अगर सारे एग्जिट पोल्स की मानें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में पूर्ण बहुमत के साथ राजग की सरकार बनने जा रही है। एग्जिट पोल को जहाँ विपक्ष एक महज अनुमान बता रहा है, मीडिया के गिरोह विशेष इसको लेकर दो फाड़ हो गए हैं। जहाँ मीडिया का एक धड़ा भाजपा के कथित प्रोपेगेंडे पर विश्वास करने को लेकर जनता को ही गालियाँ देने में लगा हुआ है, वहीं दूसरा धड़ा कॉन्ग्रेस को कड़ी टक्कर न देने के लिए घेर रहा है। उसे अपनों से ही शिकायत है क्योंकि कॉन्ग्रेस ने ‘उस तरह से’ लड़ाई नहीं लड़ी, ‘जिस तरह से’ गिरोह विशेष चाहता था। एग्जिट पोल्स तो आ गए लेकिन मीडिया के गिरोह विशेष के साथ-साथ विपक्ष की तरफ़ से भी कुछ रुझान आ रहे हैं, जिसके आधार पर हम ये तय करने में सक्षम हैं कि इनकी नज़र में हार का कारण क्या होगा।
जैसा कि हमें पता है, मीडिया का गिरोह विशेष और विपक्ष कभी भी मोदी लहर को स्वीकार नहीं करेगा। ये लोग न तो प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को मानने को तैयार होंगे और न ही भाजपा की कुशल रणनीतिक व राजनीतिक क्षमता को स्वीकार करेंगे। ईवीएम को लेकर रोना चालू होगा, मणिशंकर अय्यर और सैम पित्रोदा पर बिल फाड़े जाएँगे, मीडिया के उस धड़े को मोदी से ‘कड़े सवाल’ न पूछने के लिए गालियाँ दी जाएँगी और विपक्ष को एकता बनाए रखने में विफल रहने के लिए भी ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा। कुल मिलकर देखें तो पीएम मोदी और भाजपा की प्रशंसा करना छोड़ कर सारी चीजों को मोदी की जीत के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा।
ईवीएम का रोना चालू आहे
ईवीएम को लेकर विपक्ष का रोना तो तभी चालू हो गया था, जब चुनाव शुरू भी नहीं हुए थे। सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग से लेकर जनता तक, विपक्ष ने ईवीएम का बहाना लेकर हर संस्था के बीच अपनी बात रखने की कोशिश की। इनके इस कुप्रचार अभियान से लग रहा था, इस बात का पूरा प्रयास किया गया कि ईवीएम को भाजपा व संघ का कार्यकर्ता ही क्यों न घोषित कर दिया जाए। लंदन में नकाबपोश से प्रेस कॉन्फ्रेंस करवाई गई। तरह-तरह के बहाने लेकर कभी ब्लूटूथ वाई-फाई से ईवीएम हैक करने की बात कही गई। लेकिन अंततः, सुप्रीम कोर्ट से भी इन्हें भाव नहीं मिला। कोर्ट ने प्रति विधानसभा 5 बुथों पर वीवीपैट पर्चियों के मिलान का निर्देश देते हुए विपक्ष की माँग को नकार दिया। चुनाव आयोग पहले भी कहता रहा है कि किसी मशीन में कुछ गड़बड़ियाँ आ जाना और उसे हैक कर लेना, ये दो अलग-अलग चीजें हैं।
