तालिबान के हाथों भारतीय फोटो जर्नलिस्ट दानिश सिद्दीकी की मौत के बाद भारत के तथाकथित लिबरल ने इस्लामिक आतंकी संगठन और देश के राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के बीच समानताएँ बतानी शुरू कर दीं। इसके लिए तरह-तरह के और हास्यास्पद तर्क गढ़े जा रहे हैं।
यहाँ उल्लेख करना आवश्यक है कि अपने जीवनकाल में मानवीय भावनाओं के प्रति असंवेदनशील रहने के कारण दानिश सिद्दीकी को मृत्यु के पश्चात भी आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है। सिद्दीकी ने कोविड-19 के कारण मृत्यु को प्राप्त हुए लोगों की जलती चिताओं की तस्वीरें खींचने के बाद उन्हें सार्वजनिक कर न सिर्फ मृत शरीर का मजाक बनाया था, बल्कि फोटो स्टॉक एजेंसी पर उन्हें बिक्री के लिए रखकर मानवीय संवेदनाओं की तिलांजलि भी दे दी थी। अब पत्रकार रोहित सरदाना की मौत पर खुशी मनाने वाले भारत के लिबरल, ‘दक्षिणपंथी संघियों’ पर दानिश सिद्दीकी की छवि खराब करने का आरोप लगा रहे हैं। उसी कड़ी में उन्होंने तालिबान की तुलना आरएसएस से करना शुरू कर दिया है।
हालाँकि, इसी तरह की तुच्छ तुलना उनके मुस्लिम समकक्षों के लिए अस्वीकार्य थी। लिबरल द्वारा संघ को ‘उम्माह’ और ‘तालिबान’ से जोड़ता देख इस्लामिस्ट भौचक्के रह गए। तालिबान को बदनाम करता देख इस्लामिस्ट ट्विटर पर अपना आक्रोश व्यक्त करने लगे, क्योंकि तालिबान की आलोचना उनकी नजर में ईशनिंदा है। जब लिबरल जॉयदास ने आरोप लगाया कि तालिबान ‘दक्षिणपंथी नीचों’ से प्रेरित है, इससे दुखी होकर एक इस्लामिस्ट (@OpusOfAli) ने पूछ ही लिया, ”आखिर एक मुसलमान को ही हमेशा खलनायक क्यों बनाया जाता है?”
अगस्त 2019 से जम्मू-कश्मीर के लिए खून के आँसू बहाने वाले हनान ने कहा कि तालिबान की आरएसएस से तुलना करना गलत है। उन्होंने कहा, “यह बहुत मजेदार है, क्योंकि आरएसएस तालिबान से भी पुराना है। इसलिए तालिबान ही आरएसएस से कुछ सबक लेता, न कि इसके विपरीत। सबसे गंभीर बात है कि इस तरह की समानताएँ यह दिखाने के लिए की जाती हैं कि किसी भी ‘बुराई’ का मानक हमेशा एक मुस्लिम होगा।”
जब कॉन्ग्रेस कार्यकर्ता श्रीवत्स ने अफगान तालिबान की तुलना ‘भारतीय तालिबान’ से करके लिबरल का ध्यान खींचना चाहा तो इस्लामिक आतंकवाद से सहानुभूति रखने वाले सरफी ने ट्वीट किया, “विडंबना यह है कि अफगानों ने अफगान तालिबान को वोट नहीं दिया। वे दुष्ट हैं, सोवियत संघ के खिलाफ अमेरिका द्वारा बनाए गए एक उपकरण हैं। आरएसएस मुख्यधारा में है और इसे महिमामंडित किया जाता है।”
इस्लामिस्ट सिदरा खफा हो गईं और श्रीवत्स के बयान को तुरंत ठीक किया। उन्होंने कहा, “हिंदुत्व बहुसंख्यकवाद और वर्चस्व। जो है, उसे कहें कृपया।”
