Saturday, April 20, 2024
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हिंदीभाषियों के विशाल हृदय का सबूत है दक्षिण की फिल्मों का व्यापक बाज़ार

कन्नड़ फ़िल्मों में हिंदी का काफ़ी ज्यादा प्रयोग होता है और कन्नड़ फ़िल्म इंडस्ट्री के बारे में एक बात कही जाती है कि वहाँ के गानों में जब तक हिंदी भाषा के शब्द न डाले जाएँ, तब तक वे पूर्ण नहीं होते। ऐसे में, जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री कथित 'Hindi Imposition' पर बोलते हैं, तो यह अच्छा नहीं लगता।

नई शिक्षा नीति पर जो ड्राफ्ट बनी है, उसे फाइनल नीति समझ कर हल्ला मचा रहे दक्षिण के नेता जनता की भावनाओं को समझने में अक्षम रहे हैं। ऐसा नहीं है कि वे उत्तर भारतीय जनता के बात-विचार से दूर हैं, बल्कि वे ख़ुद के प्रदेश की जनता से भी बुरी तरह अनभिज्ञ हैं। यहाँ हम ‘नेशनल एजुकेशन पॉलिसी ड्राफ्ट’ से इतर एक व्यापक स्तर पर चर्चा करेंगे क्योंकि इसे लेकर काफ़ी बहस हो चुकी है और सरकार को बदलाव करने को मजबूर होना पड़ा है। वैसे, यह ड्राफ्ट लाया ही गया था जनता की राय के आधार पर बदलाव करने के लिए, सरकार ने साफ़ कर दिया है कि यह सिर्फ़ एक रिपोर्ट है, फाइनल नीति नहीं है। हिंदी से किसे दिक्कत है? दक्षिण भारतियों को? इसका जवाब है- नहीं, बिलकुल नहीं।

दक्षिण भारतीय नेता हिंदी से दिक्कत होने का दिखावा करते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि एक बार दक्षिण भारत के लोग अच्छी तरह हिंदी सीख जाएँ तो इन नेताओं का काम काफी कठिन हो जाएगा। इसके लिए हमें 15 वर्ष पीछे जाना पड़ेगा। द्रमुक और अन्नाद्रमुक कई वर्षों से लगातार हिंदी का विरोध करते रहे हैं और करुणानिधि की तो पूरी राजनीति ही हिंदी का विरोध कर के चमकी थी (अन्य आन्दोलनों के अलावा)। आज करुणानिधि के बेटे और डीएमके प्रमुख स्टालिन अपने पिता की ही नीति पर चल रहे हैं, जो सफल रही थी। आज से लगभग 15 वर्ष पहले जब अभिनेता विजयकांत ने राजनीति में एंट्री ली थी, तब उन्होंने हिंदी भाषा पढ़ाए जाने का समर्थन किया था।

तब युवाओं के बीच खासे लोकप्रिय रहे विजयकांत तमिलनाडु में नेता प्रतिपक्ष बने। हो सकता है कि अब एक फुल टाइम राजनीतिज्ञ के रूप में उनकी राय बदल गई हो लेकिन तब उन्होंने कहा था कि तमिलनाडु के स्कूलों में तमिल को पहली प्राथमिकता देते हुए हिंदी और अंग्रेजी पढ़ाई जानी चाहिए। विजयकांत का मानना था कि अंग्रेजी से तमिलनाडु के छात्रों के लिए एक वैश्विक दरवाजा खुल जाएगा, वहीं हिंदी भाषा सीखने के बाद उत्तर भारत में या तमिलनाडु से बाहर अन्य कई राज्यों में नौकरी करने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी। विजयकांत एक सफल अभिनेता रहे हैं, अब उनका राजनीतिक करियर भले ही बुरे दौर से गुज़र रहा हो लेकिन तमिलनाडु जैसे बड़े राज्य में नेता प्रतिपक्ष का राजनीति से परे बयान का अध्ययन ज़रूरी है।

