महाभारत के संवाद-लेखन में राही मासूम रजा के साथ पंडित नरेंद्र शर्मा भी बराबर के भागीदार हैं। वामपंथियों ने जानबूझ कर 'गंगा जमुनी तहजीब' के लिए उन्हें किनारे कर दिया।
खुद तमिल होने के बावजूद स्वामी हिंदी-संस्कृत को भारत की आधिकारिक और राष्ट्रीय भाषाएँ बनाए जाने की वकालत करते रहे हैं। उनके मुताबिक भारत की राष्ट्रीय भाषा संस्कृत होनी चाहिए, जिसे शनैः-शनैः बढ़ावा दे कर आधिकारिक भाषा बनने की तरफ़ ले जाना चाहिए।
भाजपा को आम तमिल ही नहीं, राज्य की प्रभावशाली हस्तियों के भी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इनमें फिल्म अभिनेताओं रजनीकांत और कमल हासन के नाम भी शामिल हैं।
गृह मंत्री रहते चिदंबरम ने हिंदी के पूरे देश की भाषा बनने की उम्मीद जताई थी। सरकारी दफ्तरों में संवाद के लिए हिंदी के इस्तेमाल पर जोर दिया था। लेकिन, अब जिस तरह उनकी पार्टी और गठबंधन के साथी अमित शाह के बयान पर जहर उगल रहे हैं उससे जाहिर है यह अंध विरोध के अलावा कुछ भी नहीं।
आप सोचिए कि हिन्दी जानने से आपकी संस्कृति कैसे प्रभावित हो रही है? अगर यह कहा जाए कि तुम तेलुगु छोड़ दो, और हिन्दी पढ़ो; तमिल में लिखे सारे निर्देश हटा दिए जाएँगे; कन्नड़ में अब नाटक या फिल्म नहीं बनेंगे; मलयालम की किताबों को जला दो... तब उसे हम कहेंगे कि 'हिन्दी थोपी जा रही है।'
मात्रा बड़ी महत्वपूर्ण चीज़ होती है। सिर्फ खाने में ही नहीं, भाषा में भी इसका अपना महत्व है। इसके होने या न होने से कई बार शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। हिन्दी भाषा में मात्रा उच्चारण के हिसाब से लगती है- जो आप बोलते हैं, पक्का-पक्का वही लिखा जाता है।
हिंदी-ज्ञान अपने प्रदेश के बाहर निकल कर रोजगार की आकाँक्षा रखने वाले वर्ग की आवश्यकता है। हिंदी को 'एक प्रकार की' राष्ट्रीय भाषा का दर्जा मिल ही चुका है।
हिंदीभाषियों ने दक्षिण भारतीय भाषाओं की फ़िल्मों को एक ऐसा मार्केट दिया है, जिसकी व्यापकता देख कर हिंदी का विरोध करने वाले बेहोश हो जाएँ। बंधन प्यार से बनता है। जब वो टूटता है, तो विदेशी चीजें हमें अपना गुलाम बनाती हैं। इसे तोड़ने वालों, सावधान!