चीन अपनी आदतों के कारण पूरे विश्व में फजीहत झेल रहा है। 9 दिसंबर को उसने अपने 600 फौजियों को भेजकर भारत के इलाके में घुसाने का प्रयास किया था, लेकिन भारतीय सैनिकों की मुस्तैदी के कारण उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा और वह सब सीमा से वापस लौट गए। घटना की वीडिया आने के बाद जहाँ चीनी फौजियों की दुनिया भर में फजीहत हुई, वहीं भारतीय सैनिकों की बहादुरी की तारीफें चारों ओर होने लगीं। इस बीच जो एक और चीज चर्चा में आई वो है- अरुणाचल प्रदेश का तवांग इलाका।
तवांग में चीनी फौजी, भारतीय सैनिकों से झड़प करके इसलिए घुसना चाहते थे ताकि यहाँ से वो एलएसी के साथ तिब्बत पर निगरानी रख सकें और बाद में अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा ठोंके। जबकि भारतीय सेना का एक सीधा मकसद चीनियों से उस इलाके की रक्षा करना था जिसका विलय 71 साल पहले बिन खून खराबे के शांतिपूर्ण ढंग से भारत में हुआ था।
मौजूदा जानकारियों के अनुसार, अरुणाचल प्रदेश का तवांग पहले तिब्बत प्रशासन का हिस्सा हुआ करता था। 1951 में ये भारत का हिस्सा बना और इसका पूरा श्रेय भारत के एक महान सैन्य अधिकारी को गया जिनका नाम- मेजर रालेंगनाओ बॉब खातिंग था। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू को नाराज करके और सरदार पटेल के रास्ते पर चलते हुए तवांग को भारत से मिलाया था। आइए आज उन मेजर बॉब की कहानी जानते हैं…
मेजर बॉब काथिंग और तवांग का भारत में विलय
तत्कालीन नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) के सहायक राजनीतिक अधिकारी रहे खातिंग का जन्म मणिपुर के तंगखुल नगा समुदाय में हुआ था। उन्होंने बिना किसी खून-खराबे के जनवरी 17, 1951 को तवांग को भारत में मिलाने का कार्य किया था। इस काम में असम राइफल्स के 200 जवानों ने उनका साथ दिया था। तब असम के राज्यपाल रहे जयरामदास दौलतराम के आदेश पर ये हुआ था। उससे पहले तवांग स्वतंत्र तिब्बत प्रशासन का हिस्सा हुआ करता था।
तवांग का भारत में विलय कराने वाले मेजर रालेंगनाओ बॉब खातिंग ने इंडियन फ्रंटियर एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस (IAFS) के पहले अधिकारी, नगालैंड के मुख्य सचिव और विदेश में आदिवासी समुदाय के पहले भारतीय राजदूत के रूप में अपनी सेवाएँ दीं। लेकिन उन्हें तवांग उपलब्धि के लिए कभी सम्मानित नहीं किया गया। उन्हें पद्मश्री और ब्रिटिश सरकार की तरफ से मेंबर ऑफ ब्रिटिश एंपायर सम्मान मिला था। उनके बेटे जॉन भी IRS की सेवा से रिटायर हो चुके हैं।
मेजर रालेंगनाओ बॉब खातिंग के जीवन की बात करें तो उनकी 5वीं तक की शिक्षा-दीक्षा एक स्थानीय मिशनरी स्कूल में हुई थी। उनकी बौद्धिक क्षमता के कारण असम की तत्कालीन राजधानी शिलॉन्ग के सरकारी हाई स्कूल में पढ़ने के लिए उन्हें स्कॉलरशिप मिला। गुवाहाटी के बिशप कॉटन कॉलेज से स्नातक की डिग्री पाने वाले वो मणिपुर के पहले ऐसे व्यक्ति थे, जो जनजातीय समुदाय से आते थे। इसके बाद वो असम के दर्राम स्थित बारासिंघा में एक स्कूल खोल कर पढ़ाने लगे। तब एक ब्रिटिश अधिकारी ने उन्हें उखरुल हाई स्कूल में प्रधानाध्यापक बना दिया। 1939 में दूसरे विश्व युद्ध के समय उन्होंने सेना में शामिल होने का फैसला लिया। 5 फ़ीट 3 इंच के बॉब ‘किंग्स कमीशन’ पाने वाले पहले मणिपुरी थे।