अब सवाल यह उठता है कि जिस राज्य में हिंदी को गालियाँ देने पर वोट मिलते हों, वहाँ कोई उभरता हुआ नेता हिंदी का समर्थन क्यों करेगा? इसका जवाब है- बदलते जमाने के साथ बदलती इंडस्ट्री और बदलती पीढ़ियों के साथ बदलती सोच। फ़िल्म इंडस्ट्री में लम्बे समय तक सक्रिय रहे विजयकांत को इंडस्ट्री की समझ थी और बदलते दौर में उन्हें पता चल गया था कि अगर तमिल फ़िल्मों को राज्य की दहलीज पार करा कर देश-दुनिया में लोकप्रिय बनाना है तो हिंदी में डब्ड फ़िल्मों के बाजार में घुस कर छाना पड़ेगा, अन्यथा तमिलनाडु के कुछ जिलों में छोड़ कर टॉलीवुड का कहीं भी कोई प्रभाव नहीं रह जाएगा।

समझदार विजयकांत को सिनेमा के बदलते दौर का अनुभव था और इसीलिए उन्होंने ऐसा बयान दिया। और देखिए, हुआ भी ऐसा ही। न सिर्फ़ तमिल बल्कि तेलुगु सिनेमा इंडस्ट्री भी इस मामले में काफ़ी आगे निकल गई। आज दक्षिण भारतीय फ़िल्मों का हिंदी डब्ड मार्केट इतना बड़ा है, जिसकी आप कल्पना तक नहीं कर सकते। इसके लिए सबसे पहले बात यूट्यूब से शुरू करते हैं, फिर हिंदी टीवी चैनलों से होकर बॉक्स ऑफिस तक पहुँचेंगे। इसके लिए हम कुछ स्टेप बाय स्टेप प्रक्रिया बता रहे हैं, जिसे आप आजमा कर देख सकते हैं। इसे चरणबद्ध तरीके से कुछ यूँ करें:

  • सबसे पहले तो यूट्यूब पर जाएँ।
  • अब सर्च बॉक्स में लिखें- ‘Movie’ और इंटर दबाएँ।
  • अब फ़िल्टर वाले विकल्प में जाकर ‘Type’ में ‘Video’ चुनें, ‘Duration’ में ‘Long’ चुनें और ‘Sort By’ में ‘View Count’ चुनें।
  • ये सब करने का अर्थ है कि जिस भी वीडियो में ‘Movie’ शब्द का प्रयोग होगा और इसमें से सबसे ज्यादा बार जिसे देखा गया होगा, वो सबसे ऊपर दिखेगी। और, इसी तरह दर्शकों की संख्या के हिसाब से दर्शकों के घटते क्रम में ऐसी फ़िल्में दिखने लगेंगी।

अब आपने क्या देखा? सबसे पहले, नंबर एक पर जो फ़िल्म आती है, उसका नाम है- “सराईनोडू”। आश्चर्य की बात है कि जहाँ विश्व भर में इतनी सारी फ़िल्म इंडस्ट्री है और इनमें हजारों फ़िल्में हर साल बनती हैं, वहाँ एक दक्षिण भारतीय भाषा का हिंदी डब्ड फ़िल्म नंबर एक पर कब्ज़ा जमाए बैठे हैं। आखिर यह संभव कैसे हुआ? किसनें किया? “सराईनोडू” मशहूर तेलुगु स्टार अल्लू अर्जुन की फ़िल्म है और इसे यूट्यूब पर 17 करोड़ से भी अधिक बार देखा गया है। हिंदी भाषा में किसी फ़िल्म को 17 करोड़ बार देखने वाले कौन लोग हैं? इसमें कोई दो राय नहीं कि ये उत्तर भारतीय अथवा हिन्दीभाषी ही हैं, जिन्होंने इसे इतनी बार देखा।