आंध्र के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ईवीएम के विरोध में ख़ासी मुखर हैं। दोनों ही अपने-अपने राज्यों को अपना अभेद्द किला मानते थे, और एग्जिट पोल्स के हिसाब से इन दोनों ही राज्यों में इनका किला ध्वस्त होने की कगार पर है। एग्जिट पोल्स के हिसाब से नायडू और रेड्डी में से कोई भी आंध्र का मुख्यमंत्री बन सकता है और जगनमोहन रेड्डी नाकाम भी रहे तो आंध्र की अच्छी-ख़ासी लोकसभा सीटों को जीत कर नायडू के किंगमेकर बनने के सपने को तो ध्वस्त करते दिख ही रहे हैं। राज्य में विधानसभा चुनाव भी साथ में ही संपन्न हुए हैं। वहीं बंगाल में वाम के अप्रासंगिक होने के बाद ममता बनर्जी के गढ़ में भाजपा बड़ी ताक़त बन कर उभरी है और कुछ एग्जिट पोल्स में भाजपा को तृणमूल से भी आगे दिखाया गया।
ईवीएम को लेकर सबसे ज्यादा चिंता में वही लोग हैं, जहाँ राष्ट्रीय मीडिया में ख़बरें फ़िल्टर होकर आती हैं। बंगाल में मीडिया के लोगों कोई ही पिटाई की जाती है, आंध्र में नायडू अधिकतम सीटें जीत कर किंगमेकर बनना चाहते थे। तभी उन्होंने पिछले 2 दिनों में अध्यक्ष राहुल गाँधी से मुलाक़ात की। ईवीएम को लेकर वही परेशान हैं, जिनके दिवास्वप्न धराशायी हो चुके हैं। आम आदमी पार्टी भी ईवीएम के विरोध में ख़ासी मुखर है क्योंकि पार्टी के लिए लोकसभा में अस्तित्व का संकट आ खड़ा हुआ है। एग्जिट पोल्स में पंजाब और दिल्ली में उसे शून्य से 1 सीट दी जा रही है, यानी पार्टी के लिए इस बार खाता खोलना भी मुश्किल है।
मणिशंकर और पित्रोदा पर बिल फाड़ा जाएगा
बुधवार (मई 15,2019) को झारखण्ड के देवघर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक रैली हुई। इस रैली में प्रधानमंत्री ने सैम पित्रोदा और मणिशंकर अय्यर के बयानों को लेकर दोनों ही नेताओं को घेरा। जहाँ अय्यर ने मोदी की नक़ल करते हुए कैमरे के सामने अजीब तरीके से व्यवहार किया वहीं पित्रोदा ने 1984 सिख नरसंहार को लेकर ‘हुआ तो हुआ’ कहा। मोदी ने इस रैली में कहा,
“विपक्षी पार्टी ने नामदार को बचाने के लिए दो बल्लेबाज खड़े किए हैं। पार्टी ने चुनाव में ख़राब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेने का काम इन दोनों को सौंपा है। एक 1984 के सिख विरोधी दंगों पर कहता है ‘हुआ तो हुआ’ जबकि दूसरा, गुजरात चुनाव के दौरान मुझे अपशब्द कहने के बाद से पर्दे के पीछे थे। वह अब फिर से मुझ पर हमला कर रहे हैं।“
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान के पीछे भाव यह था कि हार की ज़िम्मेदारी राहुल गाँधी को न लेनी पड़े, इसके लिए इन दोनों नेताओं पर ठीकरा फोड़ा जाएगा। अगर ऐसी स्थिति आती है कि राहुल गाँधी को हार की जरा सी भी ज़िम्मेदारी लेनी पड़े (जो कि उन्हें लेनी चाहिए क्योंकि उन्होंने 125 रैलियाँ की हैं), इस स्थिति से बचने के लिए मीडिया का राहुल प्रशंसक धरा और कॉन्ग्रेस पार्टी अय्यर और पित्रोदा को बलि का बकरा बना सकते हैं। कुल मिलाकर कोशिश यह की जाएगी कि राहुल गाँधी पर कोई ऊँगली न उठे और अगले कुछ महीनों में अगर किसी यूनिवर्सिटी चुनाव में कॉन्ग्रेस को थोड़ी-बहुत सीटें आ जाती हैं तो इसे राहुल की वापसी या कमबैक की तरह प्रचारित किया जा सके।
