अगर मारे गए किसी "समुदाय विशेष" के परिवार को मिले सरकारी मुआवजे को देखें और उसकी तुलना भीड़ द्वारा मार दिए गए डॉ नारंग, रिक्शाचालक रविन्द्र जैसी दिल्ली में हुई घटनाओं से करें तो ये अंतर खुलकर सामने आ जाता है।
आपको सेना के जवानों से सबूत माँगते वक्त लज्जा नहीं आई, आपको एयर स्ट्राइक पर यह कहते शर्म नहीं आई कि वहाँ हमारी वायु सेना ने पेड़ के पत्ते और टहनियाँ तोड़ीं, आपको बटला हाउस एनकाउंटर वाले अफसर पर कीचड़ उछालते हुए हया नहीं आई, लेकिन किसी पीड़िता के निजी अनुभव सुनकर आपको मिर्ची लगी कि ये जो बोल रही है, वो तो पूरी पुलिस की वर्दी पर सवाल कर रही है।
9 वर्षों तक जेल के सलाखों के पीछे रह चुकीं साध्वी प्रज्ञा सिंह ने जब अपनी आपबीती सुनाई तो अच्छे-अच्छों के रोंगटे खड़े हो गए। जब उन्होंने मीडिया के सामने आकर बताया कि उन्हें अपना 'अपराध' मानने के लिए किस तरह से टॉर्चर किया गया, तो सुननेवाले भी काँप उठे।