ट्विटर अकाउंट ‘मुस्लिम’ ने दलील दी, “झूठी तुलना क्यों? ये हिंदुत्व आतंकवादी हैं जो आनन्दित हो रहा हैं। जैसा है वैसा ही कहो।”
एक अन्य इस्लामिस्ट रहमान ने लिखा, “आरएसएस की स्थापना 1925 में हुई थी, गाँधी की 1948 में हत्या कर दी गई थी। तालिबान 1994 में उभरा था, शायद यह दूसरा तरीका है। हिंदू लिबरल को मुसलमान, तालिबान, सऊदी को लाए बिना आलोचना करना सीखना चाहिए।”
‘लिबरल’ जॉयदास के ट्वीट पर प्रतिक्रिया देते हुए इस्लामिस्ट (@Ahmed_Brilliant) ने दावा किया, “लेशन 101: मुसलमानों के साथ झूठी समानता दिखाकर अपने आप को साफ-सुथरा कैसे करें।”
तलहा हुसैन नाम के एक यूजर ने आरोप लगाया कि प्रत्येक संघी एक उदार पिता से पैदा हुआ है। उस धारणा को ध्यान में रखते हुए उसने जॉयदास को फटकार लगाई और लिखा, “तालिबान ने आरडब्ल्यू (राइट विंग) को प्रेरित नहीं किया, तुम लोगों ने उन्हें बनाया.. चुप रहो।”
@PrinceOfDhamp नाम के इस्लामिस्ट ने जोर देकर कहा कि वीर सावरकर ही थे, जिन्होंने तालिबान को कट्टरपंथी बनने के लिए प्रेरित किया। व्यंग्य के एक हताश प्रयास में उन्होंने लिखा, “तालिबान (1994) ने विज्ञान में भारी निवेश किया, टाइम मशीन बनाई सावरकर के पास वापस गई और फिर उनके विचारों को प्रभावित किया। सावरकर ने RW संगठन (1924) का गठन किया, जिसने आज के RW बेवकूफों को प्रेरित किया। ओह! अंतत: कड़ी जुड़ गई।”
जैसा कि उपरोक्त ट्वीट्स से स्पष्ट है, भारत के इस्लामिस्ट आतंकवादी संगठन तालिबान की छवि खराब करने के कारण लिबरल समुदाय से नाराज हैं। आरएसएस और तालिबान के बीच एक झूठी समानता दिखाकर और दानिश सिद्दीकी की मौत में तालिबान की भूमिका को नकार के इस्लामिस्टों ने ‘दक्षिणपंथी /संघ/आरएसएस को ‘बड़ी बुराई’ के रूप में चित्रित करने की कोशिश की है। विचित्र समानताओं और मानवीकरण की सूक्ष्म कला के तहत आतंकवादी संगठनों के नया ब्रांड मेकओवर में मदद करने में इस्लामिस्ट सक्षम हैं।
यह बताना दिलचस्प है कि कई वामपंथी “लिबरल-सेक्युलर” पत्रकारों ने अपने शोक संदेश में तालिबान का उल्लेख किए बिना दानिश सिद्दीकी को श्रद्धांजलि दी थी। राना अय्यूब ने दानिश सिद्दीकी और उनके काम के बारे में बताया कि उन्हें फोटोग्राफी का कितना शौक था। उन्होंने एक तस्वीर भी साझा की, जिसमें वह मृतक पत्रकार के बगल में बैठी नजर आ रही हैं। हालाँकि, उनके शोक संदेश का लहजा और ताना-बाना हैरान करने वाला था।
उससे ऐसा लग रहा था कि फोटो जर्नलिस्ट की मौत प्राकृतिक है और उनकी मौत में इस्लामिक आतंकवादियों की कोई भूमिका नहीं है। इसी तरह की रणनीति न्यूजलॉन्ड्री की मनीषा पांडे, स्तुति मिश्रा, आरफा खानम शेरवानी, योगेंद्र यादव और रवीश कुमार द्वारा अपनाई गई थी। यह मान लेना कोई बड़ी बात नहीं है कि शायद इस्लामवादियों का डर ही उन्हें साफ-साफ बोलने से रोक रहा था।