कोटा में 962 बच्चों की मौत कॉन्ग्रेस सरकार की नाकामी दिखाती है, इसीलिए वहाँ मीडिया सवाल नहीं पूछ रहा। एक बच्ची के स्वास्थ्य के साथ खेल रहे प्रदर्शनकारी मीडिया के लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। इस देश के मीडिया की दुर्गति यही है कि जब तक ‘भाजपा’ वाला धनिया का पत्ता न छिड़का गया हो, इन्हें न तो दलित की मौत पर कुछ कहना है, न बड़ी संख्या में नवजात शिशुओं की मृत्यु पर इन्हें वो ज़ायक़ा मिल पाता है।
अस्पताल में मासूमों की मौत के बीच राजस्थान की कॉन्ग्रेस सरकार का असंवेदनशील चेहरा फिर आया सामने। कहा- PMO के इशारे पर भाजपा कर रही सियासत। बच्चों की मौत से दबाना चाहती है CAA का विरोध।
भाजपा ने कहा कि उसके विधायकों ने 50 लाख रुपए की सहायता राशि दी है लेकिन कॉन्ग्रेस की तरफ़ से कोई देखने तक नहीं आया है। भाजपा सांसदों ने आरोप लगाया कि जब बच्चों की मौत हो रही थी, तब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत झारखण्ड में जश्न मनाने गए हुए थे।
'कब्रगाह' साबित हो रहा कोटा का अस्पताल, 14 और मौत के साथ एक महीने में 91 बच्चों की गई जान। NCPCR की टीम ने हॉस्पिटल में देखा कि ख़िड़कियों में शीशे नहीं, दरवाजे टूटे हुए हैं। अस्पताल के कैंपस में ही सुअर घूमते हैं।
एक साल में 940 बच्चों की मौत। मुख्यमंत्री गहलोत कहते हैं कि ये कोई नई बात नहीं। वो हेमंत सोरेन के शपथ ग्रहण समारोह में व्यस्त हैं। मीडिया चुप है क्योंकि ये भाजपा शासित राज्य में नहीं हुआ है। जाँच में पता चला है कि अस्पताल में व्यवस्थाएँ लचर हैं। अगर बच्चे मरते रहें तो सरकार किस लिए?
"नैशनल एनआईसीयू रेकॉर्ड के अनुसार, शिशुओं की 20 प्रतिशत मौतें स्वीकार्य हैं, जबकि कोटा में शिशु मृत्यु दर 10 से 15 प्रतिशत है जो खतरनाक नहीं है क्योंकि अधिकतर बच्चों को गंभीर हालत में अस्पताल लाया गया था।"
67 वर्षीय पाक पीएम के इस बयान पर लोगों ने उनका मज़ाक बनाया। पत्रकार नायला इनायत ने पूछा कि इतनी उम्र और अनुभव होने के बावजूद इमरान ख़ान ने ब्लड प्लेटलेट्स के बारे में नहीं सुना है। यह अजीब है।
लोग बीमारियों से न मरें इसके लिए उन्होंने इस आदत को तबतक जारी रखा जबतक कि 1919 में इससे फैली महामारी का अंत नहीं हो गया। 1923 के भयानक भूकंप ने कई लोगों की जिंदगियों को उजाड़ कर रख दिया।
"अकेले केजरीवाल और उनके परिवार ने दिल्ली के बाहर इलाज करवाने में अब तक 13 लाख रूपए खर्च कर डाले। यही हाल मनीष सिसोदिया का भी है। सतेन्द्र जैन के परिवार को दिल्ली सरकार के खर्चे पर दिल्ली से बाहर भेजा जाता है। पिछले पाँच साल में दिल्ली के मंत्रियों और उनके परिवारों पर तकरीबन 50 लाख रूपए की मोटी रकम खर्च की गई।"
अस्पतालों, डॉक्टरों, उपकरणों और अन्य संसाधनों की घोर कमी का संकट दोतरफा है। फिर क्यों 75 फीसदी डॉक्टर जुबानी और 12 फीसदी शारीरिक हिंसा के शिकार? सरकारों की नाकामी का खीझ उन पर क्यों? इस गुस्से को सिस्टम से सवाल करने के लिए बचाकर रखिए।