरा दिन टीएमसी का यही दावा ठोकने में बीता है कि एक सुनियोजित ढंग से ममता बनर्जी पर हमला हुआ, जबकि पुलिस कह चुकी है कि ये एक्सीडेंट था।
सवाल है कि बंगाल में भावनाएँ चुनाव में कैसे काम करती है? इसके लिए हमें याद करना होगा 1977-2011 का वामपंथी शासन। जहाँ पाँच बार ज्योति बसु मुख्यमंत्री रहे और दो बार बुद्धदेव भट्टाचार्या। ज्योति बसु के राज में हिंदुओं ने तमाम नरसंहार देखा। मरीचझापी नरसंहार इसमें शामिल है। बुद्धदेव भट्टाचार्या के समय भी कई बार राजनीतिक हिंसा हुई।
बंगालियों ने वामपंथियों को 35 साल दिए। क्यों? क्योंकि उन्हें लगा वह कुछ करेंगे। लेकिन असल में लेफ्ट बंगालियों को हाशिए पर ले आया। पूरे 35 साल लग गए उन्हें ये एहसास करने में कि वामपंथी उनके लिए कुछ नहीं कर रहे। लेकिन फिर भी उन्होंने उन्हें ही वोट दिया, क्योंकि ममता बनर्जी ने दलितों के लिए कुछ करने का वादा नहीं किया था।
बंगाल की जनता ने ममता पर तब यकीन किया जब वह उनके साथ भूख हड़ताल पर बैठी। उन्होंने तब वोट दिया जब उन्हें वामपंथियों से पिटते देखा। उन्हें लगा कि ये ममता तो उन लोगों की बेहतरी के लिए लड़ रही हैं, जबकि कम्युनिस्ट सिर्फ़ सत्ता हथियाने के लिए।
आप समझिए कि बंगाल के लोगों को अपने शानदार इतिहास पर गर्व है। वह उसे लेकर मंत्रमुग्ध हैं। उनके लिए बंगाली होने का मतलब अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति करने वाले, अत्याचारियों के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले और सभी बाधाओं के खिलाफ खड़े होने वाले बुद्धिजीवियों से है।
राजनीति उनके लिए सिर्फ़ एक सामान्य चर्चा का विषय नहीं है। इसे वह बस अड्डे, सुट्टे की दुकान, पान के खोखे, बस के भीतर, ट्रेन में हर जगह छेड़ सकते हैं। इस दौरान वह अपने पूर्वजों पर बात करना नहीं भूलते, उनकी शूरता की गाथा सुनाना नहीं भूलते। क्रांति यहाँ के लोगों के दिलों और खून में है।
ममता ने अपने हालिया ड्रामे के साथ इन्हीं भवनाओं को भड़काने की कोशिश की है, लेकिन अफसोस बाकियों के लिए वह मीम बन गया। माटी की बेटी ये दिखाना चाहती हैं कि उन्होंने अत्याचारियों से लड़कर सत्ता में वापसी की है ताकि वह लोगों से लड़ सकें। ये उनका परफेक्ट प्लान है। प्रशांत किशोर अपनी बात कह चुके हैं, क्योंकि उन्होंने बंगाल का अध्य्यन किया है। ममता ने ऐसा कर दिखाया, क्योंकि वो यहाँ रही हैं।
लेकिन, सिर्फ़ इस बार मुमकिन है कि ममता बनर्जी को क्रांतिकारी के तौर पर नहीं देखा गया, बल्कि एक ऐसे शख्स के तौर पर देखा गया जो क्रांतिकारियों को चुप कराए।
आज जैसे-जैसे जय श्री राम के नारे बुलंद होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे कोई भी समझ सकता है कि ममता के हथकंडे काम नहीं कर रहे। ममता को याद रखना चाहिए ये वही बंगाल है जो अत्याचारियों को हर बार नकारता है। इन्होंने वामपंथियों को 35 साल दिए और आखिर में टीएमसी को तंग आकर सत्ता में लाई। इस बार बंगालियों की भावनाएँ फिर उन लोगों को देख आहत हुईं है, जिन्हें कभी बर्बरता से मारा गया, कभी पेड़ से लटकाया गया। शायद इस बार सूजे हुए टखने उन्हें पिछली बार की तरह जीत न दिला पाए।
नुपूर जे शर्मा द्वारा मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा गया यह लेख आप यहाँ क्लिक कर पढ़ सकते हैं