अगर ऐसा भी मान लें कि इस हिंदी डब्ड फ़िल्म को एकाध लाख तेलुगु बोलने वाले लोगों ने देखा, तब भी इसके दर्शकों की संख्या कई करोड़ में होगी। अगर यह मान कर चलें कि एक व्यक्ति ने एक बार इस फ़िल्म को देखा, तो उत्तर प्रदेश की जनसंख्या इससे बहुत ज्यादा नहीं है। यूट्यूब पर इसी आधार पर देखें तो दूसरे नम्बर पर भी एक तेलुगु फ़िल्म का हिंदी डब्ड वर्जन ही आता है और तीसरे नम्बर पर फिर अल्लू अर्जुन की ही ‘डीजे’ नामक फ़िल्म आती है। यहाँ एक बात ध्यान देने लायक है। अल्लू अर्जुन की इन फ़िल्मों का नामकरण टिपिकल हिंदी डब्ड फ़िल्मों की तरह करने की बजाय उसके ओरिजिनल नामों से ही अपलोड किया गया (जैसे- जीने नहीं दूँगा, मेरा इन्साफ, काट डालूँगा इत्यादि)।

इसका अर्थ यह है कि यह सब कुछ एक्सीडेंटल नहीं है बल्कि सच में दक्षिण भारतीय फ़िल्मों को उत्तर भारतीयों का प्यार मिलता है। यहाँ के लोग बाकायदा वीडियो स्ट्रीमिंग वेबसाइट पर इन फ़िल्मों को सर्च करते हैं, इनका इन्तजार करते हैं और फिर इन्हें देखते हैं। ये बहुत बड़ी बात है। ये उन दक्षिण भारतीय टुटपुँजिया नेताओं की पोल खोलता है, जो हिंदी का विरोध करते हैं और कहते हैं कि हिन्दीभाषी जनता तमिल और तेलुगु को पसंद नहीं करती। अगर ऐसा होता तो शायद सुदूर झारखण्ड के किसी कॉलेज में बैठा चौकीदार अपने फोन में दक्षिण भारतीय फ़िल्म नहीं देख रहा होता। अगर ऐसा होता तो कई दक्षिण भारतीय फ़िल्मों के हिंदी डब्ड वर्जनों को करोड़ों व्यू नहीं मिलते।

यूपी और बिहार हो या झारखण्ड और उत्तराखंड, यहाँ कहीं भी दक्षिण भारतीय भाषाओं के प्रति घृणा का भाव देखने को नहीं मिलता। “चेन्नई एक्सप्रेस” जैसी फ़िल्म में तमिल भाषा का बड़े स्तर पर प्रयोग किया गया और इसे दर्शकों का बहुत प्यार मिला, सबका मनोरंजन हुआ। लेकिन, दक्षिण भारतीय नेतागण इन सभी चीजों को कभी भी हाईलाईट नहीं करना चाहेंगे, क्योंकि इससे सबको यह पता चल जाएगा कि हिन्दीभाषी जनता तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम जैसी भाषाओं से निकल कर आने वाले प्रोडक्ट्स और सर्विस को पसंद करती है, उनसे घृणा नहीं करती। इसका सबूत है हिंदी डब्ड फ़िल्मों को मिले करोड़ों व्यूज।

सिर्फ़ तेलुगु और तमिल ही नहीं, बल्कि मलयालम फ़िल्मों के हिंदी डब्ड वर्जन्स को भी यूट्यूब पर कई मिलियन व्यू मिलते हैं। अगर आप सेट मैक्स या स्टार गोल्ड जैसे बड़े हिंदी सिनेमा चैनल के कार्यकर्मों को देखें तो पता चलता है कि इन पर हिंदी फ़िल्मों से ज्यादा दक्षिण भारतीय फ़िल्में ही चलती रहती हैं। इसे लेकर कभी विरोध प्रदर्शन हुआ क्या? किसी ने कुछ भी कहा क्या? नहीं। ऐसा इसीलिए, क्योंकि जनता इन फ़िल्मों से, इनके अभिनेताओं से प्यार करती है। चैनलों को टीआरपी मिलती है और वे इन फ़िल्मों को बेधड़क चलाते हैं। आज तक किसी ने इसमें राजनीति नहीं घुसाई। लेकिन, अब आप एक बार इसका उल्टा सोच कर देखिए।