और, यह कार्य करेंगे कौन? साधारण पंचायत और वार्ड चुनाव में भाजपा की हार के लिए सीधे मोदी को ज़िम्मेदार ठहराने वाले कॉन्ग्रेस की हार के लिए उसके अध्यक्ष को ज़िम्मेदार नहीं मानेंगे, भले ही उन्होंने 125 रैलियाँ की हो। अगर इतने बड़े स्तर पर दौरा करने के बावजूद भी उन्हें वोट नहीं मिलते हैं तो ये नहीं कहा जाएगा कि जनता के बीच उनकी अस्वीकार्यता है, इसे भी पित्रोदा और अय्यर के पल्ले डाल दिया जाएगा। मीडिया भी यही कहेगी कि इनके बयानों से कॉन्ग्रेस को नुकसान हुआ है। अगर इन दोनों नेताओं के बयानों से पार्टी को कुछ सीटों का नुकसान हुआ भी है तो बड़े स्तर पर हुए नुकसान की ज़िम्मेदारी किसकी? नहीं, पार्टी अध्यक्ष की नहीं।
मीडिया ने भाजपा की मदद की
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे चुनाव के दौरान कई मीडिया एजेंसियों व सस्थानों को साक्षात्कार दिए। साल की शुरुआत ही एएनआई को दिए गए उनके साक्षात्कार से हुई। इतने सारे इंटरव्यू के अलावा उनका एक ग़ैर-राजनीतिक इंटरव्यू अभिनेता अक्षय कुमार ने भी लिया। क्या किसी को विश्वास हो सकता है कि क़रीब 20 मीडिया संस्थानों ने प्रधानमंत्री का इंटरव्यू लिया हो, और उनसे कड़े सवाल न पूछे गए हों? हिंदुस्तान और नवभारत टाइम्स जैसे अख़बारों से लेकर एबीपी न्यूज़ और न्यूज़ नेशन जैसे टीवी न्यूज़ चैनलों तक, तमान मीडिया संस्थानों ने पीएम के इंटरव्यू लिए और राफेल से लेकर साध्वी प्रज्ञा तक, उनसे हर एक विवाद से लेकर आरोपों तक पर सवाल पूछे गए।
राफेल पर सुप्रीम कोर्ट से क्लीन चिट मिलने के बावजूद पीएम से सवाल पूछे गए। साध्वी प्रज्ञा के विवादित बयान को लेकर उनसे पूछा गया। विपक्ष के तमाम आरोपों को लेकर उन पर सवालों की बौछाड़ की गई लेकिन रवीश कुमार जैसे कुछ पत्रकार और लिबरल ‘कड़े सवाल-कड़े सवाल’ का रोना रोते रहे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से किस तरह के सवाल पूछे जाने चाहिए थे, ये किसी ने स्पष्ट नहीं किया। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और केंद्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी तक तमाम नेता मीडिया के सवालों का जवाब देने के लिए मुस्तैद दिखे, करण थापर सरीखों ने गडकरी से कथित ‘मॉब लिंचिंग’ पर सवाल भी पूछे, फिर भी गिरोह विशेष को शिकायत है।
कारण स्पष्ट है। कॉन्ग्रेस की बुरी हार हो रही है और अगर पार्टी को रेस में बने रहना है तो राहुल गाँधी को मीडिया का लाडला बनाए रखना होगा, उन्हें लिबरलों का संरक्षण मिलते रहना चाहिए। अगर नहीं, तो इस गिरोह के लिए कोई अन्य नेता है कहाँ? अरविन्द केजरीवाल तमाम ‘क्रान्तिकारी’ इंटरव्यू और प्रचार के बावजूद लोकसभा में अपनी पार्टी के अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। गिरोह विशेष दूसरा लाडला लाए भी तो कहाँ से लाए? लाडले को बचाने के लिए हार के अजीब-अजीब कारण गिनाए जाएँगे लेकिन राहुल की ‘इमेज’ पर आँच न आए, इसका ध्यान रखा जाएगा। मोदी की तारीफ़ तो भला करनी ही नहीं है, चाहे उन्हें कितनी ही बड़ी जीत क्यों न मिले।