Thursday, November 21, 2024
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हिंदुओं का ‘कन्यादान’ और आलिया भट्ट का ‘कन्यामान’: खोखला है मान्यवर का विज्ञापन, हिंदू परंपरा को नीचा दिखाने का खेल

सनातन धर्म से जुड़े विज्ञापनों को बनाने से पहले उससे जुड़ी हर परंपरा पर रिसर्च करनी चाहिए। विज्ञापनों में ऐसी समस्याएँ तभी पैदा होती है जब धर्म को लेकर किसी में कम समझ हो और वो शब्दों का अर्थ संदर्भ के अलावा अनुवाद के माध्यम से खोजने का प्रयास करे।

हिंदू परंपराएँ आज के समय में वामपंथियों के निशाने पर सबसे ज्यादा हैं। जैसे हम लोग इंतजार करते हैं कि किसी पर्व से नए काम की शुरुआत करेंगे वैसे ही ये वामपंथी इंतजार करते हैं कि हिंदू त्योहार आते ही ये अपने अभियानों की शुरुआत करेंगे। हमारे और इनके काम में फर्क बस ये होता है कि हमारे लिए शुभारंभ नारियल को तोड़ने के साथ होता है और इनका शुभारंभ ये बताने से होता है कि नारियल तोड़ना कैसे पिछड़ेपन की निशानी है और कैसे ये नासमझी वाला काम है।

ऐसे ही एक उदाहरण अभी हाल में मान्यवर के एड के दौरान भी देखने को मिला। इसमें बॉलीवुड एक्ट्रेस आलिया भट्ट को दिखाते हुए यह बताया गया कि कैसे कन्यादान करना एक पिछड़ेपन को दिखाता है जबकि कन्यामान एक बढ़िया विकल्प है।

कन्यादान होता क्या है?

अब लेखक नित्यानंद मिश्रा ने अपनी यूट्यूब वीडियो में भट्ट के इसी एड में तीन दिक्कतें क्या हैं उन पर बात की है। तमाम भ्रांतियों को तोड़ते हुए नित्यानंद मिश्रा ने धन का अर्थ समझाना शुरू किया जो कि संस्कृति शब्दकोष से आता है। किताब के मुताबिक धन का अर्थ समृद्धि के अलावा वह भी होता है जो कि सबसे प्रिय हो या उसे मूल्यवान माना जाए।

वह कहते हैं, सनातन धर्म में केवल बेटियों को ही नहीं बेटों को भी धन माना गया है। इसे पुत्र धन भी कहा जाता है। उन्होंने संस्कृत श्लोक के जरिए समझाया कि सनातन धर्म में विद्या को भी धन कहा गया। “विद्याधनं सर्व धनं प्रधानम्” अर्थाथ विद्या का धन एक ऐसी मूल्यवान चीज है जो किसी को भी दी जा सकती है। 

एड में जैसे हिंदू परंपरा को पिछड़ा दिखाया गया है और बताने की कोशिश हुई है लड़कियों को हमेशा से शादी के समय दान की तरह दिया जाता रहा। जबकि, मिश्रा के मुताबिक दान की तुलना धन से नहीं होनी चाहिए। सनातन में ‘दान’ की अवधारणा ज्ञान से लेकर जीवन तक व्याप्त है जिसे क्रमशः ‘विद्यादान’ या ‘जीवन दान’ के नाम से जाना जाता है। ‘कन्यादान’ की अवधारणा को उजागर करते हुए, मिश्रा ने ‘पुत्रदान’ की अवधारणा के बारे में भी बताया। उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाने के लिए महाभारत के महाकाव्य के एक श्लोक का भी हवाला दिया।

‘कन्यादान से लेकर कन्यामान तक’

मिश्रा सवाल करते हैं कि आखिर कन्यादान को लड़कियों के अपमान की तरह क्यों लिया जाता है। इसके बाद उन्होंने वो मंत्र पढ़ कर सुनाए जिनका शादी के समय उच्चारण होता है।

मंत्र का अर्थ समझाते हुए उन्होंने कहा मंत्र के अनुसार, दुल्हन के माता-पिता को राजा वरुण देवता के रूप में संदर्भित किया गया है जिसका अर्थ है महासागरों का स्वामी। इसी प्रकार बेटी को सूर्य देवता के रूप में जाना जाता है और दूल्हे को विष्णु देवता या आकाश में रहने वाले के रूप में जाना जाता है। यह क्षितिज से सूर्योदय के समय सूर्य की गति को दर्शाता है (जैसा कि एक समुद्र के किनारे से देखा जाता है) यह दिखाता है कि जैसे समुद्र से आकाश में सूर्यदेव के जाने से नए दिन की शुरुआत होती है वैसे ही आम जीवन में जब सूर्य रूपी कन्या अपने माता पिता के पास से पति के पास जाती है तो एक नए जीवन की शुरुआत होती है।

वह बताते हैं कि कैसे कन्यादान का मतलब होता ही कन्यामान है और इसे अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने अपनी वीडियो में यह भी बताया कि कैसे संस्कृत में देव शब्द का प्रयोग पुरूष के लिए देवता का महिलाओं के लिए और दैव्यातम का नपुंसकलिंग हैं।

कन्यादान पर मौजूद अन्य ग्रंथों के अनुसार, अनुष्ठान के समय किए गए मंत्र, जप और अन्य क्रियाएँ दुल्हन को लक्ष्मी के रूप में दर्शाती हैं। दुल्हन के पिता द्वारा अपनी बेटी को नारायण (दूल्हे) को देने का प्रतीकात्मक कार्य माना जाता है कि वह अपनी बेटी को किसी और के घर की ‘शोभा’ बना रहे हैं।

शोध,अध्ययन और ज्ञान लेकर हो विज्ञापन निर्माण

बता दें कि ये वो दौर है जब ब्रांड्स को अपने AC वाले दफ्तर से बाहर निकलना चाहिए और समझना चाहिए कि एक फैंसी लैपटॉप और बीयर की बोतल हाथ में पकड़ना काफी नहीं है अच्छा कैंपेन चलाने के लिए। सनातन धर्म से जुड़े विज्ञापनों को बनाने से पहले उससे जुड़ी हर परंपरा पर रिसर्च करनी चाहिए। विज्ञापनों में ऐसी समस्याएँ तभी पैदा होती है जब धर्म को लेकर किसी में कम समझ हो और वो शब्दों का अर्थ संदर्भ के अलावा अनुवाद के माध्यम से खोजने का प्रयास करे।

उदाहरण साक्षात यही है कि विज्ञापन लिखने वाले ने बिना ‘धन’ का अर्थ जाने उसे संपदा से जोड़ दिया। यही कारण है कि इस विज्ञापन की निंदा हो रही है। अगर कन्यादान रस्म को लेकर थोड़ी भी जानकारी लेने की कोशिश करते तो पता चलता है कि ये अनुष्ठान न ही अपमानजनक है और न ही पिछड़ा। रही बात मार्केटिंग की तो ये जाहिर सी बात है कि उनके खरीददारों को भी नहीं अच्छा लगेगा कि जिस कार्यक्रम के लिए वो उनके परिधान खरीद रहे हैं वो दरअसल पिछड़ा है।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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