मान लीजिए, तमिल भाषा के सभी चैनलों पर दिन भर अमिताभ बच्चन और सलमान खान की फ़िल्में चल रही हों, तब क्या होगा? इन चैनलों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन शुरू हो जाएँगे, द्रविड़ नेतागण इन्हें ‘Slave Of Hindi’ ठहरा देंगे (जैसा वे हर उस व्यक्ति या संस्थान के साथ करते हैं, जो हिंदी भाषा की जरा सी भी पैरवी करे)। जब उत्तर भारतीय दर्शक हिंदी डब्ड फ़िल्में देख सकता है, तो वह सबटाइटल के साथ अच्छी तमिल और तेलुगु फ़िल्में भी देखता है। दक्षिण भारत के नेता और कथित एक्टिविस्ट्स कभी भी उत्तर भारतीय फ़िल्मों को वहाँ उतना प्यार मिलने नहीं देंगे, जितना वहाँ की फ़िल्मों को देश के अन्य हिंदीभाषी भागों में मिलता है।

इसका उदाहरण समझने के लिए “बाहुबली-द कन्क्लूजन” फ़िल्म का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन पर एक नज़र डालिए। क्या आपको पता है कि हिंदी भाषा में बॉक्स ऑफिस पर सबसे ज्यादा कारोबार करने वाली फ़िल्म दक्षिण भारत में बनी थी? क्या आपको पता है कि सबसे ज्यादा कमाई करने वाली हिंदी फ़िल्म दंगल का भारत में बॉक्स ऑफिस कलेक्शन बाहुबली के हिंदी वर्जन के कलेक्शन से कम है। अर्थात यह, कि तेलुगु फ़िल्म इंडस्ट्री की एक फ़िल्म आज हिंदी भाषा की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म है। इतना प्यार कहाँ से आता है, कौन से लोग देते हैं और क्यों देते हैं? अब हैदराबाद के लोगों ने रातो-रात पटना पहुँच कर फ़िल्म देख कर तो इसका बॉक्स ऑफिस कलेक्शन बढ़ाया नहीं होगा न?

ऐसा इसीलिए, क्योंकि उत्तर भारत में दक्षिण भारतीयों के लिए वह हीन भावना नहीं है, जो दक्षिण भारत के नेताओं व एक ख़ास वर्ग में हिन्दीभाषी जनता के लिए है। ऐसा इसीलिए, क्योंकि बिहार का एक व्यक्ति तमिल या तेलुगु फ़िल्म देखते वक़्त ये नहीं सोचता कि इसे कहाँ बनाया गया है और ये ओरिजिनल किस भाषा में थी, वो बस इसीलिए देखता है क्योंकि उसे यह अच्छी लगती है, हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री के फ़िल्मों की तरह। यहाँ तोड़-फोड़ वाली राजनीति घुसाकर उस प्यार के बंधन को तोड़ने का प्रयास नहीं किया जाता। यही बात दक्षिण भारत के लोगों को समझना पड़ेगा। 17 करोड़ के बदले अगर 1 करोड़ लोग भी हिंदी के प्रति प्यार दिखाते हैं, तो इससे देश का ही भला होगा, एकता बढ़ेगी।