सेना में भर्ती के दौरान उनकी क्षमताओं के कारण उनकी हाइट आड़े नहीं आई, लेकिन उन्हें इसके लिए दिक्कतों का सामना ज़रूर करना पड़ा। उन्होंने मेजर केएस थिमैय्या (आज़ादी के बाद भारतीय सेना के प्रमुख) के नेतृत्व में प्रशिक्षण लिया और फिर 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट (बाद में 7वाँ कुमाऊँ रेजिमेंट) में शामिल हुए। जोरहाट में लॉजिस्टिक्स अधिकारी के रूप में काम करते हुए उन्होंने यूएस आर्मी एयर फोर्सेज (USAAF) की जापान की सेना के खिलाफ सहायता की।
बर्मा रोड में मणिपुरी जनजातीय समूहों के लोगों ने इस युद्ध में ब्रिटिश सेना के लिए गाइड का काम किया था। मणिपुर के महाराजा ने बर्मा के आक्रमण को ध्यान में रखते हुए भारत के साथ विलय का फैसला लिया और 1949 में ये एक भारतीय राज्य बना। 1950 में उन्होंने असम के तत्कालीन राज्यपाल अकबर हैदरी के निवेदन पर असम राइफल्स में सेवाएँ दी। तब असम-तिब्बत भूकंप के कारण इलाके में काफी बुरी स्थिति थी।
उन्होंने राहत कार्यों में बड़ी भूमिका निभाई। इसके बाद वो अरुणाचल प्रदेश में असिस्टेंट पॉलिटिकल अधिकारी बने और उनकी कूटनीति के सब कायल हो गए। जनवरी 17, 1951 को उन्होंने तवांग की तरफ मार्च किया। उन्होंने वहाँ के गाँवों के बुजुर्गों से बात की, तिब्बत के अधिकारियों से मिले और तिब्बती प्रशासन द्वारा मोनपा जनजातीय समुदाय पर लगाए कड़े टैक्सों की समीक्षा की। उनके तवांग दौरे के दौरान ही पीएम नेहरू ने अपने विदेश सचिव को एक पत्र लिखा। उन्होंने इस पत्र में लिखा था,
“मैं लगातार रक्षा समिति द्वारा उत्तर-पूर्वी सीमाओं पर हो रही गतिविधियों के बारे में सुन रहा हूँ। इससे तिब्बत और नेपाल की सीमा पर हलचल है। इन मामलों को कभी मेरी राय के लिए मेरे सामने नहीं लाया गया। असम के राज्यपाल और अन्य लोग निर्णय ले रहे हैं। हमारे तवांग में जाकर वहाँ का नियंत्रण लेने से अंतरराष्ट्रीय समस्याएँ आ सकती हैं, मैं पहले भी कह चुका हूँ। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि बिना मेरी जानकारी के ये सब कैसे हो रहा है।”
लेकिन ये सब उस दूरदर्शी नेता कहने पर हो रहा था, जिनका असामयिक निधन हो गया लेकिन उनकी नीतियाँ अब भी देश का भला कर रही थीं। सरदार पटेल ने अपने जीवनकाल में ही जयरामदास दौलतराम और मेजर बॉब को कह दिया था कि नेहरू से राय-मशविरा किए बिना ही ये ऑपरेशन चलाया जाए, क्योंकि वो दूसरी कश्मीर समस्या नहीं चाहते थे। उन्होंने 800 किलोमीटर की म्यांमार सीमा की समस्याएँ भी सुलझाई।
पीएम मोदी के राज में मिला मेजर बॉब को सम्मान
भारत को मजबूत बनाने में मेजर बॉब खातिंग ने अपना इतना महत्वपूर्ण योगदान दिया। लेकिन उसके बावजूद 70 साल तक वो किसी भी सम्मान से अछूते रहे। पिछले वर्ष 14 फरवरी 2021 उनके सम्मान में इम्फाल में एक स्मारक का अनावरण हुआ था। उस कार्यक्रम में पूर्व सीडीएस जनरल विपिन रावल, अरुणाचल के मुख्यमंत्री पेमा खांडू, मेघालय के मुख्यममंत्री कोनराड संगमा, केंद्रीय खेल मंत्री किरण रिजिजू और अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) बीडी मिश्रा भी मौजूद थे।