हिंदी को लेकर खड़े हुए विवाद में अब देश के सबसे मुखर पूर्व जजों में से एक जस्टिस मार्कण्डेय काटजू भी कूद आए हैं। प्रोपेगैंडा पोर्टल The Wire पर प्रकाशित लेख ‘India Doesn’t Need Hindi to Unify the Masses’ के जवाब में उन्होंने ‘Debate: Hindi Is Already the National Language of India’ नामक लेख लिखा है, जिसे (आश्चर्यजनक रूप से) The Wire में प्रकशित किया गया है। उसमें जस्टिस काटजू ने यह तर्क प्रस्तुत किया है कि हालाँकि वह हिंदी को किसी अन्य भाषा से ‘उच्च’ नहीं मानते, लेकिन आज़ादी के बाद से देश की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के चलते हिंदी का ज्ञान एक तरह से अपने प्रदेश के बाहर निकल कर रोजगार, प्रवास आदि की आकाँक्षा रखने वाले अधिकांश आकाँक्षी वर्ग की अनिवार्य आवश्यकता है। अतः हिंदी को ‘एक प्रकार की’ राष्ट्रीय भाषा का दर्जा मिल ही चुका है।
लोकतांत्रिक आज़ादी की हिमायत, अंग्रेजी का विरोध नहीं
लेख की शुरुआत में ही जस्टिस काटजू यह साफ कर देते हैं कि लोकतान्त्रिक प्रणाली में आस्था रखते हुए वह प्रचार-प्रसार में विश्वास करते हैं, ‘थोपने’ (Imposition) में नहीं, जिसका आरोप हिंदी-विरोधी अक्सर हिंदी-भाषियों पर लगाते हैं। वह 1960 में हिंदी को जबरन लाने के लिए तत्कालीन हिंदी-समर्थक नेताओं की आलोचना भी करते हैं कि हिंदी फिल्मों और हिंदी प्रचार सभा के प्रयासों से हो रहे हिंदी के सतत प्रसार पर उन्होंने पलीता लगा दिया और तमिल लोगों ने हिंदी सीखना बंद कर दिया।
साथ ही वह अंग्रेजी सीखने का विरोध करने की बजाय उस पर ज़ोर देते हैं। वह यह स्वीकार करते हैं कि आज ज्ञान (विशेषतः विज्ञान) के अर्जन के लिए अंग्रेजी सबसे उपयुक्त भाषा है। वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर अंग्रेजी से ही बनाए जा सकते हैं। इसके अलावा वह यह भी बताते हैं कि वह ‘आसान’ हिंदी के प्रचार-प्रसार के पक्ष में हैं, न कि ‘क्लिष्ट’, तत्सम हिंदी के।
दक्षिण में फ़ैल रही ही है हिंदी, तमिल से 15 गुना ज़्यादा बोली जाती है
काटजू इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाते हैं कि ‘सामान्य’, सरल हिंदी न केवल कई उत्तर-भाषी राज्यों की भाषा है बल्कि कई गैर-हिंदी-भाषी प्रदेशों में भी बड़ी संख्या में लोगों द्वारा बोली जाती है। यहाँ तक कि पाकिस्तानी भी ठीक-ठाक हिंदी बोल कर समझ लेते हैं।
जज होने के नाते काटजू विभिन्न प्रदेशों के उच्च न्यायालयों में भी उन प्रदेशों की स्थानीय भाषाओं के प्रयोग का समर्थन करते हैं। लेकिन साथ ही वह हिंदी की तमिल जैसी शास्त्रीय लेकिन सीमित पहुँच वाली भाषाओं के मुकाबले कहीं अधिक पहुँच की भी बात करते हैं; बताते हैं कि तमिल के मुकाबले हिंदी 15 गुना अधिक बोली-समझी जाती है। वह अपना खुद का उदाहरण देते हैं कि वह अपनी मूल मातृभाषा कश्मीरी पूर्वजों के कश्मीर से 200 साल पहले बाहर चले जाने के चलते नहीं जानते, लेकिन उन्हें हिंदी जानने के चलते कभी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा।
अंग्रेजी केवल ‘एलीट’ की सूत्र-भाषा, नेताओं की राजनीति में अवसर न गँवाएँ
काटजू आगे यह बात भी रखते हैं कि अंग्रेजी एक ‘सूत्र-भाषा’ (लिंक-लैंग्वेज) के तौर पर उत्तर भारत में आने वाले तमिल-भाषी को केवल ऊपरी 10% यानि एलीट वर्ग से ही जोड़ेगी। उन्हें अगर उत्तर-भारतीय आम आदमी से जुड़ना है तो उन्हें हिंदी सीखनी ही पड़ेगी। वह अपने खुद के अनुभव बताते हैं कि कैसे उनके सामने एक बार गुलबर्गा में एक कन्नड़ ड्राइवर (निचले आर्थिक तबके का व्यक्ति) से बात करने के लिए तेलुगु-भाषी व्यक्ति को भी हिंदी में बात करनी पड़ी थी क्योंकि गरीब होने के कारण वह कन्नड़ व्यक्ति अंग्रेजी नहीं जनता था और हिंदी ही उन दोनों के बीच इकलौती समान भाषा थी।
दूसरा उदाहरण वह बताते हैं चेन्नै के ही दुकानदार का, जो अपने ग्राहक से अंग्रेजी या तमिल की अपेक्षा हिंदी में बात कर रहा था। जब काटजू ने इसका कारण पूछा तो उसने बोला कि नेताओं का एजेंडा चलता रहेगा, लेकिन उसे अपना व्यवसाय देखना है। अंत में काटजू अपील करते हैं कि चूँकि हिंदी पहले ही (देश के विभिन्न भाषा वर्गों के आम आदमी के बीच की) लिंक-भाषा है, अतः जिन्हें यह भाषा नहीं भी आती, उन्हें इस सीख कर देश की एकता में भागीदार बनना चाहिए।