तमिलनाडु और आंध्र-तेलंगाना में फ़िल्म इंडस्ट्री और राजनीति एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। ऐसे में, कई ऐसे नेता हैं, जो फ़िल्म प्रोड्यूसर भी हैं। ख़ुद कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने कई फ़िल्मों का निर्माण किया है। यह ज़ाहिर सी बात है कि कन्नड़ फ़िल्मों में हिंदी का काफ़ी ज्यादा प्रयोग होता है और कन्नड़ फ़िल्म इंडस्ट्री के बारे में एक बात कही जाती है कि वहाँ के गानों में जब तक हिंदी भाषा के शब्द न डाले जाएँ, तब तक वे पूर्ण नहीं होते।ऐसे में, जब कर्नाटक का मुख्यमंत्री कथित ‘Hindi Imposition’ पर बोलता है, तो यह अच्छा नहीं लगता। कमल हासन हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में आकर ‘एक दूजे के लिए’ और ‘सागर’ जैस फ़िल्में करते हैं और सारे अवार्ड्स ले जाते हैं। कभी विरोध हुआ क्या? इसीलिए नहीं हुआ, क्योंकि होना ही नहीं चाहिए और ऐसा यहाँ कोई सोचता ही नहीं।

क्या इसका उल्टा संभव है? अगर किसी हिंदी फ़िल्मों के एक्टर को तमिल फ़िल्मों के सारे अवार्ड्स मिलने लगे तो वहाँ कैसा माहौल होगा? वहाँ के नेता कहने लगेंगे कि ये तमिल फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए अपमानजनक है क्योंकि ‘गैरों’ को अवार्ड्स दी जा रहे हैं। जब धनुष ने राँझना फ़िल्म की और उन्हें अवार्ड्स मिले, तब उन्हें इतना प्यार मिला कि वे वापस हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में फ़िल्म करने आए। एक बात जानने लायक है कि यह प्यार इंडस्ट्री के वीआईपी लोगों से नहीं बल्कि आम जनता से मिला था। जब रजनीकांत मुंबई आकर “अँधा कानून” फ़िल्म करते हैं तो उन्हें इस फ़िल्म में उनके को-स्टार अमिताभ जैसा ही प्यार मिलता है, क्यों? क्योंकि यहाँ इन सब बकवास मुद्दों को लेकर उत्पात नहीं मचाया जाता।

इस पूरे लेख का सार यह बताना है कि एक बार अगर जनता किसी चीज से कनेक्ट करने लगे तो उसे उखाड़ फेंकना मुश्किल होता है। दक्षिण भारतीय राज्यों में हिंदी पढ़ाने का उद्देश्य भी यही था कि अपनी मातृभाषा के साथ-साथ देश में सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा का भी बच्चों को ज्ञान दिया जाए, ताकि इस विशाल देश के अलग-अलग हिस्सों में रह रही जनता के बीच कनेक्शन स्थापित हों, वे एक-दूसरे से और ज्यादा जुड़ें। इससे बिहार और यूपी के बच्चे तेलुगु सीखेंगे और तमिलनाडु के बच्चे हिंदी सीखेंगे और वो एक-दूसरे को और अधिक अच्छी तरह से समझेंगे। इसमें उनका अपना अभी फायदा है क्योंकि वे नौकरी और पढाई के लिए अगर अपने राज्य से बाहर निकलते हैं तो उन्हें भाषा की समझ में दिक्कतें नहीं आएँगी।

अगर फ़िल्में देश के अलग-अलग हिस्सों को जोड़ने के काम आएँ, तो उसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए। केवल हिंदी, तमिल, तेलुगु और मलयालम ही क्यों, उड़िया, पंजाबी, असमी और मराठी फ़िल्मों को भी हूबहू देश के अलग-अलग हिस्सों में पहुँचाया जाना चाहिए, ताकि देश के एक हिस्से के लोग दूसरे हिस्से की फ़िल्म इंडस्ट्री से परिचित हो सकें, एक-दूसरे के क्षेत्रों की अच्छी फ़िल्मों से रूबरू हो सकें। नहीं तो कल का भविष्य भयावह हो सकता है। जैसे आज सभी राज्यों के सिलेबस में अंग्रेजी पाँव जमा कर बैठी है, कल को भारतीय फ़िल्मों को स्क्रीन न मिलें और हॉलीवुड फ़िल्में ही चारों तरफ चलती रहें, तब शायद एक-दूसरे की भाषा का विरोध करने वाले नेताओं को अच्छा लगे।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.

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