चुनाव आते ही सरकार को अस्थिर करने वाले लोग सक्रिय हो जाते हैं। यह अस्थिरता कई वजहों से फैलाने की कोशिश की जाती है। अपनी ताकत दिखाकर राजनीतिक पर दबाव बनाने की कोशिश भी इनमें एक शामिल है। इस बार भी विधानसभा चुनाव से बस कुछ दिन पहले ही किसान आंदोलन के नाम पर यह प्रक्रिया शुरू कर दी गई। साल 2021 में भी ऐसा ही आंदोलन शुरू किया गया। तब उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले थे। इन आंदोलनों के कारण दिल्ली-एनसीआर के लाखों लोगों को समस्याएँ झेलनी पड़ी थी और लोगों ने सुप्रीम कोर्ट का रूख किया था।
इस बार भी उन समस्याओं को याद करते हुए एक वकील ने सुप्रीम कोर्ट का रूख किया है। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष आदिश अग्रवाल ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को पत्र लिखा है। इस पत्र में अग्रवाल ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को इस आंदोलन का स्वत: संज्ञान लेना चाहिए, क्योंकि इससे आम लोगों को भारी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। उन्होंने कहा कि अगर वकील इस आंदोलन की वजह से पैदा हुए ट्रैफिक समस्या के कारण समय पर कोर्ट नहीं पहुँच पाते हैं तो कोई फैसला नहीं सुनाया जाए।
सुप्रीम कोर्ट के एक वकील जब जाम में फँस गए तो उन्हें चलती कार से ही ऑनलाइन बहस करनी पड़ी। बहस के दौरान जस्टिस ओका ने कहा कि उन्हें वकीलों के वर्चुअली पेश होने से कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन इस तरह चलती कार में नहीं। इस पर एडवोकेट ने कहा कि वो किसान आंदोलन के कारण जाम में फँस गए हैं। इस पर कोर्ट ने कहा कि ‘फिर तो इस बात के लिए हम आपको माफ कर देंगे’।
इसके बाद सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि अगर वकीलों को आने-जाने में समस्या होती है तो उन्हें बताई जाए और वे मामले को देखेंगे। बार एसोसिएशन ने कथित किसानों के आंदोलन पर स्वत: संज्ञान लेने का भी आग्रह किया। हालाँकि, स्वत: संज्ञान वाले मामले पर सीजेआई ने क्या कहा, इसके बारे में कोई बात सामने नहीं आई है, लेकिन किसानों के पिछले आंदोलन और साल 2019 में शुरू हुए शाहीन बाग प्रदर्शन पर गौर करें तो ऐसा नहीं लगता कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले संज्ञान लेगा।
दरअसल, नागरिकता संशोधन बिल (CAA) और नागरिक पंजीकरण रजिस्टर (NRC) के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग में लंबा प्रदर्शन किया गया था। उस समय भी इलाके को जाम कर दिया गया था, जिसके कारण महीनों तक लोगों की समस्याओं का सामना करना पड़ा था। तब फरवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि फिलहाल इस मामले में वह हस्तक्षेप नहीं करेगा। हालाँकि, कोर्ट ने दोहराया था कि सार्वजनिक जगहों पर प्रदर्शन करना वाजिब नहीं है और जगह खाली कराने के लिए अधिकारियों को आगे आने के लिए कहा था।
इसी मामले पर अक्टूबर 2020 में जब सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की तो कहा था कि सार्वजनिक स्थानों पर अनिश्चितकाल के लिए कब्जा नहीं किया जा सकता है। अदालत ने कहा था कि धरना-प्रदर्शन का अधिकार अपनी जगह है, लेकिन अंग्रेजों के राज वाली हरकत अभी करना सही नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सार्वजनिक जगहों पर प्रदर्शन लोगों के अधिकारों का हनन है। कानून में इसकी इजाजत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान विरोध करने का अधिकार देता है, लेकिन इसे समान कर्तव्यों के साथ जोड़ा जाना चाहिए।
इस तरह की गोलमोल टिप्पणी साल 2021 के किसान आंदोलनों के दौरान भी सुप्रीम कोर्ट ने दिया था। उस दौरान केंद्र की मोदी सरकार ने किसानों की भलाई के लिए तीन कृषि कानून लागू किए थे। इन कृषि कानूनों को किसान विरोधी बताकर हरियाणा-पंजाब के कथित किसान सड़कों पर आ गए थे। उन्होंने इस दौरान कई हिंसा की वारदातों को भी अंजाम दिया था। प्रदर्शन स्थल पर एक व्यक्ति की मौत भी हो गई थी। तब भी सुप्रीम कोर्ट ने इसका स्वत: संज्ञान नहीं लिया था।
तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दायर की गई याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए तत्कालीन CJI एसए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने केंद्र से कहा था कि न कृषि कानूनों पर रोक क्यों नहीं लगा रहे? उन्होंने कहा कि अगर केंद्र सरकार जिम्मेदारी दिखाते हुए इसे रोकने का आश्वासन देती है तो सुप्रीम कोर्ट एक समिति बना कर इसे देखने को कहेगा। तब तक इसे रोक कर रखा जाए। उन्होंने पूछा कि आखिर इसे क्यों जारी रखा जा रहा है? इस दौरान CJI ने बार-बार दोहराया कि वो इन कानूनों के कार्यान्वयन को रोक देंगे। हालाँकि, बाद में नंवबर 2021 में केंद्र सरकार ने इन कानूनों को रद्द कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने किसानों के हिंसक आंदोलन को लेकर कोई संज्ञान तो नहीं लिया, लेकिन 12 जनवरी 2021 को किसान आंदोलन को लेकर एक कमिटी का गठन किया था। इस कमिटी में कृषि विशेषज्ञ अशोक गुलाटी, डॉ. प्रमोद कुमार जोशी और अनिल घनवटे शामिल थे। सुप्रीम कोर्ट ने 4 सदस्यीय टीम बनाई थी, लेकिन किसान नेता भूपिंदर सिंह मान ने इससे खुद को अलग कर लिया था। इस कमिटी ने अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में दे दी, लेकिन रिपोर्ट केंद्र सरकार द्वारा कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा के पाँच महीने बाद आई।
इस रिपोर्ट में दावा किया गया था कि देश भर के 86 फीसदी किसान संगठन सरकार के तीनों कृषि कानूनों से खुश थे। ये किसान संगठन करीब 3 करोड़ किसानों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। इन सबके बावजूद केंद्र सरकार को इन कानूनों को वापस लेना पड़ा। घनवटे के मुताबिक, सीलबंद रिपोर्ट में भी कृषि कानूनों को रद्द न करने की सलाह दी थी। घनवट ने कहा था कि इन कृषि कानूनों को रद्द करना या लंबे समय तक लागू न करना उन लोगों की भावनाओं के खिलाफ है, जो इसका मौन समर्थन करते हैं।
आपको याद होगा जब कथित किसान संगठनों ने दिल्ली को घेर रखा था, हिंसा-हुड़दंग की खबरें लगातार आ रही थी तब कई लोगों ने इस मामले में दो टूक फैसले नहीं लेने पर सुप्रीम कोर्ट की आलोचना की थी। शाहीन बाग में भी सुप्रीम कोर्ट का यही रवैया सामने आया था। अब जबकि किसान फिर से दिल्ली के बॉर्डर पर पहुँच रहे हैं और हर तरफ आफरा-तफरी का माहौल है, ऐसे में एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट फिर संभावित हिंसा को देखते हुए किसी तरह का निर्देश देने से बचता दिख रहा है।
हालाँकि, किसान चुनाव को देखते हुए सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश में लगे हैं और इस तरह की माँगे रख रहे हैं, जिस पर गहन अध्ययन करके ही निर्णय लिया जा सकता है। किसानों ने जिन माँगों को रखा है उनमें MSP की गारंटी के साथ ही बिजली की दरों में छूट और किसानों के कर्ज की माफी की भी माँग है। यहाँ तक बात तो ठीक है। हालाँकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार (13 फरवरी 2024) को पीएम सूर्य घर योजना की घोषणा की है, जिसमें देश भर के एक करोड़ घरों को हर महीने 300 यूनिट मुफ्त बिजली दी जाएगी।
इसके अलावा, किसानों ने पिछले आंदोलन के समय दर्ज हुए मुकदमों को भी तुरंत खारिज करने की माँग की है और लखीमपुर में मारे गए चार किसानों के परिवारों के लिए सरकारी नौकरी और आर्थिक मदद की माँग कर रहे हैं। किसान स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की माँग भी कर रहे हैं, जिसमें लागत की तुलना में एमएसपी को डेढ़ गुना करने की माँग है। बताते चलें कि पिछले किसान आंदोलन के दौरान उपद्रवियों ने दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर हिंसा की थी। इतना ही नहीं, दिल्ली के लालकिले पर तिरंगा को नोंचने की कोशिश की थी।