वामपंथी मीडिया संस्थान, जो कि वास्तव में मीडिया संस्थान से ज्यादा कॉन्ग्रेस के मुखपत्र हैं, टिकटॉक सहित 59 चायनीज ऐप के प्रतिबंधित होने से इतने व्यथित हैं कि अब व्यंग्य और वास्तविकता में फर्क तक नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे ही कुछ फर्जी नैरेटिव और सत्ता विरोधी प्रपंच करने वाला नाम है ‘द टेलीग्राफ’। टिकटॉक बैन पर ‘द टेलीग्राफ’ ने ट्विटर से एक दक्षिणपंथी सोशल मीडिया इन्फ़्ल्युएन्सर एकाउंट का हास्य व्यंग्य ट्वीट उठाकर पूरी फर्जी घटना को रिपोर्ट की शक्ल में प्रकाशित करने का नायाब कारनामा किया है।
चायनीज ऐप, विशेषकर टिकटॉक पर प्रतिबंध के बाद ‘द टेलीग्राफ’ ही नहीं, बल्कि शेखर गुप्ता के द प्रिंट ने इस तरह से प्रतिक्रियाएँ दी हैं, जिन्हें देखकर यह कह पाना मुश्किल है कि भारत सरकार ने चायनीज ऐप के साथ ही कहीं कुछ वामपंथी मीडिया संस्थानों को तो नहीं प्रतिबंधित कर दिया है?
द टेलीग्राफ़ ने एक तथाकथित रिपोर्ट में यह बताने का प्रयास किया है कि किस प्रकार से चायनीज ऐप टिकटॉक को बैन करने से अर्थव्यवस्था को नुकसान होनी वाला है। कुछ ही दिन पहले, जब चायनीज ऐप के बैन होने की घोषणा हुई थी, ट्विटर पर इसे लेकर कई प्रकार के मजाक और व्यंग्य शेयर किए गए। जिनमें से एक व्यंग्य ‘द स्किन डॉक्टर’ ने भी लिखा था।
‘द स्किन डॉक्टर’ ने एक ट्वीट में लिखा था – “अब ऐसी कहानियों के लिए तैयार रहें: मेरी नौकरानी शाज़िया की बेटी एक टिकटॉक इन्फ्लुयेंसर थी और टिकटॉक विज्ञापनों के माध्यम से गरीब परिवार की कमाई में 3000-4000 रूपए प्रतिमाह का योगदान देती थी। टिकटॉक पर प्रतिबंध के साथ, सरकार ने गरीब परिवार को सूली पर लटका दिया है। जैसे कि लॉकडाउन काफ़ी नहीं था!”
Gear up for stories like :
— THE SKIN DOCTOR (@theskindoctor13) June 29, 2020
My maid Shazia’s daughter was a small time #TikTok influencer and used to contribute ₹ 3000-4000 a month to the modest family earning through tiktok ads. With tiktok ban, govt has pushed the poor family to the gallows. As if lockdown wasn’t enough!
लेकिन ऐसी ही भावुक एवं मार्मिक कहानियों की तलाश में बैठे रहने वाले प्रपंचकारी मीडिया गिरोह यह नहीं समझ सके कि स्किन डॉक्टर एकाउंट द्वारा द टेलीग्राफ़ जैसे मीडिया गिरोहों पर ही यह व्यंग्य किया गया था और उन्होंने यह कारनामा सही भी साबित कर दिया। ‘द टेलीग्राफ’ ने इस ट्वीट को ठीक इसी तरह से अपनी रिपोर्ट का हिस्सा बना लिया और यह तक देखना जरुरी नहीं समझा कि यह घटना वास्तव में हुई भी है या यह एक व्यंग्य है।
वहीं शेखर गुप्ता का ‘द प्रिंट’ भी टिकटॉक पर प्रतिबंध लगने के बाद एक मुस्लिम परिवार की कहानी शेयर करते हुए देखा गया जिसका शीर्षक था – “मोदी सरकार द्वारा ‘टिकटॉक’ पर बैन की खबर सुनते ही ‘मेरी पत्नियाँ रोने लगीं’ – टिकटोक स्टार ने सुनाई दास्ताँ”
यही नहीं, ऐसे मीडिया संस्थान रोज ही एक ऐसी मार्मिक किन्तु फर्जी घटनाओं पर ‘मार्मिक साहित्य’ लिखने के लिए घात लगाए बैठे हैं। लेकिन इन्हीं मीडिया गिरोहों की मेहरबानी है कि ऐसी कहानियाँ अब किसी को शायद ही विचलित कर पाती हों।
द टेलीग्राफ को वास्तव में लॉकडाउन और टिकटॉक के कारण हुई काल्पनिक बेरोजगारी की संख्या गिनाने के बजाए अपनी उन तमाम फर्जी रिपोर्ट्स को गिनना चाहिए, जिन्हें वो पूरी बेशर्मी के साथ इस कोरोना वायरस की महामारी और अब चायनीज ऐप पर प्रतिबन्ध के बाद रच रहे हैं।